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एक अरबपति का मुख्यमन्त्री होना!

वर्तमान समय की लोकतान्त्रिक राजनीति में यह खबर अखबारों की सुर्खी बेशक न बनी हो कि महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे की सम्पत्ति 143 करोड़ 20 लाख रुपए की है

12:36 AM May 13, 2020 IST | Aditya Chopra

वर्तमान समय की लोकतान्त्रिक राजनीति में यह खबर अखबारों की सुर्खी बेशक न बनी हो कि महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे की सम्पत्ति 143 करोड़ 20 लाख रुपए की है

एक अरबपति का मुख्यमन्त्री होना
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वर्तमान समय की लोकतान्त्रिक राजनीति में यह खबर अखबारों की सुर्खी बेशक न बनी हो कि महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे की सम्पत्ति 143 करोड़ 20 लाख रुपए की है मगर देश की आम जनता जरूर सोच सकती है कि गांधी के देश की सियासत में उसकी क्या जगह है?  देश के पहले उपप्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की जब मृत्यु हुई तो उनकी कुल जमा सम्पत्ति मात्र 259 रुपये की थी! संयोग है कि जब देश आजाद हुआ और 1947 में इसका पहला बजट बना तो वह भी केवल 259 करोड़ रुपये का था। जब हमने लोकतन्त्र को अपनाकर इस स्वतन्त्र देश की राजनीति शुरू की तो किसी राजनीतिज्ञ का लखपति होना किसी गाली से कम नहीं था।
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वक्त इस कदर बदला है कि राजनीतिज्ञों के अरबपति होने को अब शान समझा जाने लगा है इससे पता चल सकता है कि हमारी राजनीति का चरित्र क्या हो चुका है? पहले राजनीति में लोग घर की सम्पत्ति को खैरात करके जनसेवा की भावना से आया करते थे। अब इसका स्वरूप इस तरह बदला है कि राजनीति में लोग सम्पत्ति बनाने के लिए आते हैं। अकेले ठाकरे के बारे में यह व्यंग्य नहीं है बल्कि पूरे कुएं में ही भांग पड़ चुकी है। वह भी जमाना था जब देश के प्रधानमन्त्री के पास कार खरीदने तक के लिए पैसे नहीं होते थे और उन्हें बैंक से कर्जा लेकर अपने बच्चों की सुविधा के लिए कार खरीदनी पड़ती थी। एेसा स्व. लाल बहादुर शास्त्री के साथ हुआ था जब उनसे अपने बच्चों को स्कूल समय पर छोड़ने के लिए घर वालों ने कार खरीदने की जिद की थी क्योंकि शास्त्री जी का निर्देश था कि उनके निजी काम के लिए किसी सरकारी वाहन का उपयोग नहीं होगा। उस समय फियेट कार मात्र पांच हजार रु. के करीब की आती थी और शास्त्री जी की तन्ख्वाह साढे़ तीन हजार रु. थी (उस समय प्रधानमन्त्री का वेतन इतना ही होता था) अतः उनके निजी सचिव ने सलाह दी कि कार के लिए बैंक से ऋण मिल सकता है और उसकी अदायगी हर महीने किश्तों में हो सकती है। शास्त्री जी को यह तजवीज पसन्द आयी और उन्होंने बैंक से कर्जा लेकर कार खरीद ली। यह फियेट कार आज भी शास्त्री जी के परिवार वालों के पास है जो कि इस परिवार की पहली कार थी।
