W3Schools
For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

इश्तहार और लोक ‘अ’ न्याय!

डा. लोहिया ने पचास के दशक में मांग की थी कि किसान की उपज का मूल्य लागत से दुगना होना चाहिए। ग्रामीण जातियों को सत्ता में हिस्सेदारी साठ प्रतिशत मिलनी चाहिए।

02:56 AM Mar 08, 2020 IST | Aditya Chopra

डा. लोहिया ने पचास के दशक में मांग की थी कि किसान की उपज का मूल्य लागत से दुगना होना चाहिए। ग्रामीण जातियों को सत्ता में हिस्सेदारी साठ प्रतिशत मिलनी चाहिए।

इश्तहार  और लोक ‘अ’ न्याय
Advertisement
‘योगीराज’ आदित्यनाथ भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश समाजवादी चिन्तनधारा के महापुरोधाओं डा. राममनोहर लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव का राज्य भी है। इन दोनों नेताओं ने उस समय कांग्रेस से अलग होकर अपनी अलग प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनाई थी जब पूरे देश में पं. जवाहर लाल नेहरू की अपार लोकप्रियता के आगे किसी नेता के ठहरने की कूव्वत नहीं थी। इन्हीं नेताओं ने नेहरू को चुनौती देते हुए कहा था कि उनकी समाजवादी नीतियां देश के किसान, मजदूरों और मेहनतकश लोगों के अधिकारों को पूंजीपतियों के समक्ष गिरवी रखने वाली है अतः इन नेताओं ने जन आन्दोलनों का दौर चला कर सत्ता को नींद से जगाने का काम किया।
Advertisement
डा. लोहिया ने पचास के दशक में मांग की थी कि किसान की उपज का मूल्य लागत से दुगना होना चाहिए। ग्रामीण जातियों को सत्ता में हिस्सेदारी साठ प्रतिशत मिलनी चाहिए। जब डा. लोहिया ने आचार्य नरेन्द्र देव से मतभेदों के चलते अलग होकर अपनी ‘संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी’ बनाई तो उन्होंने नारा दिया कि  ‘‘संसोपा ने बांधी गांठ- पिछड़ों को हो सौ में  साठ’’ लोहिया ने तभी यह भी कहा था कि भारत में ‘राष्ट्रवाद’ बिना मुसलमानों की शिरकत के कभी भी ‘राष्ट्रीयता’ के आकार में  नहीं आ सकता क्योंकि भारत को ‘एक राष्ट्र’ के रूप में खड़ा करने में मुसलमानों की एेतिहासिक भूमिका रही है। बेशक इसमें शासक भाव रहा हो किन्तु भारत को एक संघीय ढांचे में जोड़ने में मुस्लिम शासकों की अहम भूमिका रही है।
Advertisement
डा. लोहिया वही व्यक्ति थे जिन्होंने जर्मनी में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब भारत आकर यहां की इतिहास की पुस्तकों में यह पढ़ा कि मराठा राजा छत्रपति शिवाजी एक लुटेरा था और वह छापामार तरीके से युद्ध करके मुगल व आदिलशाही सेनाओं को पराजित करके अपना राज्य बढ़ाया करता था और अपने साथ किसानों व मजदूरों व ग्रामीणों को सैनिक शिक्षा में निपुण करके ‘स्वराज’ की अलख जगाया करता था तथा स्वयं एक पिछड़े समुदाय (कुनबी) का था तो उन्होंने अंग्रेज सरकार से शिवाजी महाराज के लिए प्रयुक्त अपशब्दों पर तीखा विरोध किया और उन्हें ‘राष्ट्रीय नायक’ घोषित करने की मांग की।
Advertisement
शिवाजी ‘स्वराज’ भारत के आम नागरिक की सत्ता में भागीदारी के लिए चाहते थे। वह मुगलों का विरोध महाराष्ट्र समेत अन्य क्षेत्रों में स्थानीय लोगों के हकों के लिए कर रहे थे और इसके लिए उन्होंने आम जनता को ही सैनिक प्रशिक्षण दिया था। डा. लोहिया ने ही इतिहास से खोज कर शिवाजी को ‘छत्रपति शिवाजी महाराज महानायक’ की पदवी पर बैठाया। शिवाजी के साथ स्थानीय मुसलमान भी थे। उनकी फौज में कई मुसलमान फौजदार भी थे। शिवाजी की शासनकाल को ‘हिन्दू-पत-पातशाही’ नाम से पुकारने का मन्तव्य केवल इतना ही था कि वह औरंगजेब द्वारा लगाये गये ‘जजिया टैक्स’ को स्थानीय लोगों या गैर इस्लामी जनता पर घोर अन्याय मानते थे।
