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‘विधायिका और न्यायपालिका’

भारत के लोकतन्त्र में संविधान या कानून का शासन स्थापित करने के लिए जो व्यवस्था की गई उसमें न्यायपालिका को सरकार के दायरे से बाहर रखा गया और इसे सीधे संविधान से अधिकार लेकर अपना कार्य करने के लिए अधिकृत किया गया।

12:57 AM Nov 08, 2020 IST | Aditya Chopra

भारत के लोकतन्त्र में संविधान या कानून का शासन स्थापित करने के लिए जो व्यवस्था की गई उसमें न्यायपालिका को सरकार के दायरे से बाहर रखा गया और इसे सीधे संविधान से अधिकार लेकर अपना कार्य करने के लिए अधिकृत किया गया।

भारत के लोकतन्त्र में संविधान या कानून का शासन स्थापित करने के लिए जो व्यवस्था की गई उसमें न्यायपालिका को सरकार के दायरे से बाहर रखा गया और इसे सीधे संविधान से अधिकार लेकर अपना कार्य करने के लिए अधिकृत किया गया। इसका मतलब यही था कि विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा न्यायपालिका निरपेक्ष भाव से इस तरह करेगी जिससे संविधान का शासन हर हालत में काबिज रहे। बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली के भीतर इस प्रकार की व्यवस्था करने के पीछे हमारे संविधान निर्माताओं का एकमात्र उद्देश्य यही था कि लोकतन्त्र में एक वोट के अधिकार से सरकारें बनाने और बदलने का हक रखने वाले सामान्य नागरिक के सम्मान और अस्मिता पर किसी भी तरह चोट न हो सके और हर अन्याय के विरुद्ध न्यायालय की शरण में जाने का उसका विकल्प खुला रहे।
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बहुत पुरानी बात नहीं है जब इस देश की थल सेना के अध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने अपने जन्म प्रमाण पत्र के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली थी। उस समय डा. मनमोहन सिंह की सरकार थी। यह पहला मौका था कि देश का कोई जनरल एक नागरिक के तौर पर अपने अधिकारों की रक्षा और निजी गौरव व सम्मान की खातिर सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गया था। यह बात और है कि रिटायर होने के बाद जनरल साहब राजनीति में आ गये और आजकल केन्द्र सरकार में मन्त्री हैं मगर इस घटना से भारत में न्यायपालिका की समग्र सक्रिय निरपेक्ष भूमिका का अन्दाजा लगाया जा सकता है। 
दरअसल हकीकत यह है कि महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को केवल अंग्रेजों का राज समाप्त करने के लिए ही नहीं लड़ा था बल्कि भारत के आम आदमी के आत्म सम्मान और प्रतिष्ठा को जगाने के लिए भी लड़ा था क्योंकि अंग्रेजी राज में उसकी निजी हैसियत को गुलाम की तरह बदल दिया गया था।  यही वजह थी कि बापू के आन्दोलन में मजदूरों से लेकर किसान और दबे-कुचले  वर्ग से लेकर विद्यार्थियों तक ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। अतः सर्वोच्च न्यायालय का रिपब्लिक टीवी के प्रधान सम्पादक श्री अर्नब गोस्वामी के मामले में यह कहना कि उन्हें न्यायालय की शरण में आने से कोई नहीं रोक सकता  क्योंकि यह उनका मौलिक अधिकार है जो संविधान द्वारा प्रदत्त है, पूरे प्रकरण के उस मानवीय पक्ष को उजागर करता है जो भारतीय संविधान का आधार माना जाता है। श्री गोस्वामी को महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष की ओर से सदन का विशेषाधिकार का नोटिस भेजा गया था क्योंकि उन्होंने मुख्यमन्त्री श्री उद्धव ठाकरे व छह अन्य नेताओं की अपने चैनल में कड़ी निन्दा की थी और संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों के प्रति सम्मान नहीं दिखाया था। निश्चित रूप से विधानसभा अध्यक्ष को उन्हें नोटिस भेजने का अधिकार था मगर