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मिडिल क्लास क्या छिटका, बिखर गई आप

दिल्ली के ताजा चुनाव परिणामों ने वाकई अरविंद केजरीवाल व उनकी आप…

10:51 AM Feb 08, 2025 IST | त्रिदीब रमण

दिल्ली के ताजा चुनाव परिणामों ने वाकई अरविंद केजरीवाल व उनकी आप…

‘शफ्फाक आइनों पर जो मैली सी चादर ओढ़ा कर रखते हैं

अपने एक चेहरे पर न जाने वे कितने चेहरे लगा कर रखते हैं’

दिल्ली के ताजा चुनाव परिणामों ने वाकई अरविंद केजरीवाल व उनकी आप के अरमानों पर झाड़ू फेरने का काम किया है। आप के नजरिए से ये चुनाव परिणाम इतने अभूतपूर्व व अप्रत्या​िशत थे कि न सिर्फ केजरीवाल, बल्कि उनके दरबार के चमकते नवरत्न यानी मनीष सिसोदिया, सौरभ भारद्वाज, सत्येंद्र जैन, दुर्गेश पाठक जैसे नेता भी चुनाव हार गए। जिस मिडिल क्लास के भरोसे केजरीवाल 2013 से ही पिछले कोई दशक भर से दिल्ली की सत्ता पर कुंडली मार कर बैठे थे, उसी मिडिल क्लास ने सांप-नेवले वाली कहानी दुहरा दी।

पिछले कुछ वर्षों में केजरीवाल व उनकी आप ने खुद को गरीबों की पार्टी के तौर पर स्थापित कर लिया था, शायद यही वज़ह थी कि स्लम व जेजे कॉलोनियों में आने वाली पोलिंग बूथ पर आप के पक्ष में 90 फीसदी से ज्यादा मतदान हो जाते थे। पर पिछले कुछ समय तक मिडिल क्लास के वोटरों पर केजरीवाल की पकड़ ढीली पड़ती जा रही थी। 2018 में दिल्ली सरकार ने एक आर्थिक व सामाजिक सर्वेक्षण करवाया था जिसमें परिवारों को मूलतः दो वर्गों में विभाजित किया गया था, एक वे जो महीने का 25 से 50 हजार रुपए खर्च कर रहे थे, इन परिवारों को मिडिल क्लास माना गया। इनकी जनसंख्या दिल्ली में तकरीबन 45 फीसदी मानी गई, पर इनके मुकाबले 0-20 हजार रुपए प्रतिमाह कमाने वाले लोगों की भी एक बड़ी तादाद थी।

केजरीवाल ने इस कमजोर वर्ग को अपने कोर वोट बैंक में शुमार कर लिया। और आप सरकार की ज्यादातर योजनाओं का ताना-बाना इन्हीं गरीब लोगों को केंद्र में रखते बुना गया यानी मुफ्त बिजली-पानी, मोहल्ला क्लीनिक, बेहतर सरकारी स्कूल आदि-आदि। पर 2025 के चुनाव से ऐन पहले केजरीवाल को भी मिडिल क्लास की याद आ गई, पर तब तक भाजपा यह मजमा लूट चुकी थी क्योंकि दिल्ली चुनाव अभियान को सिरे चढ़ाती मोदी सरकार ने आनन-फानन में आठवें वेतन आयोग की घोषणा कर दी, ताजा यूनियन बजट में मिडिल क्लास के लिए बड़ी कर छूट का ऐलान हुआ, इससे दिल्ली में सारा गेम ही पलट गया, क्योंकि मिडिल क्लास को अब तक लगने लगा था कि ‘आप सरकार की योजनाओं का सारा फोकस गरीबों को रेवड़ियां बांटने पर ही है।’ वहीं राहुल गांधी और कांग्रेस पर निजी हमले भी केजरीवाल के लिए महंगे साबित हुए, क्योंकि कम से कम दिल्ली की 10 वैसी सीटों की ​िशनाख्त हो सकती है जहां कांग्रेस 15 फीसदी तक वोट ले आई, जो कि आप के वोट बैंक में एक बड़ी सेंध थी, साथ ही राहुल के लिए केजरीवाल से हरियाणा का बदला साधने का एक माकूल मौका भी था।

