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अल-कायदा और ‘हिजाब-विवाद’

कर्नाटक में मुस्लिम युवतियों द्वारा हिजाब पहनने को लेकर उठे विवाद का जिस तरह से विश्व के इस्लामी जेहादी संगठन ‘अल-कायदा’ के सरगना ‘अल जवाहिरी’ ने संज्ञान लेते हुए उस मुस्लिम किशोरी ‘मुस्कान खान’ को ‘इस्लामी जेहाद’ की तहरीक को मजबूत करने वाली बताया है

01:35 AM Apr 08, 2022 IST | Aditya Chopra

कर्नाटक में मुस्लिम युवतियों द्वारा हिजाब पहनने को लेकर उठे विवाद का जिस तरह से विश्व के इस्लामी जेहादी संगठन ‘अल-कायदा’ के सरगना ‘अल जवाहिरी’ ने संज्ञान लेते हुए उस मुस्लिम किशोरी ‘मुस्कान खान’ को ‘इस्लामी जेहाद’ की तहरीक को मजबूत करने वाली बताया है

कर्नाटक में मुस्लिम युवतियों द्वारा हिजाब पहनने को लेकर उठे विवाद का जिस तरह से विश्व के इस्लामी जेहादी संगठन ‘अल-कायदा’ के सरगना ‘अल जवाहिरी’ ने संज्ञान लेते हुए उस मुस्लिम किशोरी  ‘मुस्कान खान’ को ‘इस्लामी जेहाद’ की तहरीक को मजबूत करने वाली बताया है और अल-कायदा की तरफ से नौ मिनट की वीडियो जारी करके उसकी तारीफ की है उससे भारत के हर ‘हिन्दू-मुस्लिम’ नागरिक को सचेत हो जाना चाहिए और विचार करना चाहिए कि कर्नाटक के विद्यालयों में मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहनने को लेकर उनके द्वारा किये गये समर्थन के क्या अन्तर्राष्ट्रीय परिणाम हो सकते हैं? अल जवाहिरी का अपने वीडियो सन्देश में यह कहना कि मुस्कान द्वारा कुछ हिन्दू युवकों को देख कर ‘अल्ला-हू-अकबर’  का नारा बुलन्द करना ही भारत की समन्वित और समावेशी संस्कृति के खिलाफ ‘अलगाववाद’ का एेसा सांकेतिक उद्घोष था जिसमें मुसलमान अपनी विशिष्ट पहचान को सर्वोपरि मानते हैं। दुनिया भर में ‘जेहाद’ की तहरीक चलाने वाले आतंकवादी इस्लामी संगठनों का भी तो यही विश्वास है कि किसी भी देश के मुसलमान नागरिक को सबसे पहले मुसलमान होना चाहिए और अपने मजहब की रवायतों व नसीहतों को किसी भी देश के संविधान से ऊपर मानना चाहिए। इस्लामी जेहाद के नाम पर अल- कायदा जैसे संगठन और अल जवाहिरी जैसे सरगना पूरी दुनिया में कत्लो-गारत मचा कर इंसानी हकूकों वाली इस दुनिया को उस ‘सातवीं सदी’ में वापस लौटा देना चाहते हैं जिसमें इस्लाम का उदय हुआ था। जेहादी मानसिकता वाले लोगों के लिए इंसानी हकों का कोई महत्व नहीं होता क्योंकि वे केवल मजहब की हिदायतों को तरजीह देते हैं और उसमें भी अपनी सुविधा के अनुसार कहे गये उसूलों को 21वीं सदी की दुनिया पर लागू करना चाहते हैं। अल जवाहिरी का अपने वीडियो सन्देश में यह कहना कि मुस्कान खान की दिलेर कार्रवाई से ‘जेहाद’ की तहरीक को बढ़ावा मिलेगा, वास्तव में भारत के सन्दर्भ में बहुत चिन्ताजनक है। मगर इससे भी ज्यादा चिन्ता की बात उन मुस्लिम तंजीमों के लिए है जो भारत में मुस्लिमों की अलग पहचान के मुद्दे पर उनमें शेष समाज से अलग दिखने की रवायतों को पुख्ता करने का काम करते हैं और देश-काल व क्षेत्रीय जलवायु की जरूरतों के विपरीत उन पर धार्मिक चोले को औढे़ रखने की मुहीम चलाते हैं और ऐसा  वे भारतीय संविधान का हवाला देकर ही करते हैं जिसमें धार्मिक स्वतन्त्रता की गारंटी दी गई है। मगर ऐसे  मुल्ला या मौलाना भूल जाते हैं कि भारतीय संविधान में व्यक्तिगत धार्मिक स्वतन्त्रता की गारंटी दी गई है और निजी नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की गई है। मगर कट्टरवादी मुल्ला ब्रिगेड 21वीं सदी में उसी मुस्लिम उम्मत (समाज) की एक रूपता की वकालत करती है जिसकी व्यवस्था उलेमा समय-समय पर देते रहते हैं। