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विरासत की नसीहत

दादा और पोते के बीच का रिश्ता प्यार भरा रिश्ता होता है। यह रिश्ता मूल्यों को…

10:40 AM May 11, 2025 IST | Aditya Chopra

दादा और पोते के बीच का रिश्ता प्यार भरा रिश्ता होता है। यह रिश्ता मूल्यों को…

विरासत की नसीहत

‘‘जमीन, मकान सब तुम्हें मुबारक

मुझे दादा जी के आदर्शों की वसीयत मिली है

मेहनत के रास्ते ही मिलता है अपना हक

विरासत में यही नसीहत मिली है।’’

दादा और पोते के बीच का रिश्ता प्यार भरा रिश्ता होता है। यह रिश्ता मूल्यों को आकार देता है, जीवन के अनुभव सांझा करता है और व्यक्तिगत विकास के लिए आधार प्रदान करता है। कहते हैं दादा पोते का पहला मित्र होता है और पोता दादा का अंतिम मित्र होता है। जब भी मैं अपने स्वर्गीय पिताश्री अश्विनी कुमार को अपने पौत्रों के साथ खेलते देखता था तो पाता था कि वे बच्चों का बार-बार हाथ पकड़ते थे। दादा बच्चों का हाथ इसलिए नहीं पकड़ते थे कि वह खुद न लड़खड़ा जाएं बल्कि इसलिए पकड़ते थे कि कहीं बच्चे गिर न जाएं। यह सब देखकर मुझे दादा और पोतों के भावनात्मक संबंधों का अहसास होता था। यह कहावत बार-बार कही जाती है कि मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है। आज भी मेरी मां किरण चोपड़ा मेरे बच्चों से बहुत प्यार करती हैं और मेरे बच्चे दादी-दादी कहकर उनसे लिपटते हैं तो मुझे इस बात की पीड़ा होती है कि मैं अपने दादा के स्नेह से वंचित रहा। विधि की विडम्बना ही रही कि मेरे पूजनीय दादा श्री रमेश चन्द्र जी की शहादत 12 मई, 1984 को हुई थी, तब मैं शिशु था। इस तरह मैं आैर मेरे दोनों भाई आकाश और अर्जुन दादाश्री के स्नेह से वंचित ही रहे। हर वर्ष जब दादा जी का शहादत दिवस आता है तो पूजनीय पिताश्री अश्विनी कुमार का चेहरा सामने आ जाता है कि वह किस तरह भावनाओं के समुद्र में बह जाते थे। सही अर्थों में दादा जी की कलम की ​िवरासत को सम्भालने का श्रेय एक सम्पादक के तौर पर उन्हें ही जाता है। मेरे पिता ही मुझे पूजनीय दादा जी के जीवन वृत और उनके आदर्शों के बारे में बताते थे। पूजनीय दादा जी से पहले मेरे पड़दादा लाला जगत नारायण जी को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया था। आज मुझे इस बात का अहसास हो रहा है कि वह कौन सी ऐसी ताकत थी जिसने एक के बाद एक आघात सहन करके भी मेरे पिता स्वर्गीय श्री अश्विनी कुमार का मनोबल कमजोर नहीं पड़ने ​दिया। वह ताकत थी पूज्य दादा द्वारा दिए गए आदर्श और संस्कार।

पितामह रमेश चंद्र जी जो कुछ भी लिखते अर्थपूर्ण लिखते थे, जो भी कहते उसका कुछ अर्थ होता था। पंजाब में पत्रकारिता को निडर एवं साहसी बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उनकी दूरदर्शिता, जनहित को समर्पित लेखनी विलक्षण थी। सादा जीवन पक्षपात से दूर और क्रोध रहित भाव रखना बहुत कम लोगों के वश की बात होती है। असत्य से नाता जोड़ना उन्हें कतई पसंद नहीं था। 16 वर्ष की आयु में जिस व्यक्ति ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया हो तो वे असत्य से नाता कैसे जोड़ सकते थे। रमेश जी ने अपने लेखों में आतंकवाद के खिलाफ समाज को जागृत करने का काम किया। वहीं वे लगातार राजनीतिज्ञों को अपनी लेखनी के माध्यम से चेतावनी देते रहते थे। आग और खून का खेल खेलने वाले यह भूल गए कि यह आग जो वो जाने-अनजाने में लगा रहे हैं एक दिन उनके घरों तक भी पहुंच जाएगी।

