अमेरिका और चुनाव प्रणाली
भारत-अमेरिकी सम्बन्धों के बारे में हम जब भी विचार करते हैं तो…
भारत-अमेरिकी सम्बन्धों के बारे में हम जब भी विचार करते हैं तो हमें हमेशा यह ध्यान में रखना होगा कि अमेरिका ऐसा देश है जो अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखकर अपनी विदेश नीति में समय-समय पर फेरबदल इस प्रकार करता रहता है जिससे किसी न किसी रूप में पूरी दुनिया का वह ‘दरोगा’ दिखाई देता रहे। भारत के सन्दर्भ में उसकी नीति अदलती-बदलती रही है मगर इसमें एक केन्द्रीय तत्व हमेशा केन्द्र में रहा है कि हर हालत में अमेरिका का दबदबा बना रहे और वह दिखाई भी दे। हालांकि इस दबदबे को भारत ने 2008 में इसके साथ हुए परमाणु करार में तोड़ दिया था और अमेरिका को अपने संविधान में संशोधन करने के लिए मजबूर किया था। मगर अमेरिका जिस तरह अपने देश पहुंचे अवैध अप्रवासियों को वापस भारत हथकड़ी व बेडि़यां लगाकर भेज रहा है उससे यही संकेत मिलता है कि हर हालत में अमेरिका अपनी छवि दुनिया पर अपने नियम लागू रखने की बनाना चाहता है।
इसके साथ ही उसने जिस तरह भारत की चुनावी प्रक्रिया को अधिक लोकनिष्ठ बनाये जाने के नाम पर दी जाने वाली मदद को बन्द किया है उससे भी यही मंशा प्रकट होती है कि वह लोकतन्त्र के नाम पर अपनी इच्छा दुनिया के अन्य देशों पर थोपना चाहता है। इस मामले में उसने जिस तरह भारत व बंगलादेश को एक ही तराजू पर रख कर तोला है वह और भी अधिक चिन्ताजनक है। अमेरिका के सरकारी दक्षता विभाग के नये मुखिया ऐलन मस्क ने भारत में मतदान प्रतिशत को बढ़ाये जाने के प्रयासों को गति देने के लिए दी जाने वाली लगभग 200 करोड़ रुपए (दो करोड़ दस लाख डालर) की सहायता को रोक दिया है। इसके साथ ही उन्होंने बंगलादेश को भी इसी मद में मिलने वाली दो करोड़ 90 लाख डालर की मदद को बन्द कर दिया है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र है, इसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता है। इसके साथ ही भारत में चुनाव कराने वाली स्वतन्त्र संस्था चुनाव आयोग का रुतबा भी पूरे विश्व में कुछ वर्षों पहले तक किसी भी सवालिया निशान से ऊपर रहा है। पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार चुनाव आयोग की भूमिका पर भारत में प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हुए हैं उससे पहले इसकी भूमिका किसी भी प्रकार के सन्देहों से ऊपर रखकर देखी जाती थी। अतः 2012 में अमेरिका के विदेशी मदद विभाग की संस्था द्वारा चुनाव में लोगों की भागीदारी बढ़ाने के प्रयासों को बल देने के लिए दी गई मदद अमेरिकी सदाशयता को ही बढ़ाती थी। अब इसे बन्द करके अमेरिका भारत को क्या सन्देश देना चाहता है? यह विचारणीय मुद्दा हो सकता है।
इस मामले में भारत के राजनैतिक दल यदि एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं तो वे अमेरिकी साजिश का ही अंग बनते हैं। कहने को अमेरिका विश्व में लोकतन्त्र और मानवीय अधिकारों का अलम्बरदार बना घूमता है परन्तु ताजा घटनाओं से स्पष्ट है कि वह इन मसलों को अपने ही चश्मे से देखता है। उसकी नजर में भारत और बंगलादेश की राजनैतिक परिस्थितियों में कोई खास अन्तर नहीं है जबकि पूरी दुनिया जानती है कि 1971 में विश्व के मानचित्र में पूर्वी पाकिस्तान की जगह जब नये देश बंगलादेश का उदय हुआ तो इसके मुक्तिदाता व निर्माता बंग बन्धु स्व. शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत के संविधान से ही प्रेरणा लेते हुए अपने मुस्लिम बहुल देश को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था और संसदीय चुनाव प्रणाली को अपनाया था।
भारत के चुनाव आयोग की तर्ज पर ही उन्होंने अपने देश में चुनाव आयोग की स्थापना की थी और अपने देश के चुनाव विशेषज्ञों को भारत के चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली का अध्यन करने के लिए भेजा था। भारत का चुनाव आयोग पूरे विश्व के नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों के लिए प्रेरणा का केन्द्र बना रहा और वे हमारी चुनाव प्रणाली से प्रेरणा लेकर अपने-अपने देशों में चुनाव प्रक्रिया को अपनाने की तरफ बढे़। इस प्रणाली में अधिक से अधिक लोगों की भागीदारी हो इसे ही बढ़ावा देने के लिए अमेरिकी विदेशी मदद संस्था ने 2012 में चुनाव आयोग के साथ समझौता किया। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। आखिरकार भारत में चुनाव आयोग आज भी अधिक से अधिक मतदान करने के लिए जन अभियान चलाता ही है परन्तु अमेरिका को लगता है कि भारत अब उसकी मदद का हकदार नहीं रहा है। जाहिर है कि 2012 में भी भारत उसके पास यह मदद मांगने के लिए नहीं गया था।
यदि अमेरिका यह मदद बन्द कर देता है तो चुनाव आयोग पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि भारत में लोकसभा चुनाव कराने पर ही छह हजार करोड़ रुपए से ऊपर का खर्च आता है जिसे भारत की सरकार ही वहन करती है। मगर ऐलन मस्क कह रहे हैं कि अमेरिका के करदाताओं का धन विदेशी मदद पर खर्च हो रहा है। इसे बन्द करने की जरूरत है। राजनैतिक प्रक्रिया को मजबूत किये जाने को लेकर अमेरिका मालदोवा जैसे देश को भी मदद करता है। इससे जाहिर है कि अमेरिका भारत को भी इसी श्रेणी में रखने की भूल कर रहा था। क्योंकि भारत का चुनाव आयोग एक समय में स्वयं अमेरिका के लिए भी एक उदाहरण रहा है। भारत का चुनाव आयोग आज भी हजार विवादों में घिरे रहने के बावजूद इतना सक्षम है कि वह चुनावों में लोगों की भागीदारी बढ़ाने के लिए अपने स्तर पर ही भागीरथ प्रयास कर सकता है। अमेरिका अपना दबदबा बनाये रखने के लिए ऐसे प्रयास करता रहता है मगर भारत के लोग जानते हैं कि ऐसे कामों से उन पर कोई असर नहीं पड़ता।