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अश्विनी कुमार का इस्तीफा

कांग्रेस पार्टी में पंजाब के नेता कहे जाने वाले पूर्व केन्द्रीय मन्त्री श्री अश्विनी कुमार ने अपनी पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देकर केवल यही सिद्ध किया है कि राजनीतिक परिपक्वता के मामले में वह भी इस पार्टी के उन अन्य नेताओं की तरह हैं

02:30 AM Feb 17, 2022 IST | Aditya Chopra

कांग्रेस पार्टी में पंजाब के नेता कहे जाने वाले पूर्व केन्द्रीय मन्त्री श्री अश्विनी कुमार ने अपनी पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देकर केवल यही सिद्ध किया है कि राजनीतिक परिपक्वता के मामले में वह भी इस पार्टी के उन अन्य नेताओं की तरह हैं

कांग्रेस पार्टी में पंजाब के नेता कहे जाने वाले पूर्व केन्द्रीय मन्त्री श्री अश्विनी कुमार ने अपनी पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देकर केवल यही सिद्ध किया है कि राजनीतिक परिपक्वता के मामले में वह भी इस पार्टी के उन अन्य नेताओं की तरह हैं जो सत्ता सुख की अभिलाषा में राजनीति के उतार-चढ़ावों से बहुत जल्दी घबरा कर अपना रास्ता बदल लेते हैं। श्री कुमार बेशक पंजाब से आते हैं मगर वह पंजाब में ही आज तक नगर पालिका का भी कोई चुनाव नहीं जीत सके और अपने पिता स्व.पं. प्रबोध चन्द्र की विरासत के सहारे ही कांग्रेस में आकर नेता का खिताब ले बैठे । वास्तविकता यह है कि मृदु भाषी और व्यवहार कुशल श्री अश्विनी कुमार को कांग्रेस पार्टी ने इतना कुछ दिया कि वह 2006 में केन्द्रीय राज्य मन्त्री बने और 2011 में कैबिनेट स्तर के कानून मन्त्री भी बने परन्तु इस पद को वह कायदे से संभाल नहीं पाये और ऐसे  विवाद में फंस गये जिससे तत्कालीन प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को उन्हें अपने मन्त्रिमंडल से बाहर करना पड़ा। वह 2002 से 2006 तक राज्यसभा के सदस्य कांग्रेस की मेहरबानी से ही रहे और इसी नाते वह डा. मनमोहन सिंह की दोनों सरकारों में मन्त्री भी रहे परन्तु अब अपने लिए  कांग्रेस के आला नेताओं में कोई गुंजाइश न देख उन्हें कांग्रेस पार्टी ही राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक विमर्श देने में नाकामयाब पार्टी लगने लगी और उन्होंने पार्टी से बाहर रह कर राष्ट्र की सेवा करने में स्वयं को ज्यादा मुफीद माना। वाह-वाह क्या कहने हैं पंजाबी जुबान में इस ‘मिट्टी के शेर’ सियासत दां के वहीं खीर खट्टी लगने लगी जिसे खाकर हुजूर ने सियासत की सीढि़यां चढ़ना सीखा।
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 दरअसल यह कांग्रेस का इतिहास रहा है कि समय-समय पर इसका साथ ऐसे  नेता छोड़ते रहे हैं जिन्हें सिर्फ सत्ता की राजनीति से ही मोह होता है। हिन्दोस्तान की सियासत तो वह है जिसमें जनता की ताकत पर नेता बाजियां पलट देते हैं मगर अपनी पार्टी कभी नहीं बदलते। 