2024, चुनाव और प्रणाली
बीता वर्ष 2024 चुनावी गुणा-गणित का ऐसा साल रहा जिसमें भारत की चुनाव प्रणाली…
बीता वर्ष 2024 चुनावी गुणा-गणित का ऐसा साल रहा जिसमें भारत की चुनाव प्रणाली ही भारी विवाद में रही। इस गये साल को हम चुनावी वर्ष भी कह सकते हैं जिसका अन्त देश की अर्थव्यवस्था को नये उदारवादी व बाजारमूलक चक्र में डालने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह के स्वर्गवास से हुआ। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि डा. सिंह की आर्थिक नीतियों का प्रभाव राजनीति पर भी पड़ा क्योंकि इन नीतियों पर विभिन्न दक्षिणपंथी व मध्यमार्गी राजनैतिक दलों के बीच आर्थिक नीतियों में मतैक्य भी देखने को मिला। बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के राजनैतिक प्रभावों का असर इस वर्ष के भीतर होने वाले राष्ट्रीय लोकसभा के चुनावों पर भी देखने को मिला और पांच राज्यों में हुए चुनावों पर भी। इन सभी चुनावों में भारत के कल्याणकारी राज की परिकल्पना का रूपान्तरण हमें कथित रेवड़ी संस्कृति के रूप में दिखा। प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल ने गरीब जनता को विभिन्न योजनाओं के बहाने सीधे नकद राशि देने के वायदे किये। बेशक ये वायदे महिला उत्थान या कल्याण के बहाने किये गये। पूरे वर्ष बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी पर विपक्षी दलों का जहां जोर रहा वहीं सत्ताधारी दल की ओर से हिन्दू राष्ट्रवाद को नये-नये जामों में पेश किया गया।
सत्ता पक्ष व विपक्ष के इस चुनावी युद्ध में कुल मिलाकर विजय सत्ता पक्ष की ही हुई मगर विपक्ष के राजनैतिक विमर्श को भी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता मिली। लोकसभा के चुनाव परिणाम कहीं से भी चौंकाने वाले नहीं रहे क्योंकि इन चुनावों में जमीन पर जो हवा चल रही थी परिणाम भी उसी के अनुरूप आये। जहां समूचे विपक्षी गठबन्धन इंडिया को 545 सदस्यीय लोकसभा में 234 स्थान मिले वहीं सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को अपने बलबूते पर 240 सीटें ही प्राप्त हुईं मगर इसके एनडीए गठबन्धन को पूर्ण बहुमत 293 सीटों का मिला। दस वर्ष बाद अकेले भाजपा के अपने बहुमत में कमी आयी जबकि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को 2024 में हुए चुनावों में अपने बूते पर 99 सीटें मिलीं। कांग्रेस के 2014 से गिरते ग्राफ को इन चुनावों में सम्बल मिला क्योंकि यह 2014 में केवल 44 सीटें ही प्राप्त कर पाई थीं और 2019 में 52 पर अटक गई थी। दूसरी तरफ भाजपा को इन चुनावों में क्रमशः 282 व 302 सीटें प्राप्त हुई थीं। विपक्षी इंडिया गठबन्धन की 234 सीटें आने पर संसद में विपक्ष की ताकत में बढ़ाैतरी अवश्य हुई मगर यह भाजपा को सत्ता से विमुख करने में सफल नहीं हो सकी।
विभिन्न राज्यों जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, झारखंड में हुए चुनावों में भाजपा व उसके सहयोगी दलों को अच्छी सफलता मिली। इन राज्यों में जम्मू-कश्मीर के चुनाव महत्वपूर्ण रहे क्योंकि इस राज्य से अनुच्छेद 370 हटने के दस वर्ष बाद सीमित अधिकारों वाली विधानसभा के लिए चुनाव हुए थे जिनमें विपक्षी दलों के इंडिया गठबन्धन की नेशनल काॅन्फ्रेंस के नेतृत्व में विजय हुई। ओडिशा में भाजपा ने पिछले 20 वर्षों का बीजू जनता दल का शासन उखाड़ फेंका और हरियाणा में भी लगातार तीसरी बार अपनी सरकार बनाई जबकि आन्ध्र प्रदेश में इसके सहयोगी दल तेलगूदेशम को शानदार विजय मिली और महाराष्ट्र में इसके