राज्यपालों की मनमानी
भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका हमारे लोकतन्त्र का ऐसा स्तम्भ है कि जब भी कोई अन्य…
भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका हमारे लोकतन्त्र का ऐसा स्तम्भ है कि जब भी कोई अन्य स्तम्भ दिग्भ्रमित होता है तो यह उसे इस प्रकार चुस्त-दुरुस्त कर देती है कि प्रजातन्त्र पूरी तरह निर्भय होकर अपना काम करता रहे। भारत का लोकतन्त्र जिन स्तम्भों पर टिका हुआ है उनमें विधायिका,कार्यपालिका, न्यायपालिका व चुनाव आयोग हैं। इनमें से न्यायपालिका का कार्य सभी स्तम्भों का संविधान के अनुसार काम करते देखना है। आजादी के बाद से ही न्यायपालिका यह कार्य पूरी पवित्रता के साथ करती रही है। अतः सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पर्दीवाला व आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि की कारगुजारियों पर जो फैसला दिया है उसे इसी आलोक में देखा जाना चाहिए परन्तु इससे पहले यह समझने की जरूरत है कि संविधान में किसी प्रदेश के राज्यपाल की क्या स्थिति है। राज्यपाल के पद को जब हमारे संविधान निर्माता संविधान सभा में सृजित कर रहे थे तो उनके सामने एक ही लक्ष्य था कि राज्यों के संघ भारत में सर्वदा सर्वव्यापी संविधान का ही राज्य रहना चाहिए जिसके अनुरूप राज्यपालों की भूमिका ऐसे संविधान के संरक्षक की हो कि हर राज्य का प्रगाढ़ सम्बन्ध केन्द्र की सरकार से रहे।
संविधान में चूंकि केन्द्र व राज्यों के अधिकार अलग-अलग हैं और इस प्रकार हैं कि वे उनमें आपसी अधिकार विनिमय का भी अधिकार देते हैं जिसे समवर्ती सूची कहा जाता है। इस सूची का महत्व भारत की एकता व अखंडता से जाकर जुड़ता है परन्तु हर हालत में लोकतन्त्र जनता की इच्छा के अनुसार ही उसके चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से चलता है। यह कार्य राज्य स्तर से लेकर केन्द्र के स्तर तक बहुमत की राजनीतिक सरकारों के जरिये होता है। राज्य में विधानसभा और केन्द्र में संसद इसका मुख्य आधार होती हैं। अतः राज्यों के सन्दर्भ में विधानसभाएं जो विधेयक पारित करती हैं उन पर संविधान के मुखिया होने के नाते राज्यपाल अपनी सहमति की मुहर लगाते हैं मगर तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि इन विधेयकों को मंजूरी देने के बजाय उन पर कुंडली मार कर बैठे हुए थे। उनके पास 2020 में विधानसभा में पारित विधेयक भी पड़ा हुआ था। इसके अलावा नौ अन्य विधेयक थे जो लम्बे अर्से से उनकी सहमति की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसे लेकर तमिलनाडु की द्रमुक सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। इसी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने मंगलवार को फैसला दिया और कहा कि राज्यपाल का यह कृत्य अवैधानिक है। वह विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक के लिए बैठे नहीं रह सकते। न्यायमूर्तियों ने फैसला दिया कि संविधान के अनुसार उनके पास केवल तीन विकल्प हैं। पहला यह कि वह अपनी सहमति देकर इसे लौटा दें।
संविधान में चूंकि केन्द्र व राज्यों के अधिकार अलग-अलग हैं और इस प्रकार हैं कि वे उनमें आपसी अधिकार विनिमय का भी अधिकार देते हैं जिसे समवर्ती सूची कहा जाता है। इस सूची का महत्व भारत की एकता व अखंडता से जाकर जुड़ता है परन्तु हर हालत में लोकतन्त्र जनता की इच्छा के अनुसार ही उसके चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से चलता है। यह कार्य राज्य स्तर से लेकर केन्द्र के स्तर तक बहुमत की राजनीतिक सरकारों के जरिये होता है। राज्य में विधानसभा और केन्द्र में संसद इसका मुख्य आधार होती हैं। अतः राज्यों के सन्दर्भ में विधानसभाएं जो विधेयक पारित करती हैं उन पर संविधान के मुखिया होने के नाते राज्यपाल अपनी सहमति की मुहर लगाते हैं मगर तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि इन विधेयकों को मंजूरी देने के बजाय उन पर कुंडली मार कर बैठे हुए थे। उनके पास 2020 में विधानसभा में पारित विधेयक भी पड़ा हुआ था। इसके अलावा नौ अन्य विधेयक थे जो लम्बे अर्से से उनकी सहमति की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसे लेकर तमिलनाडु की द्रमुक सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। इसी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने मंगलवार को फैसला दिया और कहा कि राज्यपाल का यह कृत्य अवैधानिक है। वह विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक के लिए बैठे नहीं रह सकते। न्यायमूर्तियों ने फैसला दिया कि संविधान के अनुसार उनके पास केवल तीन विकल्प हैं। पहला यह कि वह अपनी सहमति देकर इसे लौटा दें।
समझने वाली बात यह है कि राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होते हैं और उनकी नियुक्ति तभी तक होती है जब तक कि राष्ट्रपति उनसे प्रसन्न रहते हैं। जबकि दूसरी तरफ विधानसभा में बनी राजनैतिक बहुमत की सरकार जनता द्वारा चुनी गई सरकार होती है। राज्यपाल को इससे कोई मतलब नहीं होता कि राज्य में किस राजनैतिक दल की सरकार है। जो भी सरकार होती है वह बहुमत की सरकार होती है और चुनाव के बाद राज्यपाल ही यह फैसला करते हैं कि किस पार्टी को बहुमत प्राप्त है। अतः किसी भी राजनैतिक दल की सरकार उनकी अपनी सरकार होती है। यह सरकार संविधान के अनुरूप कार्य करे यही देखना उनका काम होता है क्योंकि वह संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के प्रतिनिधि होते हैं। मगर राज्यपाल ही यदि संविधान का उल्लंघन करने लगेंगे तो केवल अऱाजकता ही पैदा हो सकती है। सवाल सीधे जनता की इच्छा से जाकर इसीलिए जुड़ता है क्योंकि बहुमत की सरकार लोगों की इच्छा का ही प्रतिनिधित्व करती है। राज्यपाल न तो चुने जाते हैं और न राज्य की जनता का उनके लिए कोई जनादेश होता है, वह केवल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति होते हैं। उनका कार्य केवल संविधान की अनुपालना देखना होता है अतः वह विधेयक स्वरूप में विधानसभा में पारित जन इच्छा पर कुंडली मार कर नहीं बैठ सकते। सर्वोच्च न्यायालय ने यही स्पष्ट किया है।