राज्यपाल और राज्यों के चुनाव
दीपावली का पर्व गुजर गया जिसे मनाने में भारतवासियों ने अपने भाईचारे की मूल संस्कृति का परिचय दिया। इस बार की दिवाली की विशेषता यह रही कि इस समय देश के पांच प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं जिनमें से एक छत्तीसगढ़ में तो विगत 7 नवम्बर को मतदान का एक चरण और मिजोरम में पूरा मतदान हो भी चुका है। लोकतन्त्र में विधानसभा चुनावों का बहुत महत्व होता है क्योंकि इनके परिणाम स्वरूप बनने वाली राज्य सरकारों के कन्धों पर ही सभी सरकारी नीतियों को लागू करने की जिम्मेदारी रहती है। भारत जो कि राज्यों का संघ कहा जाता है उसमें केन्द्र सरकार की भी लोक नीतियों का क्रियान्वयन राज्य सरकारों के माध्यम से ही किया जाता है। इन राज्य सरकारों का मुख्य काम होता है कि वे संविधान के अनुसार अपना राज-काज चलाएं।
हमारे संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति महोदय होते हैं। अतः वह प्रत्येक राज्य में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं जिसका काम ही केवल यह देखना होता है कि उसका काम लोगों द्वारा चुनी गई राज्य सरकारें संविधान की परिधि में कर रही हैं अथवा नहीं। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये गये व्यक्ति को राज्यपाल कहा जाता है। उसका अपने पद पर बने रहने का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता बल्कि जब तक राष्ट्रपति उससे प्रसन्न रहते हैं तभी तक वह अपने पद पर बने रह सकता है। यह अनूठी व्यवस्था हमारे संविधान निर्मताओं ने बहुत गूढ़ विचार-विमर्श व बहस मुबाहिसे के बाद संविधान सभा में चली लम्बी बहसों के बाद की। इसका मन्तव्य यही था कि कहीं राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यपाल अपनी संवैधानिक स्थिति को देख कर स्वयं को राज्य का मालिक गलती से भी न समझ बैठे। अतः भारतीय संविधान में राज्यपाल को लोगों द्वारा चुनी हुई विधानसभाओं द्वारा किये गये फैसलों पर अपनी सहमति की मुहर लगाने के नियम से बांधा गया। बशर्ते विधानसभा द्वारा किया गया फैसला उस संवैधानिक दायरे में हो जो लोगों की सरकार को बहुमत के आधार पर निर्णय करने के लिए अधिकृत करता है। किसी भी सरकार के गठन का मुख्य लक्ष्य लोकहित और लोक कल्याण के लिए फैसले करना होता है।
भारत में प्रत्येक राज्य की अलग-अलग जरूरतें और भौगोलिक व सांस्कृतिक स्थितियां होती हैं। अतः चुनी हुई सरकारें इन्हीं के आलोक में राज्य के लोगों के समग्र हित में विधानसभा में विधेयकों के माध्यम से फैसले करती हैं जिससे उन्हें जमीन पर उतार कर प्रदेश का विकास किया जा सके। ये विधेयक विधानसभा में बहुमत से पारित होने के बाद राज्यपालों के पास उनकी स्वीकृति के लिए भेजे जाते हैं। राज्यपाल प्रायः इन विधेयकों को स्वीकृति देने में देर नहीं लगाते मगर उन्हें यह अधिकार भी होता है कि यदि किसी विधेयक के प्रावधानों के बारे में कुछ आशंका हो तो वह सरकार के पास उसे पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं। सरकार उस पर पुनः विचार करके वापस भेज सकती है और तब राज्यपाल को स्वीकृति देनी ही पड़ती है। मगर सर्वोच्च न्यायालय में इन दिनों ऐसे मामले चल रहे हैं जिनमें पंजाब व तमिलनाडु के राज्यपाल विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर जमकर बैठे हुए हैं और इन पर किसी प्रकार की कोई कार्रवाई ही नहीं कर रहे हैं। इसे सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत गंभीर मामला माना है और देश के लोकतन्त्र के लिए अपने आकलन में बहुत ही घातक तक कहा है। अतः समझने वाली बात यह है कि एक तरफ जब पांच राज्यों के चुनाव हो रहे हैं तभी दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय में राज्यपालों की विवादास्पद भूमिका के बारे में बहस चल रही है। इसका एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि जिस सरकार को किसी राज्य के करोड़ों मतदाता अपने एक वोट की ताकत पर बनाते हैं उसके संवैधानिक कार्यों को किसी राज्य का संवैधानिक मुखिया कहलाये जाने वाला व्यक्ति ही अपनी हेकड़ी में आकर रोक सकता है। यह स्थिति वास्तव में बहुत गंभीर कही जा सकती है क्योंकि ऐसे होने पर उस वोट की कीमत नगण्य हो जाती है जिसे संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर प्रत्येक गरीब-अमीर को एक समान रूप से देकर गये हैं। हम स्वयं देख रहे हैं कि इन पांचों राज्यों में अपनी-अपनी सरकारें बनाने के लिए विभिन्न राजनैतिक दल किस प्रकार से एक-दूसरे के विमर्श को ध्वस्त करने में लगे हुए हैं और खुद को आम लोगों का सच्चा हितैषी बता रहे हैं। अब जिस भी राज्य में जिस भी पार्टी की सरकार बनेगी वह अपनी नीतियों के अनुसार फैसले लेगी। अगर राज्यपाल उन फैसलों पर ही लम्बी तान कर सो जाये तो चुनावों में की गई भारी कवायद का क्या मतलब? इसलिए राज्यपालों की भूमिका भारत की बहुदलीय प्रशासन प्रणाली के तहत कोई छोटा-मोटा मुद्दा नहीं हो सकता।
राज्यपाल न तो किसी भी सत्ताधारी दल का ‘एजेंट’ हो सकता है और न ही किसी भी सरकार का ‘रीजेंट’ वह केवल संविधान के संरक्षक का प्रतिनिधि होता है और संविधान की रक्षा करना ही उसका परम दायित्व होता है जो कि राष्ट्रपति महोदय उसे सौंपते हैं। उसका काम किसी भी राज्य में चुनी हुई सरकार के होते शासन-प्रशासन को देखने का भी नहीं होता। इसके लिए विधानसभा के भीतर ही सत्ता पक्ष के खिलाफ खड़ा विपक्ष होता है। आखिरकार लोकतन्त्र में लोगों की ही सरकार तो बनती है और उसकी निगरानी व पहरेदारी करना भी लोगों का अधिकार व दायित्व होता है जिसे विपक्षी दल निभाते रहते हैं। यही तो लोकतन्त्र होता है।