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सियासी सन्नाटे में एक नई आवाज

सन् 1857 के विद्रोह के बाद वहां का साम्राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया और गुलाब सिंह के पुत्र रणवीर सिंह ने शासन संभाला।

01:37 AM Mar 10, 2020 IST | Desk Team

सन् 1857 के विद्रोह के बाद वहां का साम्राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया और गुलाब सिंह के पुत्र रणवीर सिंह ने शासन संभाला।

ऋषि कश्यप की भूमि जम्मू-कश्मीरअपनी समन्वयवादी संस्कृति और विविध धार्मिक आस्थाओं के लिए काफी प्रसिद्ध रही है। जहां सभी धर्म शांतिपूर्ण वातावरण में विकसित हुए। प्राचीनकाल में कश्मीर संस्कृत और बौद्ध शिक्षा का केंद्र था। चौदहवीं शताब्दी में इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया। कश्मीरी पंडितों में ऋषि परम्परा और सूफी सम्प्रदाय साथ-साथ विकसित हुए। मध्य युग में मुस्लिम आक्रांता कश्मीर पर काबिज होते गए। अकबर ने सन् 1588 में हमला कर कश्मीर में मुगल शासन की स्थापना की। 
इतिहास में रुचि रखने वाले जानते होंगे कि 1846 में अंग्रेजों और सिखों के बीच पहले युद्ध में सिखों की आंशिक पराजय के बाद कश्मीर 75 लाख रुपए के बदले गुलाब सिंह के हवाले कर दिया गया था। सन् 1857 के विद्रोह के बाद वहां का साम्राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया और गुलाब सिंह के पुत्र रणवीर सिंह ने शासन संभाला। सन् 1925 में रणवीर सिंह के पौत्र हरि सिंह ने शासन किया। महाराजा  हरि सिंह ने ही जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में किया था। सन् 1925 में ही कश्मीर का पहला राजनीतिक दल मुस्लिम कांफ्रैंस अस्तित्व में आया और शेख अब्दुल्ला इसके अध्यक्ष बने। सन् 1938 में इसका नाम नेशनल कांफ्रैंस कर दिया गया। 
देश विभाजन के बाद राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने अपना वजूद कायम किया। जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र काफी मजबूत रहा है। अलगाववादी स्वरों के बावजूद कश्मीरी अवाम वोट डालने जाता है और इसका अर्थ यही है कि अवाम की भारतीय लोकतंत्र और संविधान में आस्था है। सन् 1989 में वहां आतंकवाद की शुरूआत हुई। कश्मीरी पंडितों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। तब से ही वहां आतंकवादी सक्रिय रहे। सरकारें आती रहीं जाती रहीं लेकिन न पाक प्रायोजित आतंकवाद समाप्त हुआ न विकास की बयार बही। जिन युवाओं को ज्वाइनिंग लैटर चाहिए ​थे उनके हाथों में बंदूकें थमा दी गईं। स्कूली बच्चों को दिहाड़ीदार पत्थरबाज बना दिया गया। घाटी ने देश को बहुत गहरे जख्म दिये हैं।
रास्ते को भी दोष दे, आंखें भी कर लाल। चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल। नरेंद्र मोदी की सरकार ने इस कील को एक झटके से निकाल फैंका यानी जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा दिया। जम्मू-कश्मीर में स्थितियां बदल रही हैं, सब कुछ सामान्य हो रहा है और अब सियासी गतिविधियां भी शुरू हो गई हैं। पिछले कई दशक से राज्य में दो परिवारों की हुकूमत रही है यानी अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार ही शासन करता रहा है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद पहले राजनीतिक दल ने अपनी पार्टी का गठन किया है। इस नई पार्टी का गठन पूर्व पीडीपी नेता अल्ताफ बुखारी ने किया है। इस नये दल में नेशनल कांफ्रैंस और पीडीपी के कई नेता भी शामिल  हो गए हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि स्वशासन और स्वायतता जैसे मुद्दे पार्टी के एजेंडे में नहीं हैं। 
पार्टी का एकमात्र उद्देश्य विकास और सच्चाई की राजनीति को आगे बढ़ाना है। अल्ताफ बुखारी का कहना है कि उनकी पार्टी वंशवादी पार्टियों जैसा व्यवहार नहीं करेगी और इसके अध्यक्ष रोटेशनल आधार पर चुने जाएंगे। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के ​िलए पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग की है। पूर्ण राज्य की मांग करने में भी कुछ गलत नहीं है। बुखारी के विचारों से ऐसी उम्मीद पैदा हुई है कि वह सात महीनों के सियासी सन्नाटे में एकमात्र राजनीतिक आवाज बनकर उभरेंगे। जम्मू-कश्मीर में देर-सबेर विधानसभा चुनाव होने हैं ​क्योंकि राज्य में परिसीमन प्रक्रिया एक वर्ष के भीतर पूरी करने का फैसला किया गया है। इसके तहत राज्य में नए सिरे से विधानसभा और लोकसभा सीटों काे तय किया जाएगा। राज्य की मौजूदा 85 सीटों में सात सीटें और जुड़ेंगी। राज्य में नई पार्टी का गठन एक सियासी प्रयोग है।
हो सकता है कि नई पार्टी नेशनल कांफ्रैंस और पीडीपी की ताकत को कम कर दे। यदि नई पार्टी ने जमीनी स्तर पर कामकाज किया तो इसका जनाधार बढ़ सकता है क्योंकि इसमें शामिल होने वालों में ज्यादातर लोग पूर्व विधायक, पूर्व पार्षद तथा पूर्व मंत्री हैं। सभी का अपने-अपने क्षेत्रों में जनाधार और प्रभाव है। अलगाववादी हुर्रियत का अब कोई ज्यादा प्रभाव नहीं रहा है। नैकां और पीडीपी के नेतृत्व से उनके नेता और कार्यकर्ता हताश हैं। इसका कारण परिवारवाद ही है। नई पार्टी के गठन से जम्मू-कश्मीर दोनों ही जगह राजनीतिक ध्रुवीकरण की शुरूआत हो सकती है। हो सकता है कि भाजपा अपनी ताकत बढ़ाने के लिए अपनी पार्टी से गठजोड़ कर ले। 
जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रभक्ति के स्वरों का उभरना बहुत जरूरी है जो पाकिस्तान के इशारे पर काम करने वाले राष्ट्रविरोधी संगठनों के मंसूबे पर पानी फेर दें। कश्मीरी अवाम को ऐसे नेतृत्व की तलाश है जो उनकी इच्छाओं के अनुरूप काम करे। अवाम को भी सियासी गतिविधियों में भागीदारी के लिए तैयार करना होगा। यह जिम्मेदारी केंद्र सरकार और राज्य के नेताओं की है। एक नई आवाज के उभरने से जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र को और मजबूती मिलेगी, इसकी उम्मीद की जा सकती
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