केजरीवाल का मीडिया प्रेम

5 फरवरी को दिल्ली के मतदान के दिन आप सुप्रीमो केजरीवाल को सुबह 11बजे अपने घर से वोट डालने के लिए निकलना था। इसके लिए तमाम तैयारियों को पहले ही अंजाम दिया जा चुका था। मीडिया वालों को भी इस बात की इत्तला दी जा चुकी थी, नतीजन भारी संख्या में पत्रकार, टीवी कैमरे व फोटो पत्रकार केजरीवाल के नई दिल्ली स्थित उनके फिरोजशाह रोड वाले घर के बाहर सुबह से ही डेरा-डंडा जमा चुके थे। पर तब तक यह खबर भी आ गई कि पीएम मोदी भी 11 बजे ही उसी रोज महाकुंभ में डुबकी लगाने वाले हैं, जिसके लिए तमाम न्यूज़ चैनलों में इसे लाइव दिखाने की होड़ मच गई थी।

अब मौके की नजाक़त को भांपते हुए केजरीवाल ने भी तय किया कि ‘एक बार पीएम की डुबकी-स्नान का कार्यक्रम संपन्न हो जाए तो वे अपने घर से बाहर निकलें ताकि वे भी ठीक-ठाक तरीके से सुर्खियों की सवारी गांठ सकें।’ सो, बाहर मीडिया जहां केजरीवाल की बाट जोह रहा था, वहीं केजरीवाल अपने घर के टीवी स्क्रीन पर टकटकी लगाए उस पल का इंतजार कर रहे थे जब पीएम के स्नान-ध्यान का कार्यक्रम पूरा हो जाए। जैसे ही साढ़े ग्यारह बजे और पीएम ने प्रयागराज के महाकुंभ में डुबकी लगाई, केजरीवाल भी अपने माता-पिता व परिवार के साथ नजदीकी पोलिंग बूथ पर जाने को तत्पर हो गए। पर हां इससे पहले दो नई व्हील चेयर मंगाई गई, जिसमें एक पर तो उनके बुजुर्ग पिता बैठे, इसको लेकर केजरीवाल के पुत्र घर से बाहर निकले, दूसरे पर उनकी माता जी विराजमान हुईं जिसे केजरीवाल खुद चला रहे थे।

सुनीता केजरीवाल भी पीछे-पीछे साथ चलीं। जबकि कुछ लोगों का दावा है कि उन्होंने उसी रोज सुबह केजरीवाल के माता-पिता को घर से लगे छोटे पार्क में मार्निंग वॉक करते देखा था। सो, भले ही भाजपा के हाथों केजरीवाल ने इस बार अपना दिल्ली का निज़ाम गंवा दिया हो, पर उन्होंने हौसला नहीं खोया है, वे मानते हैं कि ‘उनके पास अब भी आप विधायकों का इतना संख्या बल है कि वे दिल्ली की नई नवेली भाजपा सरकार की नाक में दम कर देंगे।’

राहुल को दलित राजनीति का आसरा

राहुल गांधी को शायद इस बात का पहले ही इल्म हो चुका था कि ‘उनके लाख प्रयासों के बावजूद इस दफे भी दिल्ली चुनाव में कांग्रेस कोई बड़ा कारनामा नहीं कर पाएगी,’ पर वे इतना तो जानते ही थे कि अगर कांग्रेस ने सिर्फ अपना वोट शेयर ही दोगुना कर लिया तो इससे यहां आम आदमी पार्टी का खेल बिगड़ सकता है। दिल्ली के ताजा चुनाव परिणाम इस बात की चुगली खाते हैं कि इस बार कम से कम 10 सीटें आम आदमी पार्टी कांग्रेस की वज़ह से हार गई, इन सीटों पर मुस्लिम वोटरों ने भी खुल कर कांग्रेस का साथ दिया। सो, यही मौका था केजरीवाल से उनके आग बुझे शब्दों व हरियाणा का बदला निकालने का। सो, दिल्ली के मतदान के रोज ही उन्होंने सीधे पटना की फ्लाइट पकड़ ली, जहां पटना के स्थानीय श्रीकृष्ण मैमोरियल हॉल में एक दलित पासी नेता जगलाल चौधरी के 130वीं जयंती समारोह का आयोजन था।

