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आई फोन ‘हैक’ पर राजनीति

05:50 AM Nov 02, 2023 IST | Aditya Chopra

कई प्रमुख विपक्षी नेताओं समेत कुछ पत्रकारों के ‘आई फोनों’ की निगरानी किये जाने के बारे में इन फोनों को बनाने वाली कम्पनी ‘एप्पल’ द्वारा उन्हें सचेत किये जाने पर भारतीय राजनीति में उस समय तूफान आया है जब देश के पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और अगले साल के शुरू में लोकसभा के राष्ट्रीय चुनाव होने हैं। एप्पल कम्पनी ने इन फोन धारकों को ईमेल सन्देश भेज कर लिखा है कि आपके फोन को किसी ‘मालवेयर वायरस’ से सरकार द्वारा सर्वेक्षण में रखा जा रहा है जिसके माध्यम से आपकी सारी गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती है। मगर इसके साथ ही सरकार ने ऐसी किसी कार्रवाई से इन्कार करते हुए पूरे मामले की सूचना प्रौद्योगिकी मन्त्रालय की संसदीय समिति से जांच कराने की घोषणा कर दी है और कहा है कि ऐसा ही एक ई-मेल सन्देश वाणिज्य मन्त्री पीयूष गोयल को भी आया है। सरकार की तरफ से यह भी कहा गया है कि वह पूरे प्रकरण की जांच में एप्पल कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को भी पूछताछ के लिए बुला सकती है। जिन प्रमुख नेताओं को फौन ‘हैक’ किये जाने के सन्देश मिले हैं उनमें कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी, इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के अलावा इस पार्टी के कई राष्ट्रीय प्रवक्ता भी हैं जिनमें सबसे तेज-तर्रार मानी जाने वाली श्रीमती सुप्रिया श्रीनेत का नाम भी है। इनके अलावा मार्क्सवादी पार्टी के सीताराम येचुरी व शिवसेना की प्रियंका चतुर्वेदी व तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा भी सन्देश पाने वालों में हैं। इस मामले में मूल सवाल निजी स्वतन्त्रता का उठता है जिसे सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों का मूल अधिकार मान चुका है।
यह लोकतन्त्र का भी मूलभूत सिद्धान्त होता है क्योंकि इस व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक संविधान के दायरे में स्वयंभू होता है। अतः इस मुद्दे पर विपक्षी नेताओं की चिन्ता वाजिब मानी जा सकती है मगर इसके साथ ही सरकार की तरफ से दिखाई गई साफगोई को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यदि सरकार ने इस मामले में तुरन्त कार्रवाई की है तो उसकी नीयत पर भी शक करने की कोई वजह नहीं बनती है क्योंकि भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में किसी भी पार्टी की सरकार नागरिकों के निजी जीवन का सर्वेक्षण करने का खतरा मोल नहीं ले सकती है। भारत में एेसे भी कम उदाहरण हैं जब किसी सरकार पर इस प्रकार के आरोप लगे तो उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। सबसे बड़ा उदाहरण 80 के दशक का है जब कर्नाटक की वीरप्पा मोइली सरकार ‘टेप कांड’ में फंस गई थी तो उसे सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। वह सरकार कांग्रेस की ही थी मगर आरोपों में फंसने पर श्री वीरप्पा मोइली को कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। फोन टेप करने के आरोप मोदी सरकार से पहले दस वर्ष तक सत्ता में रही डा. मनमोहन सिंह सरकार पर भी लगे थे और संसद के भीतर ही ये आरोप तत्कालीन विपक्ष व भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण अडवानी ने बाकायदा उन लोगों के नाम की सूची पढ़कर लगाये थे जिनके फोन ‘टेप’ किये जा रहे थे। उस सूची में कुछ विपक्षी नेताओं के साथ कुछ पत्रकारों के नाम भी शामिल थे। मगर तब तक मोबाइल फोनों में मालवेयर वायरस भेज कर निगरानी करने का मुद्दा नहीं था बल्कि यह था कि सरकार के आदेश पर दूरसंचार विभाग यह काम कर रहा है। मगर अब सूचना टैक्नोलॉजी क्रान्ति होने के बाद चीजें बदल चुकी हैं अतः आरोपों का स्वरूप भी बदल चुका है। इससे पहले दो वर्ष पूर्व भी देशवासियों ने ‘पेगासस’ वायरस का पूरा कर्मकांड देखा है जिसकी जांच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक विशेष समिति ने की थी। इस मामले को लेकर दो साल पहले संसद में भी जमकर हंगामा हुआ था।
पेगासस वायरस के बारे में एक तथ्य यह सामने आया था कि इस मालवेयर को केवल इजराइल ही बनाता है और वह केवल विभिन्न देशों की सरकारों को ही इसे बेचता है। मगर मामले की जांच करने वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि उसे सरकार की ओर से कोई सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। इस मामले का एक पहलू राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा होता है। सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए संदिग्ध व्यक्तियों और उनकी गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिए ऐसी कार्रवाई करने के लिए स्वतन्त्र होती हैं मगर संवैधानिक राजनैतिक गतिविधियों की निगरानी के लिए यदि ऐसी कार्रवाई की जाती है तो वह पूर्ण रूप से असंवैधानिक व गैर कानूनी होती है।
लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष इस व्यवस्था के अविभाज्य अंग होते हैं और दोनों ही संविधान की सीमा के भीतर अपनी- अपनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। अतः उनके फोनों का यदि सर्वेक्षण किया जाता है तो यह सत्ता पर काबिज सरकार के लिए भी गंभीर चिन्ता का विषय बन जाता है जिसे देखते हुए ही केन्द्र सरकार ने तुरन्त जांच कराने का आदेश दिया लगता है। क्योंकि पूरी दुनिया के सामने अमेरिका का वह ‘वाटरगेट कांड’ भी एक नजीर है जिसे लेकर 70 के दशक में वहां की रिचर्ड निक्सन सरकार सन्देह के घेरे में आ गई थी।
अमेरिका का लोकतन्त्र भी बहुत मायने में पूरी दुनिया का सबसे खुला और उदार लोकतन्त्र माना जाता है। वाटर गेट कांड में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अपनी प्रतिद्वन्द्वी डेमोक्रेटिक पार्टी के मुख्यालय पर
जासूसी यन्त्र लगा कर उसकी गतिविधियों को जानने की कोशिश की थी। निक्सन इस मामले पर लम्बी टालमटोल करते रहे थे मगर भारत की सरकार ने एप्पल फोन कांड का भंडाफोड़ होते ही इसकी जांच कराने की घोषणा कर दी है। इस हकीकत को भी हमें ध्यान में रखकर ही इस मामले में और टीका-टिप्पणी करनी होगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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