आपसी विवादों के 60 वर्ष
पुराने विवादों का लगभग 60 वर्ष तक बने रहना विकास के पथ पर आगे बढ़ रहे…
पुराने विवादों का लगभग 60 वर्ष तक बने रहना विकास के पथ पर आगे बढ़ रहे पंजाब-हरियाणा के लिए शुभ नहीं है। हर वर्ष पंजाब-हरियाणा, राजस्थान व हिमाचल विधानसभाओं में संबंधित राज्यपाल अपने-अपने अभिभाषणों में इन अंतर्राज्यीय मुद्दों को दोहराते हैं। ये लम्बित मुद्दे हैं -एसवाईएल जोड़ नहर, हरियाणा-पंजाब के लिए अलग-अलग राजधानी, अलग-अलग उच्च न्यायालय, अलग-अलग विधानसभा-परिसर, नदी जल-बंटवारा। ये सभी मुद्दे लगभग 60 वर्ष से लटके हैं, हालांकि यह भी सच है कि इतने विवादों के बावजूद सभी काम पूरी मुस्तैदी के साथ चल रहे हैं। पंजाब-हरियाणा की विधानसभाएं 60 वर्ष से एक ही परिसर में कार्यरत हैं। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री व उच्चाधिकारी एक ही परिसर से अपनी-अपनी सरकारें चलाते हैं।
दोनों राज्यों के सभी न्यायपालिका संबंधी कामकाज एक ही परिसर से संचालित होते हैं। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री व उच्चाधिकारी एक ही ‘लिफ्ट’ से अपने-अपने सरकारी कार्यालयों, तल (मंजि़ल) तक जाते हैं। कभी कहीं कोई टकराव नहीं। जब भी संयोगवश आमने-सामने हो जाएं तो परंपरागत राम-राम, सत श्रीअकाल पूरे सद्भाव के साथ हो जाती है। मगर मीडिया के समक्ष आते ही दोनों सरकारों के चेहरे तन जाते हैं। परस्पर विरोधी बयानों के सिलसिलों में तीखी भाषा का प्रयोग एक सामान्य सियासी जि़ंदगी का अटूट अंग बन जाता है।
पिछले दिनों पंजाब के एक वरिष्ठ अधिकारी से इसी विषय पर बात हुई तो उन्होंने सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि राज्य सरकार इन विवादों को न्यायिक पैरवी पर इन छह दशकों में लगभग 850 करोड़ खर्च कर चुकी है और उपलब्धि शून्य रही है। लगभग 800 करोड़ की राशि हरियाणा भी वकीलों पर खर्च कर चुका है।
दोनों प्रदेशों के आपसी विवादों को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार ने 7 आयोगों का गठन किया। प्रत्येक आयोग के लिए लगभग 760 करोड़ रुपए केंद्रीय राजकीय कोष से खर्च हुए। इसमें आयोगों के अध्यक्षों व उनके स्टाफ के वेतन शामिल थे। बहुचर्चित आयोगों में शाह कमीशन (दो बार) मैथ्यू आयोग, वेंकट चलैया आयोग, इराडी-कमीशन आदि शामिल थे लेकिन किसी भी आयोग की सिफारिशें लागू नहीं हो पाई।
इन्हीं विवादों के चलते एक समय ऐसा भी आया जब हरियाणा के एक मुख्यमंत्री ने पंजाबी-भाषा को दूसरी भाषा का दर्जा ही समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर तमिल को दूसरी भाषा का दर्जा दे डाला। तमिल पढ़ाने वाले शिक्षक भी अस्थायी रूप से नियुक्त कर डाले गए और जब क्रोध व क्षोभ का यह फार्मूला नहीं चल पाया तब कुछ समय के बाद अगले मुख्यमंत्री ने पुरानी स्थिति को बहाल किया।
उधर, पंजाब के राजनीतिज्ञ भी कम नहीं थे। वहां के एक मुख्यमंत्री ने धमकी दे डाली कि हरियाणा के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को दिल्ली जाने के लिए पंजाब की सड़कों से गुजरने भी नहीं दिया जाएगा। उस स्थिति में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इन सड़कों का प्रयोग ही बंद कर दिया, जिनसे होकर सड़क मार्ग से दिल्ली जाना मजबूरी थी। मुख्यमंत्री ने अपनी ‘कर्मठता’ की छाप छोड़ते हुए एक नई सड़क का भी निर्माण करा डाला, जिसके प्रयोग से पंजाब के क्षेत्रों से गुज़रे बिना भी दिल्ली जाना संभव हो गया।
यानि इस तरह की बचकाना हरकतें इन प्रदेशों के मध्य टकराव के दिनों में घटती रही। इसी मध्य आतंकवाद का रक्तिम-काल चला मगर राजनेताओं की टकरावपूर्ण मुद्राओं में कहीं भी कमी दिखाई नहीं दी। वस्तुस्थिति यह है कि अब समय बदल चुका है। सारे विवादों पर नई सोच के अनुसार विचार कर लेना अब संभव भी है और व्यावहारिक भी। ऐसी स्थिति में दोनों प्रदेशों में स्वस्थ सोच व स्वच्छ विकास की बयार बह सकती है। मगर एक मोड़ वह भी आ चुका है जब पंजाब के मुख्यमंत्री हर उस योजना या घोषणा का विरोध करेंगे जो हरियाणा के मुख्यमंत्री कहेंगे या करेंगे। अखिलेश यादव कभी योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा नहीं करेंगे, भले ही योगी ने कुछ अच्छे काम किए हों। यही स्थिति राहुल गांधी, खड़गे, केजरीवाल आदि की है। आखिर में फिर दुष्यंत याद आएंगे-
तुम्हारे पांव के नीचे
कोई ज़मीन नहीं
कमाल यह है कि
फिर भी तुम्हें यकीन नहीं
इसलिए आशंका है कि विवाद तो चलेंगे भले ही हरियाणा-पंजाब अपने पुनर्गठन की शताब्दी मना लें। आखिर ज़हरीले बयानों की यह बारिशें कब तक बरसती रहेंगी। यह ज़हरीले बयान बेहद महंगे भी सिद्ध हो रहे हैं, बेतुके भी और बचकाना भी। आखिर इन पर रोक कौन लगाएगा?