औरंगजेब ने इस टैक्स को कई मुगल बादशाहों के लगभग डेढ़ सौ से भी ज्यादा वर्ष के शासन के अन्तराल के बाद लागू करने की ऐतिहासिक गलती की थी। अतः शिवाजी समूची राष्ट्रीय भावना के केन्द्र बिन्दू बन गये चूंकि औरंगजेब मुसलमान था और और पूरे हिन्दोस्तान पर उसकी हुकूमत थी और शिवाजी हिन्दू थे अतः उनके बीच के युद्ध को मजहबी रंग में दिखाने की कोशिश कुछ लोगों ने की वर्ना डा. लोहिया के अनुसार दोनों के बीच की लड़ाई ‘स्वराज’ की लड़ाई थी जिसमें हिन्दू व मुसलमान दोनों ही शामिल थे।  हालांकि शिवाजी महाराज की मृत्यु औरंगजेब के इन्तकाल से लगभग 25 वर्ष पहले ही 1680 में हो गई किन्तु वह मुगल साम्राज्य की नींव हिला कर चले गये थे। वर्तमान सन्दर्भों में हमें भारत के उन महान सपूतों की तरफ देखना होगा जो स्वतन्त्र भारत में सभी नागरिकों को एक समान अधिकार देना चाहते थे जिससे ‘स्वराज’ का सपना फलीभूत हो सके। इस स्वराज में हिन्दू-मुसलमान में भेद किसी भी तरह संभव नहीं है। हमारा संविधान हमें इसकी इजाजत नहीं देता है। संविधान हमें कहता है कि किसी भी ‘आरोपी’ को अदालत द्वारा दोषी करार दिये जाने पर ही ‘अपराधी’की श्रेणी में डाला जा सकता है।
पुलिस का कार्य कानून का पालन करते हुए संदिग्ध लोगों को कानून के सामने पेश करना होता है और अपराधियों की खोज कर उन्हें अदालत में पेश करना होता है वे किस सजा के मुस्तफिक होंगे, यह काम अदालत करेगी। बेशक पुलिस अपने इस काम में इश्तहार वगैरा या इनाम का ऐलान करके इन्हें पकड़ने का जाल बिछा सकती है। कानून इसकी पूरी इजाजत देता है मगर कानून यह इजाजत कब से देने लगा कि जिन आरोपियों को अदालत में पेश किया जा चुका है और उन्हें जमानत आदि मिल चुकी है और जो अदालत के रहमो-करम पर जिन्दगी गुजारते हुए 24 घंटों पुलिस की नजरों में हैं उनके पोस्टर  शहर के सबसे संजीदा चौराहों पर लगा कर ऐलान किया जाये कि फलां-फलां आरोपी का नाम किसी फसाद या दंगे में मुब्तिला है और उससे हुकूमत ने नुकसान की भरपाई करनी है। क्या उत्तर प्रदेश सीधे अंग्रेजों के जेरे साया चलने वाली सरकार के दौर में पहुंच गया है? संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ शान्तिपूर्ण प्रदर्शन या आन्दोलन करने का हक किसी भी शहरी या नागरिक संगठन को है। यदि इसमें हिंसा होती है तो उसकी  न्यायिक जांच लोकतन्त्र में जरूरी इसलिए हो जाती है क्योंकि प्रदर्शन के दौरान जो जान व मान का नुकसान होता है उसे रोकने की जिम्मेदारी पुलिस की होती है।
पुलिस की मौजूदगी में सम्पति का नुकसान और बन्दूक की गोलियों से लोगों की मौत जांच का रास्ता खोल देती हैं क्योंकि सार्वजनिक से लेकर निजी सम्पत्ति और हर शहरी की जान की हिफाजत की जिम्मेदारी सत्ता पर बैठी सरकार की होती है और सरकार यह काम पुलिस व प्रशासन के जरिये करती है। पुलिस के किसी व्यक्ति पर आरोप लगा देने से वह तब तक अपराधी नहीं होता जब तक कि अदालत बाकायदा सबूतों वगैरा की रोशनी में उसे अपराधी न  घोषित करे। मगर क्या गजब हुआ है कि लखनऊ शहर के चौराहे पर पूर्व आईपीएस पुलिस अधिकारी एस.आर. दारापुरी का भी इश्तहार लगा हुआ है और सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता सुश्री सदफ जफर का भी और शिया सम्प्रदाय के धर्मगुरू कल्बे सादिक के साहबजादे कल्बे सिब्तैन नूरी का भी। उन नामों का तो क्या कहना जो किसी भी तरह की शोहरत से दूर रहने वाले मजदूरी या खोमचे लगा कर जिन्दगी गुजर-बसर करने वाले हैं। बेशक दीपक कबीर और मोहम्मद शोएब जैसी सामाजिक हस्तियां भी इनमें शामिल हैं। लोकतन्त्र  ‘लोकशक्ति’  से चलता है।
लोकशक्ति ‘लोकन्याय’ से प्राप्त होती। किसी आन्दोलन के खिलाफ ‘जजिया’ जैसा टैक्स लगा कर नहीं। नागरिकता कानून (सीएए)  का विरोध कोई राष्ट्र विरोध नहीं है बल्कि इस विषय पर मतभेद या दूसरे नजरिये का इजहार है। इसका मुकाबला जजिया लगा कर नहीं बल्कि मुहब्बत से अपना नजरिया प्रकट करके ही हो सकता है। योगी जी को यह सब बताने की जरूरत पड़ेगी यह अपेक्षा से परे है क्योंकि वह तो गुरू गोरखनाथ मठ के तत्वज्ञानी ही नहीं ब्रह्म ज्ञानी भी हैं। गोरखपुर के गांवों में तो आज भी उन डा. लोहिया के  नारे गूंजते रहते हैं जिन्होंने कहा था कि शिवाजी आम जनता के साथ न्याय चाहते थे इसीलिए वह जजिया के विरोध में थे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
Author Image

Aditya Chopra

View all posts

Aditya Chopra is well known for his phenomenal viral articles.

Advertisement
Advertisement
×