1969 में भी ऐसा  मौका आया था जब कांग्रेस का पहली बार विभाजन हुआ था और स्व. इन्दिरा गांधी के साथ चन्द चुने हुए नेता ही रह गये थे और बाकी सभी नामवर नेता दूसरी सिंडिकेट कांग्रेस में चले गये थे जिसमें इंदिरा जी को प्रधानमन्त्री बनाने वाले स्व. कामराज भी शामिल थे। मगर इस देश की जनता ने इन्दिरा जी की कांग्रेस को ही असली कांग्रेस माना । उस समय भी इन्दिरा गांधी के बारे में कुछ उनके ही पुराने साथी उन्हें केवल नेहरू की बेटी कह कर सम्बोधित करते थे परन्तु तब इन्दिरा जी को यह लाभ दिया जा सकता था कि वह देश की प्रधानमन्त्री थीं मगर 1977 में तो यह हालत नहीं थी जब कांग्रेस दूसरी बार टूटी और  स्वयं उन्हीं नेताओं ने इंदिरा जी को पार्टी से बाहर किया जो 1975 में लगाई गई इमरजेंसी के फायदे उठा कर सत्ता का सुख भोग रहे थे। इन सभी के नाम लिखना यहां इसलिए मुमकिन नहीं है क्योंकि सूची बहुत लम्बी है परन्तु कुछ विशिष्ट नाम लिखता हूं जिनमें बाबू जगजीवन राम व यशवन्त राव चव्हाण के नाम प्रमुख हैं। 
इंदिरा गांधी को 1977 में कांग्रेस से निकालने वाले नेताओं ने पुरानी इंदिरा कांग्रेस को ही कब्जा लिया मगर जब 1980 के चुनाव हुए तो जनता ने फिर बताया कि इन्दिरा कांग्रेस ही असली कांग्रेस है। बेशक वर्तमान की राजनीतिक परिस्थितियां अलग हैं और सन्दर्भ भी अलग हैं परन्तु क्या श्री अश्विनी कुमार से पूछा जा सकता है कि 1989 से केन्द्र की सत्ता से बाहर कांग्रेस ने 2004 में पुनः सत्ता पर बैठने के समीकरण किस नेता के नेतृत्व में बनाये ?  निश्चित रूप से वह स्व. राजीव गांधी की पत्नी श्रीमती सोनिया गांधी ही थीं। जो भी नेता आज कांग्रेस छोड़ कर जा रहे हैं उन्हें भारत के जनमानस के मनोविज्ञान का भी अच्छी तरह पता होना चाहिए। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए अभी केवल 74 साल ही हुए हैं और कोई भी इतिसकार भारत के स्वतन्त्रता संग्राम की कहानी नहीं बदल सकता है अतः गांधी से लेकर उनके विश्वस्त सिपाहियों की भूमिका का स्मरण देश की जनता के दिमाग से कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
 सवाल यह है कि आज पंजाब में चुनाव हो रहे हैं और इसी राज्य के एक कांग्रेसी नेता कांग्रेस छोड़ रहे हैं और कह रहे हैं कि पार्टी का राष्ट्रीय नजरिया धुंधला गया है । भारत के विभिन्न राजनैतिक दलों का इतिहास ऐसे  उदाहरणों से भरा पड़ा है जब किसी वजनदार नेता को पार्टी से बाहर किया गया हो। यदि पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर सिंह को मुख्यमन्त्री पद से हटाने का फैसला कांग्रेस आलाकमान ने लिया तो इसके पीछे भी कोई ठोस कारण रहे होंगे और ये कारण स्वाभाविक तौर पर राजनीति में पीढ़ीगत परिवर्तन के लगते हैं परन्तु अश्विनी कुमार को अब हर जगह बुराई नजर आ रही है, उन्हें तब यह महसूस क्यों नहीं हुआ जब 2012 में कोयला आंवटन प्रकरण के मामले में सीबीआई को प्रभावित करने के सिलसिले में उन्हें पद से हटाया गया था और बाद में उन्हें उसी सरकार ने जापान में प्रधानमन्त्री का विशेष राजदूत बना कर भेज दिया था और कैबिनेट स्तर की सुविधाएं दी थीं। लोकतन्त्र में नेता की पहचान बुरे वक्त में ही होती है अच्छे वक्त में तो हर शख्स वाहवाही के नारे लगा कर अपने मुंह मियां मिट्ठू बन जाता है।
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