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अमित शाह का कश्मीर दौरा

गृहमन्त्री श्री अमित शाह आजकल जम्मू-कश्मीर के दौरे पर हैं।

01:25 AM Oct 05, 2022 IST | Aditya Chopra

गृहमन्त्री श्री अमित शाह आजकल जम्मू-कश्मीर के दौरे पर हैं।

गृहमन्त्री श्री अमित शाह आजकल जम्मू-कश्मीर के दौरे पर हैं। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर में लागू विशेष संवैधानिक को संसद के माध्यम से समाप्त कराकर इस राज्य का भारतीय संघ में अभेद्य विलय करने वाले श्री शाह के इस दौरे को बहुत उत्सुकता से देखा जा रहा है क्योंकि तीन साल पहले उन्होंने संसद के दोनों सदनों में विशेष प्रावैधानिक अनुच्छेद 370 को खत्म करते हुए जो घोषणाएं की थीं उनकी तसदीक करने के लिए यह समय अन्तराल उपयुक्त कहा जा सकता है। पिछले तीन वर्षों के दौरान कश्मीर में सबसे बड़ा फर्क यह आया है कि यहां अब टेरर (आतंकवाद) की जगह टूरिज्म (पर्यटन) की बात की जा रही है। बेशक घाटी के ही कुछ सिरफिरे और पाक द्वारा बहकाये हुए लोगों के साथ सीधे पाकिस्तान से भेजे गये जेहादी अभी भी गैर कश्मीरियों विशेषकर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाकर उनका कत्ल करते रहते हैं, परन्तु कश्मीर की आम अवाम अमन और भाईचारे का माहौल चाहती है। इसका प्रमाण यह है कि कश्मीर के युवा सेना की अग्निवीर भर्ती में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। श्री शाह ने 370 समाप्त होने के बाद भारत का संविधान एक समान रूप से जम्मू-कश्मीर के नागरिकों पर भी लागू होने की घोषणा 5 अगस्त, 2019 को की थी और उसके अनुसार इस राज्य के लोगों का भविष्य अब निर्धारित हो रहा है। 
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73 वर्ष तक कश्मीर भारत का अभिन्न अंग होने के बावजूद एक भेद या फर्क के साथ इसका हिस्सा बना हुआ था। यह भेद यह था कि यहां के गरीबों व मुफलिसों और पिछड़े हुए लोगों को वे अधिकार प्राप्त नहीं थे जो देश के अन्य राज्य के लोगों को प्राप्त थे। पूरे भारत में जम्मू-कश्मीर अकेला ऐसा राज्य था जहां आरक्षण लागू नहीं था। अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण के लिए बाबा साहेब अम्बेडकर व कैप्टन जयपाल सिंह ने जो संघर्ष किया था और राजनैतिक आरक्षण को संविधान का अंग बनाया था वहीं प्रावधान इस राज्य में लागू नहीं होता था। इस राज्य के गुर्जर व बकरवालों के साथ पहाड़ी बोलने वाले लोगों को शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण इसलिए नहीं दिया गया था, क्योंकि इस सूबे में भारत के संविधान की कोई भी व्यवस्था तभी लागू होती जब इस सूबे का संविधान उसे स्वीकृति दे। नागरिकता कानून के लिए 35 (ए) का विशेष प्रावधान था जो कश्मीर में 1947 के बंटवारे के समय आये हुए शरणार्थियों को भी सूबे का नागरिक नहीं मानता था जबकि वे भारत के नागरिक थे। 
370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर के इतिहास में पहली बार हुआ कि जम्मू के गुर्जर समुदाय गुलाम अली खटाना को राज्यसभा में केन्द्र सरकार ने राष्ट्रपति से मनोनीत कराया। यह कोई छोटी राजनैतिक घटना नहीं है क्योंकि श्री खटाना के माध्यम से श्री शाह ने सन्देश दिया है कि जिन लोगों को सूबे की राजनीति में अभी तक केवल एक वोट बैंक बनाकर रखा गया है, उन्हें उनके वाजिब अधिकार देने ही होंगे और ये अधिकार संविधान के माध्यम से ही दिये जायेंगे। लोकतन्त्र का यह शिखर नियम होता है कि इसमें नागरिकों को जो भी मिलता है वैधानिक अधिकार के तौर पर ही मिलता है। 
जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय राजनैतिक दलों में श्री शाह के इन फैसलों को लेकर जो बेचैनी देखी जा रही है वह समझ में आ सकती है क्योंकि पिछले 73 वर्ष से इन लोगों ने सूबे को अपनी जागीर समझ रखा है और लोकतन्त्र को अपना दास। 370 के नाम पर आम लोगों को गुमराह करने की सीमाएं इस तरह पार की कि राज्य में विकास के नाम पर केवल भारत विरोध की भावनाएं पनपाई गईं और लोगों को पत्थरबाज बनाया गया। जबकि हकीकत यह है कि 370 के लागू रहते राज्य में खर्च होने वाले सरकारी धन का लेखा-जोखा तक नहीं हो सकता था। दूसरी तरफ केन्द्र से हर सरकार के लाखों-करोड़ों रुपये लोगों के विकास के नाम पर दिये जाते रहे। मजहब के आधार पर इसने कश्मीरी मुसलमानों को बरगलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और कश्मीरी पंडितों के खिलाफ 1990 में जेहाद तक छेड़ दिया। मगर पाकिस्तान भूल गया कि उसके कब्जे में पड़ा हुआ गुलाम कश्मीर भी भारत का हिस्सा है।
कश्मीर के बकरवाल और गुर्जर व पहाड़ी समुदाय के लोग तो वे लोग हैं जिन्होंने हर बार पाकिस्तानी आक्रमण की सूचना भारतीय फौजों को सबसे पहले दी है। इनकी देशभक्ति को पाकिस्तान कभी चुनौती नहीं दे सकता। यही वजह है कि कश्मीर से आज जय हिन्द का नारा भी गूंज रहा है और वन्देमातरम् भी गुंजायमान हो रहा है। भारत के लिए सिर्फ कश्मीर ही उसका हिस्सा नहीं है बल्कि हर कश्मीरी भी उसका गौरवशाली नागरिक है। कश्मीरियों ने ही पाकिस्तान निर्माण का पुरजोर विरोध किया था। इस इतिहास को इस्लामाबाद को आज फिर से याद कराये जाने की जरूरत है। 
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