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इसी प्रकार प्रधानमन्त्री पद तक पहुंचे स्व. चौधरी चरण सिंह से जब उनके सहयोगियों ने कहा कि वह अपने पुत्र अजित सिंह को राजनीति में ले आयें क्योंकि उनकी उम्र तब 80 के पार हो चली थी तो उन्होंने उत्तर दिया कि ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, अजित सिंह किसी किसान का बेटा नहीं एक मिनिस्टर का बेटा है, वह कम्प्यूटर साइंस का बहुत बहा इंजीनियर है और अमेरिका में नौकरी करता है। उसके जन्म के बाद मैं ज्यादातर उत्तर प्रदेश में मिनिस्टर रहा हूं, उसे क्या पता गांवों में किसान किस तरह खेती करता है? रैहट से कैसे सिंचाई करता है? बैलों को किस तरह हृष्ट-पुष्ट रखा जाता है? गरीब, किसान, मजदूरों, दस्तकारों के दुख-दर्द की उसे क्या सुध हो सकती है। वह राजनीति में आने के काबिल नहीं है।” चौधरी साहब की हिम्मत और जनसेवा का जज्बा देखिये कि उन्होंने यह सब 1984 के लोकसभा चुनाव के दौरान  मैनपुरी में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए सार्वजनिक रूप से कहा। जिन्दगी भर राज्य के एक मन्त्री से प्रधानमन्त्री तक रहने के बावजूद उनकी सम्पत्ति वही रही जो उन्होंने शुरू में वकालत करते हुए बनाई थी और वह भी नाममात्र की थी।
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इसी प्रकार 1962 में चीन से हुए युद्ध के दौरान रक्षा मन्त्री स्व. वी.के. कृष्णा मेनन ने जब राजनीति में प्रवेश किया तो अपनी सारी अरबों की सम्पत्ति को दान दे दिया। वह त्रावनकोर रियासत के दीवान के सुपुत्र थे और उनकी अकूत सम्पत्ति थी। इसी तरह सालों  तक कांग्रेस पार्टी के खजांची रहे स्व. सीताराम केसरी ने अपनी कोई निजी सम्पत्ति खड़ी नहीं की और दानापुर (बिहार) में उनका बेटा आज भी एक छोटी सी दुकान करता है। और तो और साठ के दशक तक विपक्षियों द्वारा भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहने वाले मुख्यमन्त्री स्व. चन्द्रभानु गुप्ता की जब मृत्यु हुई तो उनकी सम्पत्ति मात्र एक किताबों की दुकान व बैंक में 10 हजार रुपए थी। कांग्रेस के सबसे ज्यादा शक्तिशाली अध्यक्ष हुए स्व. कामराज नाडार तो पूरी जिन्दगी फक्कड़ ही रहे और खुद को बचपन का एक मजदूर ही समझते रहे। मगर वक्त क्या बदला है कि हर राजनीतिज्ञ अपने बेटे को राजनीति में लाने के लिए जी-जान लड़ा देता है। माननीय उद्धव ठाकरे तो मजबूरी में कांग्रेस से हाथ मिलाकर इसलिए मुख्यमन्त्री बने क्योंकि भाजपा ने उनके बेटे आदित्य ठाकरे को मुख्यमन्त्री बनाने से इन्कार कर दिया था मगर लोकतन्त्र में जो ये नये राजा-महाराजा पैदा हो रहे हैं उनकी आम जनता के बारे में क्या सोच हो सकती है?
यह तो खुश किस्मती है कि इस देश को एक चाय बेचने वाला प्रधानमन्त्री के रूप में मिला हुआ है और गरीबी के दर्द से गुजर चुका है मगर क्या किया जाये जालिमों ने सियासत को इतना महंगा बना दिया है कि कोई बुद्धिमान गरीब अपने दिमाग के बूते पर गांधी के ख्वाब को पूरा करने की सोच तक नहीं सकता क्योंकि जनता के प्रतिनिधियों के नाम पर वही चुनाव में मैदान मार सकता है जिसके पीछे धन की ताकत हो। अतः ऐसे माहौल में मुख्यमन्त्री अगर अरबपति नहीं होगा तो कब होगा। इस सत्य को जानने की हिम्मत कौन करेगा कि एक कार्टूनिस्ट बाला साहेब ठाकरे ने राजनैतिक दल शिवसेना गठित करके इतनी सम्पत्ति किस प्रकार अर्जित की ? जाहिर है यह सब उनकी चाहने वाली जनता ने ही उन्हें बहन मायावती की तरह तोहफे में दी होगी। लोकसेवकों को अगर लोक (जनता) तोहफा नहीं देगी तो फिर कौन देगा! वह तो भला हो इस औहदे पर बने रहने की फिक्र कि उद्धव जी के अरबपति होने का खुलासा उनके विधान परिषद का चुनाव लड़ने की वजह से हो गया क्योंकि चुनाव आयोग के समक्ष उन्हें निजी सम्पत्ति का खुलासा करना जरूरी था।
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