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चुनाव आयोग पर फिर सवाल

लोकतन्त्र का जन विश्वास मूलाधार होता है। जन विश्वास के चलते ही लोकतन्त्र की प्रणाली..

11:11 AM Feb 12, 2025 IST | Aditya Chopra

लोकतन्त्र का जन विश्वास मूलाधार होता है। जन विश्वास के चलते ही लोकतन्त्र की प्रणाली..

लोकतन्त्र का जन विश्वास मूलाधार होता है। जन विश्वास के चलते ही लोकतन्त्र की प्रणाली में कोई भी संवैधानिक स्वायत्त संस्था अपनी साख को कायम रख पाती है। इसे ही इकबाल कहा जाता है जिसके बुलन्द रहने पर ही इस व्यवस्था में सरकारें काम करती हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने हमारे हाथ में जो तन्त्र सौंपा उसमें यह अन्तर्निहित था कि केवल पारदर्शिता के आधार पर ही सभी संवैधानिक स्वायत्त संस्थाएं अपना कार्य करेंगी। एेसी संस्थाओं में चुनाव आयोग पहले नम्बर पर आता है क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध इस देश की आम जनता के साथ होता है। संविधान में इस संस्था की साख और इकबाल इस प्रकार स्थापित किया गया है कि इसके द्वारा अपनाई गई चुनाव प्रणाली पर कोई एक मतदाता भी शक की अंगुली न उठा सके परन्तु जब से चुनावों में मतपत्र के स्थान पर ईवीएम मशीनों का प्रयोग होना शुरू हुआ है तभी से इन मशीनों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा रहा है।

सवाल यह नहीं है कि विपक्षी दल इन पर सवालिया निशान लगाते हैं बल्कि असली सवाल यह है कि आम मतदाता ईवीएम की मशीन का बटन दबा कर सन्तुष्ट नहीं होता है। उसके मन में यह शंका बनी रहती है कि उसने जिस प्रत्याशी या पार्टी को अपना वोट दिया है वह उसे गया भी है अथवा नहीं। संभवतः यही वजह है कि आज दुनिया भर के लगभग सभी लोकतान्त्रिक देशों में इसका प्रयोग नहीं होता है। जर्मनी से लेकर जापान व अमेरिका तक में वोट केवल बैलेट पत्र से ही डाले जाते हैं। इन मशीनों को सन्देह की दृष्टि से देखे जाने के बाद ही देश की सर्वोच्च अदालत ने इन मशीनों के साथ वी.वी. पैट (रसीदी पर्ची निकलने वाली मशीन) लगाने का आदेश दिया था। मगर अब सवाल यह खड़ा हो रहा है कि यदि इन रसीदी पर्चियों को गिना ही नहीं जाता है तो इनका क्या फायदा? हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने पांच प्रतिशत पर्चियों को गिनने का हुक्म सुनाया हुआ है जिससे मशीन में पड़े वोटों के साथ इनका मिलान किया जा सके। यह मिलान प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में किया जाता है।

विगत 26 अप्रैल 24 को सर्वोच्च न्यायालय ने ही आदेश दिया था कि चुनाव में नम्बर दो और तीन पर रहे प्रत्याशी कोई शक होने पर अपने खर्चे पर ईवीएम मशीनों की जांच करा सकते हैं। इसमें कितना खर्च आयेगा यह चुनाव आयोग तय करेगा। चुनाव आयोग ने प्रति मशीन 40 हजार रुपया खर्चा तय कर दिया जो कि हर किसी प्रत्याशी के बूते से बाहर की बात है। यह जांच ईवीएम मशीनों की उत्पादक कम्पनी के इंजीनियरों की मौजूदगी में होगी। हाल ही में कुछ मशीनों की जांच करने की दरख्वास्त हारे हुए चुनाव प्रत्याशियों ने की। मगर चुनाव आयोग ने मशीनों की जांच करने के बजाय मशीनों पर पुनः कृत्रिम मतदान (माॅक पोलिंग) कराया और इन मशीनों में पड़े असली डाटा को हटा दिया। इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव के समय इन मशीनों में कितने वोट किस प्रत्याशी को पड़े थे वह आंकड़ा मिटा दिया गया। अब सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः इस सम्बन्ध में दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए आदेश दिया है कि मशीनों से मूल आकंड़े नहीं मिटाये जायें।

सवाल यह है कि अगर पुराने आंकड़े ही हटा दिये जाते हैंं तो मशीनों की जांच का मतलब ही क्या रह जाता है? इसके साथ जुड़ा हुआ सवाल यह है कि मशीनों को लेकर चुनाव आयोग इतना रक्षात्मक क्यों है? जिसकी वजह से वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये आदेश की भी अनदेखी कर जाता है। भारत संविधान से चलने वाला देश है और चुनाव आयोग स्वयं में एक स्वतन्त्र संवैधानिक संस्था है। यदि वही सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने में कोताही बरतने की कोशिश करता है तो हम किस दिशा की ओर बढ़ रहे हैं? अतः देश की सबसे ऊंची अदालत ने पुनः यह कहा है कि उसके 26 अप्रैल, 24 के हुक्म की तामील हो। इसके साथ यह सवाल भी दीगर है कि केवल पांच प्रतिशत मशीनों की रसीदी पर्चियों को ही क्यों गिना जाये? सामान्य दिमाग कहता है कि सभी मशीनों से निकली पर्चियों को ही क्यों न गिना जाये जिससे देश का आम मतदाता आश्वस्त हो सके कि उसके वोट को गिना गया है। चुनाव में तब तक परिणाम घोषित नहीं किया जा सकता जब तक कि आखिरी मतदाता के वोट को भी गिन न लिया जाये क्योंकि भारत में वैयक्तिक आधार पर हार- जीत तय होती है। एक वोट से भी कोई प्रत्याशी हार या जीत जाता है। एक वोट का लोकतन्त्र में कितना महत्व होता है इसका मुजाहिरा हम 1998 में देख चुके हैं जब केन्द्र की वाजपेयी सरकार एक वोट कम मिलने की वजह से ही गिर गई थी।

राजस्थान के 2018 के विधानसभा चुनावों में केवल एक वोट के अन्तर से ही कांग्रेस के नेता श्री जोशी चुनाव हार गये थे। अतः तर्क तो यही कहता है कि भारत में भी वोट बैलेट पेपर से ही डाले जायें। मगर मौजूदा सवाल यह है कि जांच के घेरे में आयी ईवीएम मशीन से उसका मूल आंकड़ा क्यों हटाया जाये? चुनाव आयोग को किस बात का डर है। आखिरकार जांच की अर्जी देने वाले प्रत्याशी की मंशा क्या है। वह इन्ही आंकड़ों को तो पुनः गिनती करा कर चुनौती देना चाहता है। इसकी जगह पुनः नकली मतदान कराने से मशीन की जांच कैसे हो सकती है? जब मतदान पर अंगुली उठती है तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह अंगुली पूरी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था पर उठती है क्योंकि चुनाव प्रक्रिया से भी जो भी परिणाम निकलता है वह देश की प्रशासन प्रणाली का गठन करता है। चुनाव आयोग किसी भी तरीके से सरकार पर निर्भर नहीं करता बल्कि वह सरकार बनाने की पूरी जमीन तैयार करता है लेकिन आज देश भर में यदि किसी संस्था पर सबसे ज्यादा अंगुली उठ रही है तो वह चुनाव आयोग ही है। इस बारे में बहुत गंभीरता के साथ मनन किया जाना चाहिए।

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