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आखिर बेटी बचेगी कैसे?

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11:04 PM Jan 30, 2018 IST | Desk Team

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बेटी भार नहीं आभार है,
बेटी कुदरत की करुण पुकार है
बेटी है तो हर पल है
आओ बेटी के सम्मान में
दुनिया में अलख जगाएं
बेटी बचाएं, बेटी पढ़ाएं

समाज में कितना विरोधाभास है कि एक तरफ हम ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ अभियान चलाए हुए हैं लेकिन दूसरी तरफ कन्या भ्रूण हत्याएं जारी हैं। लोग बेटों की चाहत में ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं। यह हमारे लिए इतना शर्मनाक है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। द्वापर युग में कंस ने माता देवकी की सारी संतानों को मार डाला था। अंत में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया, जिसकी रक्षा योगमाया ने की थी। सब जानते हैं कि कंस बहुत बुरा था, जिसने ऐसा अक्षम्य अपराध किया था। कंस के मन में तो मौत का भय था। उसने तो हत्या करते वक्त बेटा या बेटी का भेद नहीं किया। आज लोग निरपराध शिशु को गर्भ में ही मार देते हैं। उन्हें बेटी का चेहरा देखना तक गवारा नहीं, हम स्वयं सोच सकते हैं कि असली कंस कौन है। लोकसभा में पेश किया गया आर्थिक सर्वेक्षण यह बताता है कि भारतीय समाज में बेटे की चाहत ज्यादा है। इसलिए देश में बालक की अपेक्षा बालिका का अनुपात कम है। इतना ही नहीं इस सर्वे में भारत और इंडोनेशिया में जन्म लेने वाले बालक-बालिका अनुपात की भी तुलना की गई है। अधिकतर माता-पिता तब तक बच्चों की संख्या बढ़ाते रहते हैं जब तक उनके यहां बेटों की संख्या अच्छी-खासी नहीं होती।

आज मांएं बेटे की चाहत में नवजात बालिकाओं की हत्या कर रही हैं। पिता नवजात बालिकाओं को रेलवे लाइनों के किनारे छोड़ रहे हैं। मां-बाप, जिन्हें संतान का रक्षक कहा जाता है, जिनकी छत्रछाया में संतान स्वर्ग का सुख अनुभव करती है, वे आज भक्षक बन गये हैं। आखिर ऐसा क्याें है? क्या आज नारी इतनी कमजोर हो गई है? नहीं, वह कमजोर नहीं, बल्कि मजबूर है, उसके अपनों से। हम जिस समाज में नारी शक्ति या उसके सम्मान की बातें करते हैं, उसी समाज में रहकर बेटे और बेटी में भेदभाव करते हैं। हम बेटी को अच्छी शिक्षा तथा बेटे की बराबरी दिलाने का दावा भी करते हैं और उसेे बेटी कहकर उसके सपनों का पल-पल गला भी घोंटते हैं।

यह सही है कि धीरे-धीरे बेटियों को पहले से अधिक आजादी मिल रही है। फिर भी ऐसा क्यों है कि शिखर तक पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या मुठ्ठी भर ही है। देश के हर क्षेत्र में आज भी अधूरी दिखती है औरत की कहानी। सबसे बड़ा सवाल बालिकाओं की सामाजिक सुरक्षा का भी है। राजधानी की एक बस्ती में चचेरे भाई ने 8 माह की बच्ची से दुष्कर्म कर डाला, बच्ची की हालत काफी नाजुक है। ग्रेटर नोएडा में एक तीन साल की बच्ची से दुष्कर्म कर डाला। हरियाणा में पिछले दिनों एक के बाद एक जघन्य कांड हुए। हवस के भूखे भेड़ियों ने हत्या करने के बाद भी शव से दुष्कर्म किया। समाज ऐसी घिनौनी वारदातों से भरा पड़ा है। ऐसी स्थिति में मां-बाप क्या करेंगे।

आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि देश के दो करोड़ से ज्यादा लोग तो लड़की का चेहरा भी देखना पसंद नहीं करते। ऐसे घरों में कन्या का जन्म लेना घोर पाप के समान ही है। यह सही है कि रूढ़िवादी परम्पराएं, बेटी की पढ़ाई पर खर्च होने वाला धन, फिर दहेज की बुराई ने ही महिलाओं को कमजोर बना दिया है। हम समाज की मानसिकता को जिम्मेदार ठहराते हैं लेकिन सरकारी अभियान भी बेटी के मार्मिक दर्द के धरातल पर कुछ मरहम नहीं लगा पाया। दरअसल समाज ही असंतुलित और पुरुष प्रधान है और ऐसे अपराधों को रोकने में नाकाम है क्योंकि जटिलताओं के चलते यह समाज ही महिलाओं को अल्पसंख्यक बनाता है। कठोर रेप कानून के बावजूद बढ़ती वारदातें साबित करती हैं कि कानून निर्माता आैर समाजशास्त्री यह समझ पाने में नाकाम हैं कि आखिर मूल समस्या क्या है? यह समय केवल अनाप-शनाप बयानबाजी का नहीं है। हमें यह देखना होगा कि क्या महिलाओं को वास्तविक रूप से कोई फायदा मिल रहा है या नहीं। सियासत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सब जगह पुरुष प्रधान है। शीर्ष न्यायपालिका में केवल एक महिला न्यायाधीश है। जब तक हर क्षेत्र में समानता नहीं आएगी तब तक लोगों की मानसिकता में बदलाव भी नहीं आएगा। घर की चारदीवारी के भीतर और घर से बाहर महिलाओं को समानता के अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिएं। केवल अभियान चलाने से कुछ नहीं होगा, बेटियों को बचाने के लिए सशक्त सामाजिक अभियान की जरूरत है। सवाल यही है कि आखिर बेटी बचेगी कैसे?

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