रमेश जी का अंतिम लेख था ‘एति मार पइ कुरलाने तैंकी दर्द न आया।’ यह लेख उनके हृदय की वेदना थी, मानवता के लिए उठती टीस और शांति एवं भाईचारे के लिए उमड़ा प्यार था, रमेश चंद्र बड़े कोमल हृदय के स्वामी थे। उन्हें भविष्य की भयावह स्थिति का आभास होने लगा था। श्री रमेश जी पत्रकारिता के दीप स्तम्भ ही थे। वह विधायक भी रहे, बहुत सारी सभा-सोसाइटियों के पदाधिकारी भी लेकिन उन्हें अहंकार कभी छूकर भी नहीं गया था। हर एक का दुःख वे अपना दुःख समझा करते थे। गरीब हो अथवा अमीर वह समान रूप से उनकी बात सुना करते, कठिनाइयों को दूर करने का भरसक प्रयास भी करते थे। उन्हें देश की हर छोटी-बड़ी समस्या की पूर्ण जानकारी होती थी। उन्होंने मार्च 1984 में शहीद परिवार फंड शुरू किया, उन विधवाओं की मदद के​ लिए जिनके पतियों, बेटों को आतंकवादियों ने शहीद कर दिया था।

आतंकवाद के दानव ने एक प्रतिभाशाली पत्रकार को हमसे छीन लिया परंतु उनके आदर्श हमसे न छीन सके। आतंकवाद आज जिस रूप में संसार के सामने खड़ा हो गया है उसके बारे में सोचकर ही आत्मा कांप उठती है। आज संसार में शायद ही कोई देश इस राक्षसी कृत्य से सुरक्षित रह सका हो। कई देश तो निरंतर इस राक्षस से जूझते रहते हैं। जम्मू-कश्मीर में पहलगाम हमला इस बात का प्रमाण है। आतंकवादी आज भी सक्रिय हैं। पंजाब में भी राष्ट्र विरोधी ताकतें सक्रिय हैं। पड़दादा और दादा जी की शहादत के बाद जालंधर से पंजाब केेसरी का प्रकाशन बंद करने की सलाह दी गई। मेरे पिता श्री अश्विनी कुमार ने भी जालंधर से पंजाब केसरी का प्रकाशन बंद कर कहीं और जाने की सलाह का कड़ा प्रतिरोध किया। पंजाब केसरी का दिल्ली से प्रकाशन तो एक जनवरी, 1983 में ही शुरू हो चुका था। मेरे पिता जानते थे कि परिवार के पंजाब छोड़ने का अर्थ पंजाब के हिन्दुओं को असहाय छोड़ना और राष्ट्र के विभाजन को निमंत्रण देना होगा। जालंधर से अखबार का प्रकाशन बंद हुआ तो पंजाब का हिन्दू दूसरे राज्यों में पलायन कर जाएगा, क्योंकि उनका नेतृत्व करने वाला कोई रहेगा ही नहीं। उसी दिन मेरे पिताश्री ने दादा जी की कलम उठाई और लिखना शुरू कर दिया। दादा जी के संबंध में उन्होंने काफी कुछ लिखा। आज मैं अपना दायित्व पूरा कर रहा हूं। मैं विरासत की नसीहत का अनुसरण कर रहा हूं। हमारे लिए पत्रकारिता ऐसा न्यायपूर्ण अस्त्र जो अन्याय और असत्य का विरोध करते हुए सामाजिक जीवन में मानवतावादी मूल्यों का पक्षधर है। मेरे दायित्व निर्वाह में मुझे आकाश और अर्जुन का साथ सबल प्रदान करता है। मेरी मां किरण चोपड़ा सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। हमारे सामने चुनौतियां बहुत हैं, हम आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। परिस्थितियां कुछ भी हों, यह कलम चलती रहेगी। यही दादा जी को सच्ची श्रद्धांजलि है।

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Aditya Chopra

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