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शादी की ‘शान’ में पगलाये लोग

01:53 AM Nov 28, 2023 IST | Aditya Chopra
शादी की ‘शान’ में पगलाये लोग

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में धनाड्य परिवारों द्वारा विदेशों में जाकर ब्याह-शादी करने को फिजूलखर्ची व देश का धन बाहर ले जाने वाली गतिविधि कहा है और आह्वान किया है कि ऐसे बड़े आयोजन देश की धरती पर ही होने चाहिए जिससे भारत का धन भारत में ही रहे और इसका लाभ ऐसे आयोजन की व्यवस्था करने वाले गरीब लोगों को मिले। एक दृष्टि से उनका कहना पूरी तरह सही व जायज है क्योंकि भारत के उच्च मध्यन व मध्यम वर्ग की अपने से ऊंचे समाज की नकल करने की आदत होती है। यह नकल करने की आदत फैशन से लेकर जीवन शैली अपनाने तक में देखने को मिलती है परन्तु सवाल उठता है कि भारतीय समाज ब्याह- शादी को इतना शान-ओ-शौकत भरा और धन के प्रदर्शन का आयोजन क्यों समझता है? इसके पीछे कौन सी मानसिकता काम करती है जबकि विवाह दो व्यक्तियों का निजी जीवन सम्बन्ध होता है?
भारतीय सन्दर्भों में यदि इसका विस्तार करें तो दो परिवारों का रईस व धनाड्य परिवार महंगी व शानदार शादियां करके जो धन को पानी की तरह बहाते हैं उससे समाज किस प्रकार लाभान्वित होता है? इससे भारत की अर्थव्यवस्था किस प्रकार लाभान्वित होती है? कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि महंगी शादियां करने से बाजार से माल का उठान बढ़ता है जिससे उत्पादन को बल मिलता है। यह तर्क पूरी तरह अर्थहीन है क्योंकि जब दो व्यक्ति विवाह सूत्र में बंधते हैं तो वे अपना परिवार बसाने के लिए घर की जरूरत का सारा सामान देर-सबेर खरीदेंगे ही। मगर विदेशों में जाकर शादी करने को हम केवल विदेशी मुद्रा की फिजूलखर्ची जरूर कहेंगे। मगर पूरी बात इससे नहीं बनती है खर्चीली शादी चाहे देश में हो या विदेश में हो वह फिजूलखर्ची ही होती है। उसका उत्पादकता बढ़ाने में कोई योगदान नहीं होता बल्कि इसके विपरीत आवश्यक उपभोक्ता सामग्री की इससे अनावश्यक कमी बनती है जिससे महंगाई बढ़ती है। महंगी ब्याह-शादियों में अन्न व भोजन की जो बर्बादी होती है उससे गरीबों का कई सप्ताह तक पेट भर सकता है। क्या यह बेवजह था कि महात्मा गांधी से भी पहले से लेकर सभी समाज सुधारकों ने सादे विवाह समारोह करने की वकालत की और ताईद की ऐसे समारोहों में धन की केवल बर्बादी ही होती है।
मुझे याद है कि मेरे परिवार में स्व. लाला जगत नारायण से लेकर मुझे तक जितनी भी पारिवारिक शादियां हुईं वे सभी एक रुपए का टीका लेकर या देकर पूरी आर्य समाजी तरीके से हुई। इससे किसी के जीवन पर कोई अंतर नहीं पड़ा और न जीवन की मधुरता पर कोई असर पड़ा। महर्षि दयानन्द ने प्रत्येक आर्य समाजी को सादगी से विवाह करने का उपदेश दिया और हिन्दू समाज में यह परंपरा कायम की कि यह समारोह गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार करके समाज में प्रतिष्ठा पा सके। राष्ट्रपिता गांधी ने तो कसम खाई हुई थी कि वह किसी विवाह समारोह में शामिल नहीं होंगे क्योंकि इनमें केवल धन का दिखावा इस प्रकार होता है कि निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग के लोग विवाह के नाम पर भारी कर्ज के बोझ में लद जाते हैं। उस समय तो दहेज प्रथा भी अपने विद्रूप स्वरूप में थी जिसका विरोध स्वामी दयानंद से लेकर महात्मा गांधी ने किया लेकिन दुख की बात यह है कि इस सामाजिक बुराई ने भारतीय समाज की धार्मिक दीवारों को तोड़कर सभी मजहबों के लोगों को अपने जाल में फांसा जिसमें मुस्लिम समाज तक शामिल है जबकि इस्लाम में बहुत ही सादी शादी करने की ताईद की गई है। इस समाज में भी दहेज व महंगी शादी अब शान समझी जाने लगी है। यह पूरे समाज के झूठी शान बघारने की गिरफ्त में फंस जाने का संकेत है। इस बारे में सन्त कबीर दास ने यह दोहा सात सौ साल पहले ही लिख दिया था,
‘‘लिखा-लिखी की है नहीं देखा-देखी बात
दूल्हा-दुल्हिन मिल गये फीकी भई बरात।’’
इस देश के मनीषी, भी हमें यही समझा कर गये हैं कि शादी केवल दो व्यक्तियों का मिलन है इसमें धन लुटाने का क्या अर्थ क्या है? परन्तु शानदार शादियां करने को सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया गया है जिसका सबसे बुरा शिकार अन्त में गरीब व्यक्ति ही होता है। वह समाज में अपना मान-सम्मान रखने के लिए कर्जा लेकर शादी मंे शानदार दावत तो दे देता है मगर बाद में कर्जा देने वाला उसका जीना हराम कर देता है। हमारे देश के जितने भी बड़े नेता स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर आजादी मिलने के बाद तक हुए सभी ने ऐसी ब्याह-शादियों का बहिष्कार किया। गांधी और नेहरू किसी विवाह समारोह में नहीं जाया करते थे। लाल बहादुर शास्त्री ने एक खादी की साड़ी देकर शादी की थी। चौधरी चरण सिंह भी किसी लकदक वाली शादी में नहीं जाते थे और अपनी जनसभाओं में लोगों से सादे विवाह समारोह करने की अपील किया करते थे। ये सभी गांधीवादी नेता जरूर थे मगर विचारों से पूरे भारतीय पहले थे।

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