Top NewsIndiaWorld
Other States | Delhi NCRHaryanaUttar PradeshBiharRajasthanPunjabJammu & KashmirMadhya Pradeshuttarakhand
Business
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

अमर शहीद बाबा दीप सिंह जी

02:45 AM Feb 01, 2024 IST | Shera Rajput

सिख पंथ का इतिहास शहादतों से भरपूर है, गुरु साहिबान से लेकर अब तक अनगिनत सिखों ने इस देश की खातिर, मानवता एवं दूसरे धर्म की रक्षा के लिए, समय-समय पर अपनी शहादतें दी हैं। इन्हीं में से एक नाम आता है बाबा दीप सिंह जी का जिन्होंने अपना शीश धड़ से अलग होने के बाद शीश को हथेली पर रखकर जब तक अपना प्रण पूरा नहीं कर लिया शहीद नहीं हुए, इसलिए ही उन्हें अमर शहीद कहा जाता है। बाबा दीप सिंह जी का जन्म अमृतसर के ‘पहुविंड’ नामक गांव में पिता भगता जी और माता जीऊणी जी के घर 26 जनवरी 1682 ई. में हुआ था। बाल्य अवस्था में ही वह दशमेश पिता के पास आ गए और उनसे शस्त्र विद्या एवं गुरबाणी-अध्ययन की शिक्षा प्राप्त की। बाबा जी ने दशमेश पिता द्वारा लड़े गए सभी युद्धों में भाग लेते हुए खूब पराक्रम दिखाया। धीर मलियों ने जब श्री गुरु ग्रंथ साहिब का पावन स्वरुप़ सिखों को देने से इंकार कर दिया तो दशमेश पिता ने बाबा जी को भाई मनी सिंह जी के साथ मिलकर तलवंडी साबो में रहकर श्री गुरु ग्रंथ साहिब का स्वरुप तैयार करने का आदेश दिया। बाबा दीप सिंह जी ने इस स्थान पर रहकर कई हस्तलिखित स्वरुप (श्री गुरु ग्रंथ साहिब) तैयार किए जो बाद में चार तख्त साहिबान पर भेजे गए। 1757 में अहमद शाह अब्दाली ने अमृतसर पर कब्जा कर हरिमंदर साहिब को गिराकर अमृत सरोवर को मिट्टी से भर दिया। यह खबर मिलते ही बाबा जी का खून खौल उठा। 75 वर्ष की वृद्धावस्था होने के बावजूद उन्होंने खंडा उठा लिया और हरिमन्दिर साहिब को आजाद करवाया। अफगानी सैना से बेदबी का बदला लेने के लिए युद्ध कर विजय प्राप्त की और अंत में शहादत हुई।
दस्तार स्वाभिमान दिवस
बाबा दीप सिंह जी के जन्म दिवस को दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी धर्म प्रचार कमेटी ने दस्तार स्वाभिमान दिवस के रुप में मनाया गया। गुरुद्वारा बंगला साहिब में सरोवर के किनारे दस्तार सजाने की प्रतियोगिता करवाई गई और सुन्दर दस्तार सजाने वालों को कमेटी अध्यक्ष हरमीत सिंह कालका, महासचिव जगदीप सिंह काहलो, जसप्रीत सिंह करमसर द्वारा ईनाम भी दिए गये। गीता कालोनी से सिख नेता गुरमीत सिंह बेदी का मानना है कि दिल्ली कमेटी का यह प्रयास सराहनीय है इसे दिल्ली के हर सिंह सभा में करवाना चाहिए ताकि युवा वर्ग के अन्दर दस्तार के प्रति जागरुकता लाई जा सके। उनके द्वारा गीता कालोनी में बहुत जल्द इस तरह का आयोजन किया जायेगा। सिखों के लिए दस्तार कोई गज मात्र कपड़ा नहीं है बल्कि यह हर सिख के लिए सिर का अभिन्न अंग है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा सजाने के समय सिख के लिए पांच ककार अनिवार्य किये तो उसमें केशों को भी रखा व उन्हें संभालने हेतु उन पर पगड़ी बांधना अनिवार्य किया। इतिहास गवाह है कि उस समय मुगल हकूमत का शासन था और किसी भी व्यक्ति को सिर पर कपड़ा रखने की सख्त मनाही हुआ करती थी। पगड़ी केवल राजा महाराजा ही पहना करते। गुरु साहिब ने इसी के चलते हर सिख को पगड़ी बांधकर राजा-महाराजा की तरह शान से जीने की प्रेरणा दी। उसके बाद गैर सिख भी पगड़ी सिर पर बांधा करते पर धीरे-धीरे इसमें कमी आती देखी गई है अभी भी गैर सिखों के बड़े बुजुर्ग सिर पर पगड़ी बांधा करते हैं। जब गैर सिखों के परिवार में शादी ब्याह होते हैं उसमें भी दूल्हा पगड़ी बांधकर ही घोड़ी पर बैठता है परंतु सिखों की पगड़ी उनसे अलग है। सिखों के लिए पगड़ी का विशेष महत्व है और यह सिख के लिए स्वाभिमान का प्रतीक भी है। किसी शायर ने भी कहा है कि ‘‘टोपी भले ही सोने की क्यों ना हो पगड़ी के साथ कोई मुकाबला नहीं’’ हो सकता।