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सातवीं सदी से लेकर 14वीं सदी तक नागरिकों के या इंसानों के निजी या व्यक्तिगत अधिकारों की  कोई  अवधारणा ही नहीं थी। 
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नागरिक अधिकारों की अवधारणा 14वीं सदी में जर्मनी में इसाई धर्म के भीतर प्रोटेस्टेंट आन्दोलन चलने से हुई जिसकी शुरूआत वहां के नागरिक मार्टिन लूथर ने की। इसके बाद ही पूरी दुनिया में नागरिकों के निजी अधिकारों की गूंज हुई और सत्ता या हुकूमत से मजहब का प्रादुर्भाव समाप्त होना शुरू हुआ और पूरी दुनिया में लोकतन्त्र या जनतन्त्र के माध्यम से सरकारों के गठन की अवधारणा बलवती हुई। मगर अल जवाहिरी जैसे सरगना या अलकायदा जैसे संगठन लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं को नकारते हुए ‘उम्मत’ की बात करते हैं और उसके लिए जेहाद चलाने की वकालत करते हैं। अतः भारत के उन मुस्लिम नेताओं को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि मुस्कान खान को जब वे ‘शेरनी’  का खिताब  अता कर रहे थे तो किस इस्लामी नजरिये की वकालत कर रहे थे? अल जवाहिरी वीडियो में कहता है कि मुस्कान के नारा-ए-तकबीर ‘अल्ला-हू-अकबर’ ने उसे एक कविता लिखने तक के लिए प्रेरित कर दिया। अतः मुसलमानों को भारत के ‘हिन्दू लोकतन्त्र’  की मृग मरीचिका के छलावे में नहीं आना चाहिए जो इस्लाम को कुचलने का शुरू से ही एक औजार रहा है। 
जवाहिरी कहता है कि असली दुनिया में मानवीय अधिकार या इंसानी हुकूक अथवा ‘संविधान या कानून का सम्मान’जैसी कोई शह वजूद नहीं रखती है । अतः इस्लामी शरीया या हिजाब बद नजरिये से देखना ‘इस्लाम’ के विरुद्ध युद्ध ही है। क्योंकि ऐसा  कोई भी कार्य इस्लामी मान्यताओं, कानून, परंपराओं,  रवायतों व सखावत के खिलाफ है। भारतीय उप महाद्वीप की मुस्लिम उम्मत की  वर्तमान की लड़ाई ‘जागरूक’ होने की लड़ाई है जो मौजूदा गफलत के माहौल में सच्चाई पहचानने की है जिसका रास्ता शरीया की बालादस्ती के साथ पूरी मुस्लिम उम्मत का एक इकाई के रूप में खड़ा होना है और बौद्धिक मोर्चे से लेकर वैचारिक स्तर व युद्ध में शस्त्रों के साथ इस्लाम के दुश्मनों से लोहा लेना है। जाहिर है कि ऐसे  विचार किसी दहशतगर्द के ही हो सकते हैं मगर भारत के मुसलमानों के लिए यह सबक है कि किस तरह इस्लामी जेहादी उनकी हरकतों को देखते हैं। अतः बहुत आवश्यक है कि हम मजहबी पहचान की खातिर अपनी हिन्दोस्तानी पहचान की कुर्बानी न दें और भारतीय व क्षेत्रीय जलवायु के अनुसार ही अपना आचरण करते हुए सबसे पहले हिन्दोस्तानी कहलायें।
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