एक ऐसा देश, जो परमाणु सम्पन्न होने के बाद भी जी रहा जिल्लत की ज़िंदगी! जानें क्या है वजह?
आखिर क्यों जिल्लत भरी ज़िंदगी जी रहा ये देश?
सेमिपलाटिंस्क, जिसे ‘पोलिगॉन’ के नाम से भी जाना जाता था, ये सोवियत संघ के लिए परमाणु परीक्षणों का मुख्य केंद्र था. लगभग 7,000 वर्ग मील में फैला यह इलाका 1949 से लेकर 1989 तक 450 से ज्यादा परमाणु धमाकों का गवाह बना.
World News: ईरान और इज़राइल के बीच तनाव चरम पर है. जंग में संभावित परमाणु टकराव की चर्चा भी देखी जा रही है. इस बीच आज हम आपको एक ऐसे देश के बारें में बताने जा रहे हैं, जिसने दशकों पहले परमाणु बमों की मार झेली, लेकिन दुनिया के सामने कभी कोई आवाज नहीं उठाई. ये कहानी है कजाखिस्तान की, जहां पूर्व सोवियत संघ ने 40 सालों तक खुलेआम परमाणु परीक्षण किए और मानवता को गंभीर नुकसान पहुंचाया.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, सेमिपलाटिंस्क, जिसे ‘पोलिगॉन’ के नाम से भी जाना जाता था, ये सोवियत संघ के लिए परमाणु परीक्षणों का मुख्य केंद्र था. लगभग 7,000 वर्ग मील में फैला यह इलाका 1949 से लेकर 1989 तक 450 से ज्यादा परमाणु धमाकों का गवाह बना. इनमें से कुछ परीक्षण इतने शक्तिशाली थे कि एक बम के विस्फोट से झील तक बन गई. कई एक्सपर्ट का मानना है कि इस क्षेत्र में हुए नुकसान की गंभीरता चेर्नोबिल आपदा से भी अधिक थी.
वो जहर जो पीढ़ियों को डसता रहा
इन परीक्षणों का दुष्प्रभाव यहां के आम लोगों को झेलना पड़ा. रेडिएशन के चलते यहां कैंसर, बांझपन, हृदय रोग, और मानसिक बीमारियों का ग्राफ असाधारण रूप से बढ़ा. सरकार ने यह स्वीकार किया कि लाखों लोग रेडिएशन के संपर्क में आ चुके हैं और उन्हें ‘रेडिएशन पासपोर्ट’ जारी किए गए. लेकिन इलाज और सहायता के नाम पर हालात आज भी बदहाल हैं.
बच्चों में जन्मजात कमियां, डाउन सिंड्रोम, और आत्महत्या की दरें अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा हैं. अस्पतालों में जगह नहीं मिलती, और लोग इस विनाश के साथ जीने के लिए मजबूर हो चुके हैं.
‘सीक्रेट टाउन’ और बलिदान होते गांव
सेमिपलाटिंस्क के करीब एक गुप्त शहर बसाया गया था, कुर्चाटोव, जिसे ‘सेमिपलाटिंस्क-21’ भी कहा जाता था. यहां वैज्ञानिक, सेना और अधिकारी रहते थे. विस्फोट की टाइमिंग तक हवा की दिशा देखकर तय की जाती थी, ताकि कुर्चाटोव में रहने वालों को नुकसान न पहुंचे. वहीं दूसरी तरफ, पास के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग भूखे और बीमार मरते रहे.
मुआवज़ा या मज़ाक?
1992 में एक कानून के तहत पीड़ितों को हर महीने मात्र 30 पाउंड (लगभग 3,000 रुपए ) का मुआवजा देना तय किया गया, जो आज के समय में दवा खरीदने के लिए भी काफी नहीं है. यदि कोई व्यक्ति प्रभावित क्षेत्र से बाहर चला जाए, तो उसकी सहायता भी बंद कर दी जाती है. कई परिवारों को अब तक रेडिएशन पासपोर्ट तक नहीं मिल सके हैं.
‘खतरे की गूंज अब भी ज़िंदा है’
आज भी लोग उस क्षेत्र की झीलों, जिन्हें “एटॉमिक लेक” कहा जाता है, उसमें मछली पकड़ते नज़र आते हैं, यह सोचकर कि खतरा खत्म हो चुका है. लेकिन विशेषज्ञों की राय में, रेडिएशन अब भी जमीन के भीतर मौजूद है, जो आने वाली कई पीढ़ियों तक अपना प्रभाव छोड़ता रहेगा. कजाखिस्तान का यह इतिहास हमें बताता है कि परमाणु शक्ति सिर्फ शक्ति नहीं, विनाश का कारण भी बन सकती है.
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