गुरुद्वारा कमेटियों को इस ओर ध्यान देना चाहिए और अपने एरिया के उन युवाओं को जो अभी भी दस्तार की अहमियत को नहीं समझते उनके मार्गदर्शन करना चाहिए। इसके साथ ही जो सिख दस्तार सजाना तो चाहते हैं पर पैसों के आभाव के चलते दस्तार खरीदने में असमर्थ होते हैं उनके लिए दस्तारों के लंगर हर गुरुद्वारा साहिब मंे लगाए जाने चाहिए। आमतौर पर देखा जाता है कि कमेटियों के नुमाईंदे लाखों रुपये के सिरोपे अपनी झूठी शोहरत पाने हेतु बांटते दिख जायेंगे पर इनसे अगर कोई गरीब सिख दस्तार के लिए मदद मांग ले तो ज्यादातर प्रबन्धक मुंह फेर लेते हैं। पंजाब और पंजाब से बाहर अनेक गांव में आज लोग शायद इसी के चलते सिखी से दूर हो रहे हैं। सिकलीगरों के अनेक परिवार जिसमें शायद आज भी सिखी बरकरार है पर अगर उन्हें भी समय रहते नहीं संभाला गया तो वह दिन दूर नहीं जब वह भी सिखी का त्याग कर किसी अन्य धर्म में तब्दील हो जायें जहां उन्हें सुख सुविधाएं मिलती दिख रही हों। इस पर जत्थेदार अकाल तख्त साहिब को विशेष ध्यान देते हुए सिख संस्थानों को उन्हें संभालने की सख्त हिदायत देनी चाहिए। आम तौर पर देखा यह जा रहा है कि अमीर घरों में तो सिखी पहले ही खत्म होती जा रही है। ज्यादातर अमीर या फिर मध्यम वर्गीय सिख घरानों में युवा वर्ग केशों का त्याग करते दिख रहे हैं।
लड़कियों को सम्मान
सिख धर्म में महिलाओं को विशेष सम्मान दिया गया है। इससे पहले महिलाओं को पुरुष के मरने पर उनके साथ चिता मे जिन्दा जला दिया जाता था, धार्मिक स्थलों में महिलाओं को जाने की इजाजत नहीं हुआ करती थी पर गुरु नानक देव जी ने स्त्री जाति को पुरुषों के बराबर अधिकार देने की बात कही। मगर दुख होता है कि आज भी कई लोग ऐसे हैं जो लड़के और लड़की में फर्क करते हैं, लड़कियों को इस दुनिया में आने से पहले ही कोख में ही मार दिया जाता है। हालांकि शहरों में ऐसा भले ही कम होता हो पर गांवों में अभी भी ऐसे हालात देखे जा सकते हैं। हाल ही में एक सर्वे रिपोर्ट से जानकारी मिली कि अभी भी ज्यादातर लोग लोहड़ी पर्व केवल लड़के के पैदा होने पर ही मनाते हैं। लोहड़ी जो कि पंजाबी समाज का प्रमुख त्यौहार है और पंजाबियों के घरों में बच्चे का जन्म होने या फिर शादी होने पर लोहड़ी पर्व मनाते हुए खुशियां मनाई जाती हैं। लोगों में जागरुकता लाने और लड़के लड़की के भेदभाव को समाप्त करने के उद्ेश्य से पंजाबी परमोशन कौंसल के द्वारा पूणे सिख जनसेवा संघ एवं पंजाबी कल्चरल एसोसिएशन के साथ मिलकर पूणे में ‘‘लड़कियों की लोहड़ी’’ मनाई जिसमें 1500 के करीब लोग जिनके घर पर लड़की का जन्म हुआ था पहुंचकर एक साथ पर्व को मनाया। इनमें सबसे कम उम्र की लड़की 40 दिन की थी और उसके परिवार वालों को गर्व महसूस हो रहा था कि उनके घर लड़की का जन्म हुआ है। पंजाबी परमोशन कौंसल के अध्यक्ष जसवंत सिंह बोबी जिनके स्वयं के 2 लड़कियां हैं, वह पिछले कई सालों से दिल्ली के तिहाड़ जेल में ही कार्यक्रम करते आए हैं पर उनकी माने तो उन्हें इस कार्यक्रम में सबसे ज्यादा खुशी हुई है। केवल पंजाबी ही नहीं दूसरे समाज में भी यह कुरीती देखने को मिलती है, देवीयों की पूजा तो की जाती है पर घर की लक्ष्मी को नजर अन्दाज कर दिया जाता है। यह कार्यक्रम मनाने तभी सफल है अगर इनके माध्यम से हम समाज के लोगों की सोच में बदलाव ला सकें।

 - सुदीप सिंह

Advertisement
Advertisement
Next Article