गठबन्धन महायुति को भी दो तिहाई से अधिक बहुमत प्राप्त हुआ। झारखंड में इंडिया गठबन्धन को अवश्य शानदार सफलता मिली। इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्यों में भाजपा की मजबूती पर कोई फर्क नहीं पड़ा जबकि राष्ट्रीय स्तर पर इसका समर्थन हल्का जरूर हुआ मगर इसके बावजूद लोकसभा में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस लिहाज से भी सरकार बनाने का पहला हक भाजपा का ही था और सहयोगी दलों के साथ इसका पूर्ण बहुमत होने की वजह से सरकार इसकी ही बननी थी। भारत में चुनाव कराने का जिम्मा चुनाव आयोग का ही होता है मगर दुखद यह रहा कि बीते वर्ष में चुनाव आयोग की भूमिका पर विपक्षी दलों ने बहुत गंभीर सवाल उठाये जिनका उत्तर देने में चुनाव आयोग सफल नहीं रहा।
विपक्षी दलों ने चुनाव प्रक्रिया के बारे में जो सवाल खड़े किये वे वास्तव में चिन्ताजनक भी कहे जा सकते हैं, मसलन कुल पड़े वोटों और गिने हुए वोटों में अन्तर पाया जाना चुनावों की पवित्रता पर सन्देह पैदा करता है। इसी प्रकार मतदान की निश्चित समय सीमा के बाद आखिरी एक घंटे में मतदान केन्द्रों में जमा लोगों के वोटों की संख्या अपेक्षा से अधिक पाये जाने की वजह से भी शंकाएं खड़ी हो रही हैं। मतदान पूरा होने के बाद इसके प्रतिशत का हिसाब-किताब मत गिनने के दिन से कुछ घंटों पहले ही देने की वजह से भी विपक्षी दलों को हैरानी होती नजर आयी। चुनावों में आधुनिकतम टैक्नोलॉजी के प्रयोग के बावजूद मतदान प्रतिशत निकालने में इतनी देरी भी कहीं न कहीं चुनाव आयोग को प्रश्नों के घेरे में खड़ी करती है जिसकी वजह से विपक्षी दल वैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं। जबकि चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों से ही चुनाव कराने के निर्णय पर अड़ा हुआ है। इस मामले से सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। यह मामला सीधे चुनाव आयोग और देश के मतदाताओं के बीच का है।
यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि ईवीएम मशीन का बटन दबाते हुए मतदाताओं को सन्तुष्टि नहीं होती है और वह अपने मत का फैसला मशीन के भरोसे छोड़ देता है। जबकि चुनावी नियम के अनुसार मतदाता और प्रत्याशी के बीच कोई भी तीसरी दृश्य या अदृश्य शक्ति नहीं आ सकती है। चुनाव आयोग का पहला धर्म मतदाताओं का विश्वास जीतना ही होता है। समाप्त हुए वर्ष में यह मुद्दा बहुत गर्म रहा जिसके आगे भी उठने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। साल के अन्त में एक देश-एक चुनाव का मसला भी उभर कर सामने आया। सरकार ने इस मामले पर विचार करने के लिए संसद की संयुक्त समिति का गठन किया और विषय उसके हवाले कर दिया। इसके पक्ष-विपक्ष में भी राजनैतिक दल हैं। जाहिर है कि सत्तारूढ़ दल इसके पक्ष में है। मगर इससे पहले समूची चुनाव प्रणाली में सुधार किये जाने का विषय पूरी तरह गौण हो चुका है जबकि चुनावों में धनतन्त्र का कब्जा स्वतन्त्र भारत का सबसे बड़ा मुद्दा है। 1974 में स्व. जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन में यह प्रमुख मुद्दा था। सभी प्रमुख राजनैतिक दल इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहते हैं। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा क्योंकि चुनाव ही भारतीय लोकतन्त्र की आधारभूमि होते हैं। इनकी पवित्रता और शुचिता पर ही सम्पूर्ण लोकतान्त्रिक ढांचा खड़ा होता है और चुनाव आयोग इसका निगेहबान होता है। बीता साल एेसेे ही चन्द सवाल छोड़ कर जा रहा है।