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अरब देश इस्राइल के पाले में

दुनिया में समीकरण बदलते रहते हैं। कोई भी हमेशा दोस्त या दुश्मन नहीं होता। जहां दोस्त को दुश्मन बनते देर नहीं लगती वहीं दुश्मन भी दोस्त हो जाते हैं।

12:08 AM Sep 02, 2020 IST | Aditya Chopra

दुनिया में समीकरण बदलते रहते हैं। कोई भी हमेशा दोस्त या दुश्मन नहीं होता। जहां दोस्त को दुश्मन बनते देर नहीं लगती वहीं दुश्मन भी दोस्त हो जाते हैं।

दुनिया में समीकरण बदलते रहते हैं। कोई भी हमेशा दोस्त या दुश्मन नहीं होता। जहां दोस्त को दुश्मन बनते देर नहीं लगती वहीं दुश्मन भी दोस्त हो जाते हैं। कूटनीतिक दौत्य संबंधों का फैसला परिस्थितियों के अनुसार किया जाता है। कूटनीतिक और राजनयिक संबंधो में सीधे देश के हित निहित होते हैं। इस्राइल दुनिया का सामरिक उद्योग का महारथी माना जाता है। उसे आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध लड़ने में माहिर माना जाता है। कृषि और विज्ञान के क्षेत्र में इस छोटे से देश ने जबरदस्त तरक्की तब की जबकि वह चारों तरफ से अरब देशों जैसे सीरिया, जोर्डन, मिस्र, लेबनान और फिलीस्तीन से घिरा हुआ है। कभी भारत इस्राइल से प्रत्यक्ष संबंध बनाने में परहेज करता था। याद ​कीजिए जब केन्द्र में 1977 में पहली गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार बनी थी और श्री अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे तो इस्राइल के तत्कालीन रक्षा मंत्री मोशे दाया दिल्ली के हवाई अड्डे पर आकर ही वापस ​स्वदेश चले गए। भारत को हमेशा डर बना रहता कि इस्राइल का नाम लेते ही कोई तूफान खड़ा हो सकता है। भारत अरब देशों को नाराज नहीं करना चाहता था। बदलती दुनिया में इस्राइल की स्थिति में भी परिवर्तन आना लाजिमी था और इसके साथ दूसरे देशों में भी परिवर्तन हुआ। अतः 90 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के शासनकाल में भारत ने इस्राइल के साथ कूटनीतिक संबंधों की शुरूआत की। कारगिल युद्ध में इस्राइल ने पर्दे के पीछे से भारत को हथियार और गोला-बारूद सप्लाई कर मदद की थी।
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अब अरब देशों का रुझान इस्राइल के प्रति बदल रहा है। संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख खलीफा बिन जायेद ने अब 1972 के इस्राइल बहिष्कार कानून को समाप्त कर एक नया आदेश जारी किया है जिसके तहत इस्राइल के साथ यूएई के किसी भी वित्तीय और वाणिज्यिक संबंध पर प्रतिबंध लगाया गया था। अब यूएई में रहने वाला कोई भी व्यक्ति और वहां की कोई कंपनी इस्राइल में रहने वाले व्यक्ति या स्थानीय व्यापारी और निकाय के साथ वाणिज्यिक और वित्तीय समझौते कर सकते हैं। यूएई के इस फैसले का बहुत ही प्रतीकात्मक महत्व है। यद्यपि पिछले दो दशकों में इस्राइल और यूएई के बीच अनौपचारिक व्यापार संबंध बढ़े हैं।  पिछले 20 वर्षों में कम से कम पांच सौ इस्राइली कंपनियों ने संयुक्त अरब अमीरात में सौदे किए हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप काफी समय से दोनों देशों के बीच राजनयिक और व्यापारिक संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिशें कर रहे थे। आखिर 48 वर्ष पुरानी दुश्मनी को भूलकर यूएई इस्राइल के करीब क्यों आया? इस सवाल के पीछे भी सियासी घटनाक्रम छिपा हुआ है।
मिस्र और इस्राइल के बीच 1979 में और फिर जार्डन और इस्राइल के बीच 1984 में हुए समझौते के बाद संयुक्त अरब अमीरात तीसरा अरब देश है, जिसने इस्राइल के साथ समझौता किया और राजनयिक रिश्ते बहाल करने पर सहमत हुआ है। खाड़ी के 6 अरब देशों में यूएई पहला देश है जिसने इस्राइल के साथ समझौता किया है। कहा जा रहा है कि ओमान, बहरीन और संभवतः मोरक्को भी जल्द ही इस्राइल से समझौता कर लेंगे। यद्यपि फिलीस्तीनियों ने कहा है कि यूएई ने अपनी पीठ में छुरा घोंपा है। दरअसल यूएई के साथ-साथ बहरीन और सउदी अरब को अपने ताकतवर पड़ोसी देश ईरान पर हमेशा से शक रहा है। इराक से सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने के बाद पूरे मध्य पूर्व में ईरान की राजनीतिक मौजूदगी बढ़ी है। ईरान के इराक, लेबनान, यमन और सीरिया में हथियारबंद गुट हैं। ईरान का परमाणु कार्यक्रम भी चिन्ता का सबब बना हुआ है। तुर्की की इस्लामी हकूमत भी यूएई के हितों से टकराती है। राजनीतिक इस्लाम या पैन इस्लाम एक ऐसा विचार है जिसका मिस्र जैसे देश समर्थन करते हैं, इसलिए कुछ खाड़ी देश अपनी खानदानी बादशाहत के वजूद को खतरा महसूस करते हैं।
इस्राइल और यूएई के बीच समझौते से मध्य पूर्व की राजनीति का पूरा घटनाक्रम बदलने वाला है। इसे शांति के लिए बड़ा कदम बताया जा रहा है जो क्षेत्र में स्थिरता का काम करेगा। इस्राइल और यूएई के लिए पर्याप्त आर्थिक और व्यावसायिक मौके पैदा होंगे। इस्राइल संयुक्त अरब अमीरात की खाद्य सुरक्षा को बेहतर बनाने के लिए मदद करेगा कि वह कैसे रेगिस्तान में खेती करे और खारे पानी को पीने लायक कैसे बनाये। पैसा यूएई का होगा और तजुर्बा इस्राइल का होगा।
दुनिया में अब संबंधों को छिपाने का भी कोई औचित्य नहीं। अगर कोई देश विकास करना चाहता है और बदलती परिस्थितियों में अपने नागरिकों को हर बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराना चाहता है तो उन्हें नवीनतम प्रौद्योगिकी को अपनाना ही होगा। कोई भी देश रूढ़िवादी और कट्टरवादी सोच के दायरे में रह कर विकास नहीं कर सकता। इसलिए दीवारें तोड़ना जरूरी हो जाता है। केवल विध्वंसक हथियारों के निर्माण का शोर-शराबा कर तनाव पैदा करने से स्थिरता और शांति नहीं हो सकती। बेहतर यही होगा कि देशों में संबंध मधुर बनें।
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