जगलाल चौधरी आजादी के बाद गठित पहली कांग्रेस सरकार के मंत्री भी रह चुके थे। पर इस कार्यक्रम में कांग्रेस की आपसी सिर फुटव्वल खुल कर सामने आ गया। आयोजकों ने न तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश सिंह और न ही जगलाल चौधरी के बेटे भूदेव चौधरी के लिए मंच पर कुर्सी लगाई थी। अखिलेश सिंह आयोजकों पर भड़क गए, बोले-इस पूरे आयोजन का खर्च आयोजक अपने पास से दें, प्रदेश कांग्रेस कमेटी इसके लिए ढेला नहीं देगी। अखिलेश का यह दांव काम कर गया। आनन-फानन में अखिलेश सिंह के लिए मंच पर मोहन प्रकाश के बगल में कुर्सी लगाई गई। पर स्वर्गीय जगलाल चौधरी के पुत्र भूदेव चौधरी इतने भाग्यशाली नहीं रहे उन्हें न तो मंच पर जगह मिली और न ही इन्हें राहुल से मिलने का अवसर नहीं मिला। यहां तक कि राहुल को जो लिखित भाषण दिया गया था उसमें जगलाल चौधरी की जगह जगतपाल चौधरी लिखा गया था, राहुल ने दो-तीन दफे यही नाम पढ़ दिया, बाद में उन्होंने अपनी यह गलती सुधार ली।

जगलाल चौधरी के नाम पर बिहार में एक सामाजिक विकास की संस्था भी चलती है, इस संस्था को चलाने वाले लोगों की भी राहुल के कार्यक्रम में एंट्री नहीं हो पायी। बाद में जब इस पूरे मामले को लेकर बिहार में खूब हाय-तौबा मची तो मोहन प्रकाश ने बिहार कांग्रेस प्रभारी सुशील पासी को बुला कर हड़काया, मामले में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले बंटी चौधरी की भी क्लास लगाई गई और जगलाल चौधरी के बेटे भूदेव चौधरी जो कि पूर्व विधायक भी हैं, उन्हें सदाकत आश्रम बुला कर उनका फूल-माला से स्वागत किया गया ताकि उनका गुस्सा शांत हो सके।

एमपी में क्यों लंबित है यूसीसी

उत्तराखंड में जहां धामी सरकार ने यूसीसी यानी यूनिफार्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) लागू कर दिया है, वहीं मध्य प्रदेश की मोहन यादव सरकार इस मामले में किंचित पिछड़ गई लगती है। जब मोहन यादव प्रदेश के सीएम बने थे तो उन्होंने यूसीसी लागू करने की बात की थी। पूर्व में इस पर 27 जून 2023 को दुबारा एक कमेटी बनाने की भी बात हुई थी, फिर यह मामला ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया गया क्योंकि प्रदेश सरकार जानती थी कि ‘इस कानून के लागू होने का असर सिर्फ मुस्लिम समुदाय पर ही नहीं पड़ेगा, बल्कि इससे वहां का आदिवासी समुदाय भी प्रभावित होगा।’

दरअसल मध्य प्रदेश की 47 ऐसी विधानसभा सीटें हैं जहां आदिवासी समुदाय किसी प्रत्याशी की इस पर जीत-हार तय करता है। 2018 के चुनाव में जब भाजपा खुल कर यूसीसी के पक्ष में अलख जगा रही थी, तब वह यहां की मात्र 15 सीटें ही जीत पाई थी। 2023 के चुनाव में यूसीसी पर यहां अपने स्वर मद्दिम कर भाजपा ने इन 47 में से 23 सीटें जीत लीं, और इस जीत के निहितार्थ भी उसने समझ लिए थे।

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