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तेलंगाना में पिछड़े 56 प्रतिशत

भारत में पिछड़े समुदाय की संख्या कितनी है इसकी गिनती 1931 के बाद नहीं हुई है।

06:13 AM Feb 04, 2025 IST | Aditya Chopra

भारत में पिछड़े समुदाय की संख्या कितनी है इसकी गिनती 1931 के बाद नहीं हुई है।

भारत में पिछड़े समुदाय की संख्या कितनी है इसकी गिनती 1931 के बाद से अभी तक नहीं हुई है जो कि अंग्रेजों ने कराई थी जिसमें पिछड़े लोगों की जनसंख्या 52 प्रतिशत के करीब थी। हालांकि 2010 में जातिगत जनगणना तत्कालीन सत्तारूढ़ मनमोहन सरकार ने कराई थी मगर इसके आंकड़े प्रकाशित नहीं हो सके थे। जनगणना कराने का काम केन्द्र सरकार का ही है और केन्द्र में 2014 में सत्ता बदल होने और हुकूमत भाजपा के हाथ में आने के बाद जनगणना कराने का काम नहीं हो सका है जबकि हर दस वर्ष बाद यह कार्य होना चाहिए। इसकी वजह यह है कि 2020 में करोना का संकट पैदा होने की वजह से जनगणना का कार्य आगे के लिए टाल दिया गया। इसके बाद बिहार ऐसा पहला राज्य है जहां राज्य सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण का काम किया और उसमें जाना कि इस राज्य में पिछड़ों की जनसंख्या कितनी है। राज्य सरकार ने इसके आधार पर आरक्षण करने का हुक्म भी जारी किया परन्तु यह मामला उच्च न्यायालय में चला गया जहां इस पर रोक लगा दी गई

राज्य सरकार ने पिछड़ों की जनसंख्या को देखते हुए कुल आरक्षण 74 प्रतिशत से ज्यादा कर दिया था जिसमें अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग भी शामिल थे। अब 2024 में जातिगत सर्वेक्षण का कार्य तेलंगाना की कांग्रेस की रेवन्त रेड्डी सरकार ने कराया है जिसमें 56 प्रतिशत से अधिक पिछड़ों की जनसंख्या निकली है। इनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के पिछड़े शामिल हैं। संविधान में अभी तक पिछड़ों को केवल 27 प्रतिशत आरक्षण देने का ही प्रावधान है और कुल आरक्षण की सीमा पर 50 प्रतिशत की सीमा लागू है जो कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या तेलंगाना की राज्य सरकार अपनी नौकरियों में पिछड़े वर्गों का उनकी जनसंख्या के अनुसार आरक्षण प्रदान करेगी। मुख्यमन्त्री के तेवर देखते हुए इसका उत्तर हां में ही मिलता है परन्तु बिहार सरकार द्वारा अपने सर्वेक्षण के बाद ऐसे ही किये गये काम पर उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी। राज्य सरकार ने इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जहां इस पर विचार चल रहा है।

साठ के दशक में ही तमिलनाडु में भी पिछड़ों व अन्य अनुसूचित जातियों को 69 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की गई थी जिसे केन्द्र सरकार ने नौवीं अनुसूची में डाल दिया था। इस सूची में प्रविष्टी के बाद किसी भी सरकारी फैसले को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। बिहार में जब जातिगत सर्वेक्षण कराया गया था तो मुख्यमन्त्री बेशक नीतीश कुमार ही थे मगर तब उनकी सरकार में बिहार का मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल भी शामिल था औऱ भाजपा विपक्ष में थी। नीतीश बाबू के जनता दल (यू) और राजद व कांग्रेस की मिली-जुली सरकार को महागठबन्धन की सरकार कहा जाता था जबकि इसके बाद नीतीश बाबू के पलटी मारने पर उन्हीं की सरकार भाजपा व जनता दल (यू) की एनडीए सरकार हो गई। तेलंगाना में यह समस्या नहीं है क्योंकि इस राज्य में निखालिस कांग्रेस की सरकार है और इस पार्टी के राष्ट्रीय नेता श्री राहुल गांधी लगातार यह मांग कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार जातिगत जनगणना कराये और पिछड़ों को उनका हक दे तथा आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत सीमा को संविधान संशोधन करके हटाये।

राहुल गांधी के इस रवैये को देखते हुए ही तेलंगाना सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण कराया है जिसमें पिछड़ों की जनसंख्या 56 प्रतिशत से ज्यादा निकली है। राज्य में अनुसूचित जाति के लोगों की जनसंख्या 17 प्रतिशत से ऊपर है और आदिवासियों की जनसंख्या दस प्रतिशत से ऊपर है जबकि अन्य जातियों की जनसंख्या 15 प्रतिशत से ऊपर है। यदि विशुद्ध संख्या की दृष्टि से देखें तो राज्य में कुल पिछड़े दो करोड़ के आसपास हैं जिनमें 36 लाख से कुछ कम मुस्लिम हैं अनुसूचित जाति के लोग लगभग 62 लाख के बराबर हैं और आदिवासी 37 लाख के करीब हैं। अन्य जातियों की संख्या 44 लाख से कुछ ऊपर हैं। राज्य में मुस्लिमों की कुल जनसंख्या 44 लाख 57 हजार 102 है जो कि कुल जनसंख्या का 12.56 प्रतिशत जाकर बैठती है। इसमें से 10 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम पिछड़े हैं और शेष अन्य जातियों के हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि हिन्दुओं में पिछड़ी जातियों का वर्चस्व है जबकि मुस्लिमों में भी स्थिति ऐसी ही है।

अतः पिछड़ी जातियों को ऊपर उठाने और उन्हें सत्ता व प्रशासन में आनुपातिक भागीदारी देने की जिम्मेदारी सरकारों पर आती है। लोकतन्त्र में सरकारें अपनी इस जिम्मेदारी से नहीं भाग सकतीं क्योंकि सरकार को चुनने का कार्य लोग ही करते हैं। राज्य सरकार के सर्वेक्षण में सामाजिक व आर्थिक सर्वेक्षण भी किया गया जिसमें पाया गया कि पिछड़े वर्ग के लोगों की माली हालत अच्छी नहीं है। सामाजिक न्याय की गुहार लगाने वाली शक्तियां शुरू से ही यह मांग करती रही हैं कि इसके लिए जातिगत सर्वेक्षण कराया जाना बहुत जरूरी है क्योंकि किसी भी समाज में यह नहीं हो सकता है कि किसी एक विशेष वर्ग के लोगों के हाथों में ही सत्ता की चाबी सौंप दी जाये। ऐसा माना जा रहा है कि जातिगत जनगणना के रास्ते से ही पिछड़ों के राजनैतिक आरक्षण का मार्ग भी उसी प्रकार निकलेगा जिस प्रकार अनुसूचित जातियों का निकला था। इसकी मुख्य वजह हमारे लोकतन्त्र की पारदर्शी बुनावट है। हम समाज के किसी एक तबके को लम्बे समय तक के लिए सत्ता में भागीदारी से दूर नहीं रख सकते हैं। भारत में गरीबी का फैलाव भी जातिगत पहचान लिये होता है अतः ऐसी जातियों को न्याय देने के कर्त्तव्य से लोकतान्त्रिक सरकारें स्वयं बंध जाती हैं।

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