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दशहरा और सामर्थ्यवान समाज

06:04 AM Oct 24, 2023 IST | Aditya Chopra

इस बार का दशहरा या विजयदशमी का त्यौहार भारत में होने वाले चुनावों की पूर्व बेला में पड़ा रहा है। इसका विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि हमने जिस लोकतन्त्र को आजादी प्राप्त करने के बाद 76 साल पहले अपनाया, उसके चुनाव मुख्य संचालक होते हैं। चुनावों के दौरान ही इस देश के आम नागरिक को यह आभास होता है कि ‘गांधी बाबा’ जो उसे ‘मन्तर’ देकर गये हैं उसका असर क्या होता है। गांधी बाबा इस देश के खेत में काम करने वाले आदमी से लेकर सड़क पर सफाई करने वाले आदमी तक को इस मुल्क का मालिक बना कर गये। यह मालिकाना हक उसे एक वोट के संवैधानिक अधिकार से दिया गया। इस एक वोट की ताकत से ही भारत का आम आदमी लोकतन्त्र में नेता पैदा करता है और फिर उनके हाथ में सत्ता चलाने की चाबी देता है। वह अपनी दृष्टि में जिसे धर्म समझता है उसके पक्ष में लामबन्द होता है और जिसे अधर्म समझता है उसका विरोध करता है। दशहरा या विजयदशमी भी हमें अधर्म पर धर्म की विजय का सन्देश देते हैं।
दशरथ पुत्र राम जिस प्रकार से ब्रह्मांड के सबसे शक्तिशाली और ज्ञानी भी समझे जाने वाले रावण पर विजय प्राप्त करते हैं उसके पीछे तत्व यही है कि प्रतापी से प्रतापी राजा भी जब अधर्म के मार्ग पर चल पड़ता है तो उसके विरुद्ध खड़ी हुई जन शक्ति उसकी विशाल सुसज्जित सेनाओं तक को हरा डालती है। भारतीय संस्कृति में राम-रावण युद्ध को प्रथम ‘जन युद्ध’ की संज्ञा भी दी जा सकती है। रावण जो सप्त द्वीप पति था औऱ प्रकांड पंडित पौलत्स्य ऋषि का पौत्र था, जब अपने अहंकार के वशीभूत होकर सभी मर्यादाएं भूल कर पर-स्त्री के हरण को अपना मार्ग समझ बैठा तो उसे साधारण से दिखने वाले राम ने ही सामान्य वानरों और भालुओं की सेना ने ही हरा दिया। वस्तुतः वानर औऱ भालू सामान्य जन के ही प्रतीक रहे होंगे क्योंकि वे युद्ध विद्या में प्रवीण थे। निश्चित रूप से इस युद्ध के एेतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते हैं परन्तु भारत के लोगों की आस्था और मान्यता है कि ‘राम-रावण युद्ध’ इसी भारत की धरती पर हुआ था। जन श्रुतियों से चले इस इतिहास को पहले ऋषि वाल्मी​िक और बाद में महाकवि तुलसीदास ने जब लिपिबद्ध किया तो भारत की जनता ने इसे सांस्कृतिक इतिहास बना दिया। इसका तात्पर्य यही है कि किसी भी देश का संस्कार केवल प्रामाणिक इतिहास ही नहीं होता है, बल्कि जन श्रुतियों पर आधारित व्यवहार भी होता है। इसी वजह से रामकथा का भारत के हर क्षेत्र में गुणगान होता है और हर भाषा में हमें रामायण मिलती है जो भारत के लोगों को सन्देश देती है कि समाज के भीतर ही दैत्य व देव प्रवृत्तियां दोनों ही निवास करती हैं। अतः हमें परिवार से लेकर समाज और राष्ट्र तक की व्यवस्था में सद्आचरण और सद्प्रवृत्तियों की तरफ ही बढ़ना चाहिए। सद्प्रवृत्ति की पहचान जब जंगल में रहने वाले वानर और भालू तक करने में सक्षम होते हैं तो रावण महाज्ञानी होते हुए भी इनसे अछूता कैसे रह गया।
इसी प्रकार नवदुर्गा की कथाएं भारत वासियों को प्रेरणा देती हैं। यह केवल स्त्री शक्ति की पूजा की द्योतक नहीं है परन्तु आसुरी शक्तियों पर नारी स्वरूप में प्रज्वलित सद्-शक्तियों के समुच्य में प्रकट सामर्थ्य की विजय की प्रतीक हैं। हमारे हिन्दी साहित्य में जितने नौ ‘रस’ होते हैं उतने ही देवियों के स्वरूप भी हैं। करुणा और प्रेम व शीतलता की प्रतीक नारी जब रौद्र रूप में आती है तो वह बड़ी से बड़ी आसुरी शक्ति का विनाश कर डालती है परन्तु नारी की इस शक्ति से तभी परिचय हो सकता है जब समाज विवेकशील और सुखी हो। अतः देवी के स्रोत मंे कहा जाता है कि :
रक्तबीज वधे देवी चंड-मुंड विनाशिनी
रूपं देहि, जयं देहि यशे देही द्विषों जहि
विद्या वन्तं, यशस्वन्तं, धनवन्तं जनं करू
रूपं देहि, जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि
इससे यह भी पता चलता है कि भारतीय संस्कृति में प्रारम्भ से ही जन अर्चना का भाव रहा है। यह जन अर्चना ही आधुनिक समय में लोकतन्त्र कहलाती है। समाज के बुद्धिमान होने व उसके विवेकशील होने के साथ ही उसके आर्थिक रूप से समर्थ होने की कामना ही बताती है कि केवल सुखी और सामर्थ्यवान समाज ही आसुरी शक्तियों का दमन करने में सक्षम हो सकता है। लोकतन्त्र में भी सबसे ज्यादा जोर समाज कल्याण पर ही दिया जाता है। राम भी समाज कल्याण के भाव को केन्द्र में रख कर ही आम जन को अपने साथ जोड़ पाये थे तब जाकर उन्होंने रावण जैसे शक्तिशाली व्यक्ति पर विजय पाई थी। अतः शक्ति का केन्द्र जनता ही होती आयी है और लोकतन्त्र में इसी का यशोगान सब नेता करते हैं परन्तु इस प्रणाली में नेता जनता को नहीं बनाता बल्कि जनता नेता को बनाती है। अतः रामायण से लेकर चंडिका स्रोत तक में जनशक्ति पर बल दिया गया है। अतः यह कहना व्यथा नहीं है कि लोकतन्त्र भारतीयों की शिराओं में बहता है। गांधी बाबा ने तो अपने समय में केवल उसका आम जन को आभास कराया और बताया कि भारत की जीवन प्रणाली के केन्द्र में ही जनशक्ति सुशोभित रहती है।

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