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सेना, सुरक्षा और चुनावी मुद्दे !

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08:16 AM Mar 06, 2019 IST | Desk Team

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आजाद भारत के लोकतन्त्र का अभी तक का यह इतिहास रहा है कि किसी भी चुनाव में राष्ट्रभक्ति या देश प्रेम कभी कोई मुद्दा इसलिए नहीं रहा है क्योंकि इस देश के लोगों के लिए देश प्रेम कोई ऐसा विषय नहीं रहा है जिस पर किसी भी प्रकार का अंशमात्र भी मतभेद हो। हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारी फौज का स्वरूप पूरी तरह गैर-राजनैतिक बनाते हुए उसे संविधान द्वारा स्थापित सत्ता के प्रति जिम्मेदार बनाते हुए उसकी कमान संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के हाथ में उन्हें सुप्रीम कमांडर बनाते हुए दी। यह महीन संवैधानिक कसीदाकारी भारत के महान लोकतन्त्र की राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न को सभी दलगत आग्रहों से ऊपर रखते हुए गारंटी करती है कि इस मामले में सत्ता और विपक्ष के बीच किसी प्रकार का अन्तर नहीं रहेगा। यही वजह है कि जब भी किसी दूसरे देश ने भारत की सुरक्षा को चुनौती देने की कोशिश की तो सरकार और विपक्ष के बीच गहन और गंभीर संवाद के जरिये किसी भी प्रकार का विवाद पैदा होने की गुंजाइश को टालने के लिए स्वयं सरकार ने आगे बढ़कर पहल की।

वर्तमान में पाकिस्तान के विरुद्ध की गई कार्रवाई को लेकर जिस तरह का अनावश्यक विवाद पैदा हुआ है उसकी कोई और वजह नजर आती है सिवाय इसके कि इस मामले में सत्ता और विपक्ष के बीच संवाद की वह गंभीरता और गहनता नहीं है जिससे सुरक्षा सम्बन्धी सूचनाओं को एकमुश्त तौर पर एक जैसी होने की ‘आवाज’ में बदला जा सके मगर दुःखद यह है कि इस पर राजनीति हो रही है। प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा सब आने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए किया जा रहा है? यदि ऐसा है तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? यदि यह सब चुनाव में बाजी जीतने के लिए ही हो रहा है तो जो चुनावों में जीत जायेगा वही दावा कर देगा कि उसके रुख को आम जनता का समर्थन मिला। मगर क्या वास्तव में इसका मतलब यही होगा? शायद नहीं क्योंकि इसमें वह बड़ी आशंका छिपी होगी जिसका निषेध हमारे देश के सभी राजनैतिक दलों ने अभी तक पूरी ताकत के साथ किया है। यह आशंका भारतीय सेनाओं के राजनीतिकरण की है।

सेना के शौर्य के इर्द-गिर्द राजनैतिक विमर्श का उभरना राजनीति की दिशा शून्यता को ही तय करेगा जो राजनैतिक नेतृत्व की लोकतान्त्रिक जवाबदेही को सहारा देने का काम करेगा। जनतान्त्रिक व्यवस्था में विदेश नीति व रक्षा नीति बहस का मुद्दा हो सकती है, सेना का शौर्य नहीं। इसलिए हमें इस स्थिति से हर हालत में जल्दी ही आगे निकलना होगा और चुनावों के उन असली मुद्दों की तरफ लौटना होगा जिनका सम्बन्ध सीधे तौर पर इस देश के आम आदमी की समस्याओं से है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा आम लोगों के विचार का विषय नहीं है? जाहिर तौर पर यह विषय है और प्राथमिकता का है मगर इसका प्रावधान हमारी व्यवस्था में इस प्रकार अन्तर्निहित है कि यह चुनावी मुद्दा बन ही न सके।

पूरी तरह गैर-राजनैतिक फौजों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि किस पार्टी की सरकार है, उन्हें तो सिर्फ इस बात से मतलब होता है कि संविधान के अनुसार स्थापित सत्ता की छत्रछाया में उन्हें हर पल राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर मुस्तैद रहना है और रक्षामन्त्री के माध्यम से उस संसद के प्रति जवाबदेह रहना है जिसने उन्हें पूरे पेशेवर तरीके से अपने मजबूत व अजेय बने रहने के लिए जरूरी संरचना करने की खुद मुख्तारी अता फरमाई है। अतः सेना तो हर वक्त और हर हाल में अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करती ही रहती है और सरहदों को सुरक्षित बनाये रखती है। अतः चुनावों में उसके किरदार को मुद्दा बनाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।

भारत में राजनीति और सैनिक गतिविधियां पूरी तरह अलग-अलग हैं और इसकी बाकायदा सुगठित संवैधानिक व्यवस्था है। इस मामले में भारत की राजनीति पर चाहे कभी समाजवाद प्रभावी हो सकता है तो कभी राष्ट्रवाद या साम्यवाद अथवा अन्य कोई विचार मगर कोई भी सिद्धान्त गांधीवाद से ऊपर नहीं हो सकता जिसमें देश के प्रत्येक सैनिक को भी चुनावों में अपनी राजनैतिक पसन्द के चयन का अधिकार है। यह अधिकार सुनिश्चित करता है कि भारत की सेना लोकतन्त्र में जी रही उस जनता की सेना है जो अपने एक वोट से अपनी सरकार का गठन करती है। यही सरकार पांच साल के लिए मुल्क की तकदीर लिखती है जिसमें एक सैनिक की भी भागीदारी होती है। अतः चुनावी मुद्दे उस आम आदमी के मसले ही हो सकते हैं जो सेना में भी अपनी नई पीढ़ी के जवानों को भर्ती होने के लिए भेजता है। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि सेना के शौर्य को राजनैतिक विषय बनाने का सीधा मतलब होता है कि राजनैतिक शौर्य के मोर्चे पर तीरों की कहीं कमी पड़ रही है। चुनाव जीतना सभी पार्टियां चाहती हैं मगर इस बाजी को वे ही जीतती हैं जो जमीनी हकीकत से बावस्ता होती हैं।

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