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नागरिकता कानून लागू होगा

01:14 AM Jan 04, 2024 IST | Aditya Chopra
नागरिकता कानून लागू होगा

केन्द्र सरकार संशोधित नागरिकता अधिनियम को शीघ्र ही लागू करने के बारे में विचार कर रही है। संशोधन विधेयक 2019 में ही संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया था और राष्ट्रपति का अनुमोदन भी इस विधेयक को प्राप्त हो गया था मगर इसे लागू करने की नियमावली बनाने में बहुत देर होती गई। बार-बार नियमावली तैयार करने की तिथियों को आगे बढ़ाया गया मगर अब जाकर यह तैयार हो गई बताई जाती है जिससे इसके लागू होने का रास्ता खुल गया है। अब यह कहा जा रहा है कि यह नया संशोधित कानून लोकसभा चुनाव से पहले ही लागू कर दिया जायेगा जिससे इस पर चुनावी विवाद हो सकता है क्योंकि इस कानून के बनने पर विपक्षी दल यह मूलभूत सवाल खड़ा कर रहे थे कि यह कानून भारत के संविधान के नागरिक बराबरी के सिद्धान्त के विरुद्ध है। इस कानून को सर्वोच्च न्यायालय में भी चुनौती दी जा चुकी है जिस पर सुनवाई अभी लम्बित है। बेशक यह सवाल भी खड़ा किया जा सकता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून को संविधान की कसौटी पर कसा जाना बाकी है तो फिर इसे चुनावों से पहले लागू करने का क्या तर्क हो सकता है परन्तु देश में इस कानून के विरोध में पहले भी बहुत लम्बा विरोध-प्रदर्शन चल चुका है और अब फिर से ऐसी स्थिति आ सकती है हालांकि चुनावों से पहले ही इसे लागू करने को लेकर यह प्रदर्शन के स्थान पर चुनावी विमर्श का प्रमुख मुद्दा भी बन सकता है।
संशोधित अधिनियम या कानून में यह प्रावधान किया गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाई नागरिकों को भारत की नागरिकता प्रदान कर दी जायेगी। इनमें मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों का नाम नहीं है। इन विदेशी नागरिकों को इस आधार पर भारत की नागरिकता प्रदान की जायेगी कि इन तीनों मुस्लिम देशों में उनके गैर मुस्लिम होने की वजह से उन्हें धार्मिक उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता है। इन तीनों देशों का राज धर्म इस्लाम होने की वजह से गैर मुस्लिम लोगों के साथ धार्मिक भेदभाव के आधार पर सौतेला व्यवहार किया जा सकता है और उन्हें इसी आधार पर उत्पीड़ित किया जाता है अतः भारत एकमात्र ऐसा देश बचता है जहां ये नागरिक शरण ले सकते हैं परन्तु इससे भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर आंच आती है क्योंकि भारत की संवैधानिक नीति किसी भी व्यक्ति के साथ धार्मिक आधार पर भेदभाव करने की नहीं है।
भारत की शरणार्थी नीति भी बहुत उदार रही है और यह उत्पीडि़त व्यक्तियों को शरण देता रहा है। 2019 में संसद द्वारा यह कानून बन जाने के बाद इसका शुरूआती विरोध असम में हुआ था क्योंकि इस राज्य में कथित विदेशी नागरिकों के मुद्दे पर लम्बा आन्दोलन असमगण परिषद ने चलाया था। इस राज्य में बांग्लादेश युद्ध से पहले से ही पूर्व पाकिस्तान से वहां के नागरिक आते रहे थे। इसकी वजह राज्य की सीमाओं का सटे होना भी था और कुछ सिलहट जैसे जिलों के बारे में विवाद भी था। मगर बांग्लादेश युद्ध के समय जो शरणार्थी इस राज्य में आकर बसे थे उनके सामने यह शर्त रख दी गई थी कि 25 मार्च 1971 से पहले जो बांग्लादेश से भारत में आये थे वे भारत या बांग्लादेश में से किसी की भी नागरिकता स्वीकार कर सकते हैं। इस बारे में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी व बांग्लादेश के प्रधानमन्त्री स्व. शेख मुजीबुर्रहमान के बीच 1972 में एक समझौता हुआ था। इसके बाद 1985 में स्व. राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमन्त्री असम समस्या के हल के लिए असमगण परिषद से समझौता किया था।
1 जनवरी, 1966 के बाद 25 मार्च, 1971 के बीच असम में आने वाले बांग्लादेशी भारत के नागरिक माने जायेंगे। संशोधित नागरिक कानून के तहत इस तारीख को बढ़ाकर 31 दिसम्बर, 2014 कर दिया गया और केवल गैर मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया। मगर 25 मार्च,1971 तक आने वाले हर हिन्दू-मुस्लिम बांग्लादेशी की नागरिकता को भी वैध माना गया। अब पेंच यहीं आकर फंस रहा है कि भारत केवल गैर मुस्लिमों को ही धार्मिक आधार पर उत्पीडि़त किस आधार पर मान सकता है जबकि पाकिस्तान व अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम देशों में मुसलमानों में ही ऐसे कई वर्ग हैं जिन्हें वहां की सरकारें मुस्लिम होने के बावजूद मुसलमान नहीं मानती हैं और उनके साथ भारी भेदभाव करती हैं। इनमें आगा खानी मुस्लिम समेत कई और इस्लामी सम्प्रदाय भी शामिल हैं। इन दोनों देशों में शिया मुसलमानों तक पर भी अत्याचार होते रहते हैं। मगर इस सबसे ऊपर भारत का संविधान स्पष्ट और साफ तौर पर ताईद करता है कि सरकार किसी भी व्यक्ति के धर्म को देखकर अपना व्यवहार व आचरण तय नहीं कर सकती। इसी तर्क को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की गई है। याचिका में यह तर्क भी दिया गया है कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों, श्रीलंका में तमिल नागरिकों व चीन के तिब्बत में बौद्ध नागरिकों के साथ भी वहां की सरकारें सौतेला व्यवहार करती हैं और उनका धार्मिक आधार पर उत्पीड़न करती हैं तो उन्हें भारत में शरण मांगने पर यहां की नागरिकता क्यों न प्रदान की जाये? जबकि सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल जवाब में कहा गया है कि नागरिकता प्रदान करने का आधार धर्म नहीं बल्कि धार्मिक उत्पीड़न है। धार्मिक उत्पीड़न वहां की सरकारें उनका धर्म देख कर करती हैं जबकि भारत सरकार नागरिकता प्रदान करने का आधार धर्म नहीं बल्कि धार्मिक उत्पीड़न रख रही है क्योंकि वहां की सरकारों का धर्म इस्लाम है।

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