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किसान आंदोलन: दोनों पक्ष दिखाएं समझदारी

02:24 AM Feb 28, 2024 IST | Sagar Kapoor

न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानून बनाने और स्वामीनाथन आयोग की सभी सिफारिशों को लागू करने की मांग को लेकर किसान आंदोलनरत हैं। नवंबर 2021 में किसानों ने आंदोलन खत्म किया था, लेकिन दो साल बाद वह फिर सड़कों पर हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने 13 फरवरी को दिल्ली कूच का ऐलान किया था। किसान यूनियनों ने दिल्ली चलो का नारा दिया है। पुलिस की सख्ती के चलते किसान अपने स्थान से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। किसान नेताओं और सरकार के प्रतिनिधियों के मध्य तीन-चार दौर की वार्ता के बाद भी समस्या का कोई हल निकल नहीं पाया है। किसानों ने आगामी 29 फरवरी तक दिल्ली कूच का कार्यक्रम टाल दिया है। अब तक किसान आंदोलन के दौरान सात मौतें हो चुकी हैं। इन में चार किसान और तीन पुलिस कर्मचारी शामिल हैं।
ये पहली बार नहीं है जब किसान आंदोलन कर रहे हैं। दो साल पहले दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन हुआ था तब मोदी सरकार को किसानों के आगे घुटने टेकने पड़े थे और संसद से पारित तीन कृषि कानूनों को रद्द करना पड़ा था। किसानों का डर था कि ये कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य को खत्म कर सकते हैं और खेती-किसानी कॉर्पोरेट कंपनियों के हाथों में सौंपे जा सकते हैं। हालांकि, कृषि कानूनों को लेकर किसानों को बड़ी कुर्बानी देनी पड़ी। किसान करीब एक साल तक लगातार धरना प्रदर्शन करते रहे।
दो साल पहले सरकार ने न सिर्फ कानूनों को रद्द कर दिया, बल्कि एमएसपी पर गारंटी देने का वादा किया। इसके बाद किसानों ने आंदोलन वापस ले लिया था लेकिन अब किसानों का कहना है कि सरकार ने एमएसपी को लेकर अपने वादे पूरे नहीं किए। हालांकि केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच वार्ता भी जारी है किंतु अभी तक समझौता नहीं हो सका। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर ये संघर्ष कब तक चलता रहेगा।
असल में सरकार जो प्रस्ताव देती है उसे किसान नेता किसी न किसी बहाने से ठुकरा देते हैं। कृषक वर्ग के प्रति हर किसी की सहानुभूति होने के बावजूद इस आंदोलन के प्रति ये अवधारणा व्याप्त है कि ये पंजाब के बड़े किसानों द्वारा प्रायोजित है। जेसीबी और पोकलेन जैसी मशीनों का साथ होना स्पष्ट करता है कि आंदोलन के पीछे कुछ ऐसी शक्तियां छिपी हैं जिनका उद्देश्य शांति-व्यवस्था को खतरे में डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना है। यही वजह है कि पंजाब से ही आंदोलन के विरुद्ध आवाजें उठने लगी हैं। जिस अकाली दल ने कृषि कानूनों के विरोध में मोदी सरकार से नाता तोड़ लिया वह भी खुलकर कह रहा है कि किसान पहले पंजाब सरकार के विरुद्ध आंदोलन करें जिसने उनके साथ किए वायदों पर अमल नहीं किया।
जहां तक एमएसपी का प्रश्न है तो उससे किसी को एेतराज नहीं है। लेकिन सभी कृषि उत्पादों के लिए उसका तय किया जाना अव्यवहारिक लगता है। इसी तरह की कुछ और मांगें हैं जिनको सैद्धांतिक सहमति के बावजूद स्वीकार करना मौजूदा स्थितियों में असंभव है। सबसे बड़ी बात ये है कि यह आंदोलन पूरे देश के किसानों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। पिछली बार दिल्ली में चले लंबे किसान आंदोलन को ज्यादातर राजनीतिक दलों का समर्थन मिलने के बाद भी वह दिल्ली के निकटवर्ती कुछ राज्यों के किसानों तक सीमित होकर रह गया था।
