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27 साल के इंतजार के पश्चात आखिर मिला इंसाफ : अमृतसर के नौजवान गोरा को लापता करने वाले इंस्पेक्टर और एसआई को उम्र कैद

आखिर वो घड़ी आ ही गई जब वाहेगुरू की अपार कृपा से बुजुर्ग बलबीर सिंह को बेटों की मौत का बदला इंसाफ के रूप में प्राप्त हुआ। हालांकि उसे प्राप्त प्राप्ति के

09:46 PM Oct 01, 2018 IST | Desk Team

आखिर वो घड़ी आ ही गई जब वाहेगुरू की अपार कृपा से बुजुर्ग बलबीर सिंह को बेटों की मौत का बदला इंसाफ के रूप में प्राप्त हुआ। हालांकि उसे प्राप्त प्राप्ति के

लुधियाना-अमृतसर : आखिर वो घड़ी आ ही गई जब वाहेगुरू की अपार कृपा से बुजुर्ग बलबीर सिंह को बेटों की मौत का बदला इंसाफ के रूप में प्राप्त हुआ। हालांकि उसे प्राप्त प्राप्ति के लिए सैकड़ों बार अदालतों की दहलीज पर जाकर माथा टेका, कई बार आशा और निराशा के भंवर में डूबने के बाद उसने वाहे गुरू की अरदास के बलबूते पर समस्त दर्द को झेला है और आज उसी अरदास के कारण आखिर इंसाफ प्राप्त हुआ। भले ही उसे 27 साल तक इंतजार करना पड़ा।

संघर्ष कर रहे बुजुर्ग बलबीर सिंह की आंखों में मोहाली की सीबीआइ कोर्ट से फैसला आने के बाद अलग चमक है। खुशी के आंसू भी हैैं और बेटों की मौत का दर्द भी। बेटे कुलदीप सिंह और हरजीत सिंह गोरे की मौत के बाद इन्साफ के लिए लंबी लड़ाई लडऩे वाले बलबीर सिंह ने जब अदालत की शरण ली तो कानून के जानकार इंस्पेक्टर नरिंदर सिंह मल्ली और इंस्पेक्टर शाम सिंह ने उनके रास्ते में कई रोड़े भी अटकाए लेकिन आखिरकार उन्हें इन्साफ मिल ही गया।

वक्त के थपेड़ों के साथ-साथ 85 साल के बलबीर सिंह की सोचने, समझने और काम करने की शक्ति काफी मंद हो चुकी है। बलबीर सिंह ने कहा कि दोषी पुलिस कर्मियों को यही लगता था कि पीडि़त परिवार केस की पैरवी ठीक ढंग से नहीं कर पाएगा और वह आसानी से बरी हो जाएंगे।

दोषियों ने उनके परिवार पर कई तरह का दबाव डाला, लाखों रुपयों का लालच देकर केस वापस लेने के लिए कहा। जब बात नहीं बनी तो उन्हें धमकियां तक दी गईं। लेकिन जब भी रास्ते कठिन लगने लगते तो वह वाहेगुरु का ध्यान कर फरियाद करते कि वह उन्हें शक्ति दें कि वह अपने मृत बेटों के लिए इंसाफ की जंग लड़ सकें।

बलबीर सिंह ने बताया कि 11 नवंबर 1992 को दोषी पुलिस कर्मियों ने उन्हें और उनके बेटे हरजीत सिंह को उठा लिया था। कुछ दिन अवैध हिरासत में रखने के बाद उन्हें (बलबीर सिंह) को छोड़ दिया गया। लेकिन, उनके बेटे का कुछ पता नहीं लग रहा था। वे बाहर आए तो उनके बेटे कुलदीप सिंह के बारे में भी कुछ पता नहीं चला। वहीं हरजीत की रिहाई के लिए उन्होंने कई अधिकारियों को पत्र लिखे थे।

16 जनवरी 1995 में पुलिस ने फर्जी लाशों का जिक्र किया था। इसके बाद उन्होंने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में लापता बेटे को लेकर याचिका दायर की थी, लेकिन उक्त दोषी पुलिस अफसरों ने कोर्ट को बताया कि उन्होंने हरजीत को नहीं उठाया था। बेटे के बारे में पता न चलने पर उन्होंने 19 जुलाई 1999 को कोर्ट से आग्रह किया था कि केस की जांच सीबीआइ को दी जाए।

कोर्ट के आदेश पर जांच के बाद सीबीआइ ने 30 मई 2000 को उक्त आरोपितों के खिलाफ केस दर्ज कर लिया था। कोर्ट ने मृतक के भाइयों और बहनों के बयान दर्ज करने शुरु किए थे कि उक्त पुलिस कर्मियों ने अदालत में याचिका दायर कर दी कि केस चलाने से पहले सरकार से इजाजत नहीं ली गई। लेकिन, कोर्ट ने दोषियों की पीटिशन खारिज कर दी। इसके बाद दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी और सुप्रीम कोर्ट ने भी उसे खारिज कर दिया। इस दौरान विभिन्न अदालतों में केस 13 साल तक स्टे के जरिए लटका रहा।

उन्होंने बताया कि कानूनी दांव- पेंच में शातिर पुलिस अफसर उन्हें लगातार उलझा रहे थे। फिर 2016 में केस पर दोबारा सुनवाई शुरु हुई। लेकिन दोषियों ने हाईकोर्ट से दोबारा स्टे ले लिया। साल 2017 में कोर्ट ने दोबारा केस पर सुनवाई शुरू कर दी और अब दोषियों को सजा मिलने के साथ ही उनके परिवार को इन्साफ मिला।

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