और शहीद की मां की प्रतिमा भी नहीं लग पाई
जब तक उस वृद्धा की हड्डियों में जान रही वह जंगल से लकड़ियां बीनती रही और उनसे मिले चार पैसों से आटा, दाल, चावल जुटाती रही। जब इतनी भी शक्ति शेष नहीं बची तो उसने कभी ज्वार, कभी बाजरे का घोल पीकर बुढ़ापा काट लिया, मगर कभी किसी से मांग कर नहीं खाया।
उसकी यह स्थिति स्वाधीनता प्राप्ति के बाद बरसों तक जारी रही मगर उन्हीं दिनों उसे तलाश करता करता, उसके बेटे का एक दोस्त आया और उसे देखकर नम आंखों से अपने झांसी स्थित घर ले गया। उसका अपना घर भी टूटा-फूटा था और बहुत छोटा था, मगर अपने दिवंगत दोस्त को वचन दिया था कि उसकी मां की देखभाल स्वयं करेगा, इसलिए विपरीत हालात में भी उस वृद्धा मां को अपने जर्जर घर में ले आया। जब लगा कि एक कमरे के अपने जर्जर घर में वृद्धा की सेवा नहीं हो पाएगी तो वह उसे सीहोर में अपने एक मित्र के घर छोड़ आया जहां कुछ वर्षों बाद बुढ़िया ने अंतिम सांस ली।
बुढ़िया का नाम था जगरानी देवी। पांच बेटों की मां थी। पांचवें व अंतिम बेटे का नाम था चंद्रशेखर आज़ाद। जगरानी देवी उसे प्यार से चंदू कह कर बुलाती थी। आज़ाद के उस साथी, जो उसे लेकर झांसी आ गया था, का नाम था सदाशिव और सीहोर में अंतिम क्षणों में उसकी देखभाल का दायित्व संभालने वाले का नाम था भगवान दास। सदाशिव व भगवान दास भी जवानी में ‘आजाद’ के साथी हुआ करते थे। महानायक चंद्रशेखर आजाद तो याद है मगर वृद्ध मां को हम भूल गए। आज़ाद की प्रतिमाएं उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश व पंजाब-हरियाणा में लगभग सभी प्रमुख नगरों में लगी हैं।
वृद्धा जगरानी की शवयात्रा में जब कुछ लोगों के सामने उसके अंतिम दिनों के संघर्ष की बातें चर्चा में आई तो जोश में आकर कुछ युवाओं ने उसका एक स्मृतिस्थल बनाने का निर्णय लिया। मूर्ति बनाने का कार्य चंद्रशेखर आज़ाद के खास सहयोगी कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह को सौंपा गया। उसने फोटो को देखकर आजाद की माताश्री के चहरे की प्रतिमा तैयार कर दी। जब केंद्र की सरकार और उत्तर प्रदेश की सरकारों को यह पता चला कि आजाद की मां की मूर्ति तैयार की जा चुकी है और सदाशिव राव, रूपनारायण, भगवानदास माहौल समेत कई क्रांतिकारी झांसी की जनता के सहयोग से मूर्ति को स्थापित करने जा रहे हैं तो इन सरकारों ने अमर बलिदानी शहीद पंडित चंद्रशेखर आजाद की माताश्री की मूर्ति की स्थापना को देश, समाज व झांसी की कानून व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर उनकी मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर पूरे झांसी शहर में कर्फ्यू लगा दिया। चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी गई, ताकि अगर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद की माता की मूर्ति की स्थापना न की जा सके। मगर जनता का एक क्षुब्ध वर्ग आजाद की माता की प्रतिमा लगाने के लिए निकल पड़ा। अपने आदेश की झांसी की सड़कों पर बुरी तरह धज्जियों से तिलमिलाई तत्कालीन सरकारों ने पुलिस को गोली का आदेश दे डाला। आजाद की माताश्री की प्रतिमा को अपने सिर पर रखकर पीठ की तरफ बढ़ रहे सदाशिव को जनता ने चारों तरफ से अपने घेरे में ले लिया। जुलूस पर पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। सैकड़ों लोग घायल हुए, दर्जनों लोग जीवनभर के लिए अपंग हुए और कुछ लोगों की बाद में मौत भी हुई। (मौत की आधिकारिक पुष्टि कभी नहीं की गई) इस घटना के कारण चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी।
स्थिति यह है कि हमें आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों के वंशज अभी भी दयनीय स्थिति में रह रहे हैं। देश की आजादी के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले शहीदों के कुछ वंशज जहां दैनिक मजदूरी के काम में लगे हैं, वहीं कुछ सड़कों पर भीख मांगने तक को मजबूर हैं।
तात्या टोपे के वंशज की हालत दयनीय : इसी तरह 1875 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायकों में से एक तात्या टोपे के वंशज बिठूर, कानपुर में अपने अस्तित्व के लिए जूझते रहे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के 73 से अधिक विस्मृत नायकों के वंशजों पर चार किताबें लिखने वाले पूर्व पत्रकार शिवनाथ झा का कहना था, मैंने तात्या के पड़पोते विनायक राव टोपे को बिठूर में एक छोटी सी किराने की दुकान चलाते हुए देखा। झा ने शहीद सत्येंद्र नाथ के पड़पोते की पत्नी अनिता बोस को भी खोजा और उन्होंने देखा कि मिदनापुर में अनिता की हालत भी दयनीय बनी हुई थी। सत्येंद्र नाथ और खुदीराम बोस अलीपुर बम कांड में शामिल थे। दोनों को 1908 में फांसी दी गई थी।
अपने दैनिक जीवन में संघर्ष कर रहे स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों के वंशजों की मदद के लिए शिवनाथ झा हमेशा प्रयासरत रहे हैं। उन्होंने विनायक राव टोपे और जीत सिंह की वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए पांच लाख रुपए भी एकत्र किए थे। शिवनाथ झा ने बताया, ‘मैंने सत्येंद्र नाथ के अपाहित पड़पोते और उनकी पत्नी अनिता बोस को भी खोज निकाला, जो मिदनापुर में लकवाग्रस्त हालत में थीं। ‘मैंने उनसे बात की, वह बोलने में सक्षम थी।’ पूर्व पत्रकार झा ने कहा कि अब वह इस बुजुर्ग दंपति के पुनर्वास की कोशिश कर रहे हैं। शिवनाथ झा और उनके दोस्त एक एनजीओ चलाते हैं और स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनशैली का विस्तार से वर्णन करते हुए किताबें प्रकाशित करते हैं। उनका संगठन 800 पृष्ठों की एक नई किताब 1867-1947 के शहीदों के वंशजों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष प्रस्तुत करने के विचार में हैं। ऐसी ही परिस्थितियों का सामना पानीपत में बसे अमर शहीद क्रांतिकारी श्री क्रांति कुमार के वंशजों को भी झेलना पड़ा है। शहीदे आजम के सहयात्री बीके दत्त के अंतिम दिन और भगवती बाबू की पत्नी के अंतिम दिन कितने दुखद रहे, इसका अनुमान लगाना भी बेहद पीड़ादायी है।