यदि यह आंदोलन समूची किसान बिरादरी की आवाज होता तो अब तक दूसरे राज्यों से भी किसान दिल्ली आने लगते। और ऐसे समय जब रबी फसल तैयार होने को है और किसान का पूरा ध्यान कटाई के बाद अपनी फसल को सही समय पर बेचने में लगा हो तब उसका अपने खेत से दूर जाकर बैठ जाना चौंकाने वाला है। किसान की आय बढ़े और खेती लाभ का व्यवसाय बने इसमें भी किसी को ऐतराज नहीं होगा। किसान की खुशहाली से ही भारत के उपभोक्ता बाजार में रौनक आती है। सड़क और बिजली पहुंचने के कारण ग्रामीण भारत की तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी है। ऐसे में किसान समुदाय में खेती के प्रति लगाव बनाए रखने के लिए आवश्यक है उसका आर्थिक पक्ष सुदृढ़ हो। लेकिन यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जो दबाव बनाकर पूरी करवाना संभव नहीं लगता।
भारत की आजादी के समय 70 फीसदी लोग खेती से जुड़े कामों में जुड़े थे। देश की राष्ट्रीय आय का 54 फीसदी हिस्सा भी इसी सेक्टर से आता था। लेकिन साल दर साल राष्ट्रीय उत्पाद में खेती का हिस्सा घटता चला गया। साल 2019-20 के आंकड़ों पर नजर डालें तो राष्ट्रीय उत्पाद में खेती का हिस्सा 17 फीसदी से भी कम रह गया। इसके साथ ही खेती से जुड़े लोगों की हिस्सेदारी में भी गिरावट आई है। आजादी के समय 70 फीसदी लोग खेती से जुड़े थे जो अब घटकर 54 फीसदी पर आ गई है। इसमें एक आंकड़ा और भी चैंकाने वाला है। साल 2017 में किसानों की आय दोगुनी करने के लिए बनाई गई समिति ने पाया है कि भले ही देश की जीडीपी में खेती की हिस्सेदारी घट रही हो लेकिन इस सेक्टर में काम करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। इसका मतलब साफ है कि खेती भले ही घाटे का सौदा बन रही है, लेकिन गांवों में बेरोजगारों को रोजी-रोटी देने में आज भी यही सेक्टर सबसे आगे है।
किसान को इज्जत से जीवन जीने का अधिकार है। किसान की इनकम कैसे बढ़े असली सवाल यही है, वह एमएसपी से आए ये जरूरी नहीं है। उसके और तरीके निकाले जाने चाहिए। अमेरिका में कैसे होता है, वैल्यू एडिशन पर टैक्स लगाकर उसे सरकार सब्सिडी के तौर पर दोबारा कृषि क्षेत्र में दे देती है। यह समझना चाहिए कि हम भारत में ऐसा सिस्टम क्यों नहीं बना सकते, बिल्कुल बना सकते हैं। केरल का उदाहरण, क्या दूसरे राज्य नहीं अपना सकते। एमएसपी राज्य सरकार का विषय है, वहां सुविधा दीजिए, कोई बाहर क्यों जाएगा। आजादी होनी चाहिए। बिचौलिये खत्म होने चाहिए।
जब भी आंदोलनकारी बातचीत की मेज पर जाते हैं तो उनका आचार व्यवहार इस तरह का नहीं हो सकता कि सब लेंगे या कुछ नहीं लेंगे। दुनिया में कोई भी आंदोलन इस तरह से नहीं होता है। आंदोलनकारी जब बातचीत की मेज पर जाते हैं तो दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा अपनी पोजिशन से हटते हैं और तभी बीच का रास्ता निकलता है। आंदोलनकारियों को ये समझना होगा कि उनकी सभी बातें स्वीकार करने के बाद भी उनका क्रियान्वयन न हो तो उसका लाभ ही क्या
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ज्यादातर किसान अभी तक बाजारवादी अर्थव्यवस्था के साथ सामंजस्य नहीं बिठा सके। वैसे भी प्रत्येक राज्य के किसानों की समस्याएं अलग-अलग हैं। एमएसपी के बारे में भी ऐसा ही है। बेहतर हो आंदोलन कर रहे किसान इस बात को समझें, और व्यावहारिकता के धरातल पर उतरकर मांगों को मनवाने की दिशा में पहल करें।

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