अर्नब गोस्वामी को भी यह अधिकार था कि वह इस नोटिस के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय जायें क्योंकि किसी विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही जाया जा सकता है मगर उनके सर्वोच्च न्यायालय जाने पर विधानसभा सहायक सचिव का यह कहना कि उन्होंने यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की हिमाकत क्यों की, पूरी तरह संवैधानिक था जिस पर देश के मुख्य न्यायाधीश श्री बोबडे़ ने कड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए उल्टे सहायक सचिव को ही न्यायालय की अवमानना करने की मंशा में नोटिस जारी कर दिया और दो हफ्ते बाद खुद पेश होने का आदेश दिया है। 
आजाद भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी विधानसभा द्वारा जारी विशेषाधिकार हनन का मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा है। इस मामले पर जो भी फैसला आयेगा वह न्यायपालिका और विधायिका के सम्बन्धों के बारे में न केवल नजीर होगा बल्कि कानून भी होगा। इस मामले को हम विधानसभा सम्बन्धी अन्य मामलों के सर्वोच्च न्यायालय पहुंचने से अलग करके देखेंगे क्योंकि विशेषाधिकार हनन मामलों में किसी भी चुने हुए सदन की व्यवस्था अन्तिम मानी जाती है। अभी तक स्वतन्त्र भारत में केवल एक मामला ही ऐसा हुआ है जिसमें किसी पत्रकार को संसद या विधानसभा में बुला कर प्रताड़ित किया गया। यह मामला 1963 का था जब पं. जवाहर नेहरू देश के प्रधानमन्त्री थे और मुम्बई से ही निकलने वाले साप्ताहिक अखबार ‘ब्लिट्ज’ के सम्पादक स्व. आर.के. करंजिया को संसद की बार में खड़ा किया गया था और उन्हें संयमित होकर कलम चलाने का हुक्म दिया गया था। श्री करंजिया ने आश्चर्यजनक रूप से विपक्ष के पाले में बैठे स्व. आचार्य कृपलानी के बारे में अपने अखबार में उनके निजी व्यवहार को लेकर तीखी टिप्पणियां की थी जो शालीनता के दायरे से बाहर जाती हुई लगी थीं। इसमें प्रमुख बात यह थी कि सरकार का कोई नेता न होकर विपक्ष का नेता करंजिया के निशाने पर था। इससे उस समय की विधायिका के उच्च स्तर का भी अंदाजा लगाया जा सकता है।
 लोकतन्त्र में पत्रकार प्रायः सरकार में बैठे लोगों से ही सवाल पूछते हैं क्योंकि जनता उन्हें ही पांच साल के लिए शासन करने का अधिकार देती है। इसके साथ ही विपक्ष के नेता भी सवालों के घेरे में रहते हैं क्योंकि उन्हें भी जनता ही चुनती है। बेशक यह कार्य मर्यादित होकर ही किया जाना चाहिए और इस प्रकार किया जाना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के निजी सम्मान की रक्षा हो।  अपने पद की जिम्मेदारियों से कोताही बरतने पर किसी भी राजनीतिज्ञ  की आलोचना के लिए पत्रकार स्वतन्त्र रहता है और यह अधिकार उसे इस देश का संविधान ही देता है जिसकी रक्षा न्यायपालिका भी करती है क्योंकि मौलिक अधिकारों की वह संरक्षक होती है। पूरे मामले को हम इस तरह समझ भी सकते हैं कि राजनीति में एक-दूसरे से ऊपर निकलने के चक्कर में राजनीतिक दल सभी तरीके इस्तेमाल करते हैं परन्तु पत्रकार केवल वस्तुपरक होकर ही उनकी समीक्षा करता है। इस मामले में गृह मन्त्री अमित शाह का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि पत्रकारिता में बाधा डालने का कोई भी प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। श्री अमित शाह ने अपने प. बंगाल के दो दिवसीय दौरे में इस राज्य की राजनीति के बदलने के संकेत देने के साथ एक महत्वपूर्ण घोषणा यह भी की है कि प्रेस या मीडिया की आजादी को बाधित किया जाना गलत है। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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