न्यायमूर्ति गवई पर हमला !
भारत के जनमानस में देश की न्यायपालिका के प्रति अथाह सम्मान का भाव स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही रहा है, क्योंकि जब भी लोकतन्त्र के दो मजबूत खम्भे विधायिका और कार्यपालिका अपना काम करने में कोताही या लापरवाही बरतते हैं तो न्यायपालिका खड़े होकर पूरी दिलेरी के साथ इस व्यवस्था को संभाल लेती है और किसी भी प्रकार की विसंगति को परिमार्जित कर देती है। हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली में न्यायापालिका को न केवल स्वतन्त्र रखा गया है, बल्कि पूरे देश में कानून का राज कायम रखने की जिम्मेदारी से भी लैस किया गया है। एेसा करके हमारे संविधान निर्माताओं ने सर्वोच्च न्यायालय को प्रत्यक्ष रूप से संविधान का संरक्षक ही बनाया। अतः यह बेवजह नहीं है कि भारत के राष्ट्रपति को पद व गोपनीयता की शपथ सर्वोच्च या उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश दिलाते हैं और राष्ट्रपति प्रधान न्यायाधीश को। क्योंकि राष्ट्रपति को संविधान का संरक्षक माना जाता है। हमारे संविधान निर्माता जो यह शास्त्रीय व अद्भुत प्रणाली स्थापित करके गये हैं उसमें देश के प्रधान न्यायाधीश के पद की गरिमा व प्रतिष्ठा को भारत के राजनीतिक शासन तन्त्र से पूरी तरह निरपेक्ष रखने के प्रावधान बहुत पुख्ता तौर पर किये गये हैं।
अतः सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हम न्यायमूर्ति अलंकरण से उच्चारित करते हैं और सदैव अपेक्षा करते हैं कि उनका कोई भी फैसला केवल संविधान की परिधि के भीतर ही होगा। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि देश पर कौन सी राजनीतिक पार्टी राज कर रही है, बल्कि इस बात से मतलब होता है कि किसी भी राजनीतिक दल की सरकार संविधान के अनुसार काम कर रही है या नहीं। इसकी वजह यह है कि भारत में ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा या राज्यसभा तक में लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधि सबसे पहले संविधान की कसम उठा कर ही अपना-अपना काम शुरू करते हैं और ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमन्त्री पद तक का कार्यभार संभालते हैं। इसी प्रकार कार्यपालिका के भी सभी अफसर संविधान की कसम उठाते हैं। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी न्यायपालिका को किसी भी प्रकार के सन्देह से ऊपर रखें और सुनिश्चित करें कि सर्वोच्च न्यायालय जब अपना कार्य करे तो उसके सामने भारत के सभी हिन्दू-मुसलमान केवल भारत के नागरिक हों। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत गंभीर चिन्तन व मनन करने के बाद ही भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था। इसका कारण यह था कि मजहब की बुनियाद पर पृथक देश पाकिस्तान का निर्माण हो जाने के बाद भारत के लोगों पर इस देश की विविधता से भरी मूल संस्कृति को संरक्षित रखने का भार आ पड़ा था। यह संस्कृति सभी मत-मतान्तरों के लोगों को एक साथ लेकर चलने की थी।
इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज में विभिन्न विचारों को मानने वालों का समावेश था। जिसमें साकार ब्रह्म की पूजा करने वालों से लेकर निराकार ब्रह्म को पूजने वाले लोग थे। यह खूबसूरती केवल भारत में ही हो सकती है कि इसमें अनीश्वरवादी धर्म भी खूब फूले-फले थे। सगुण और निर्गुण ईश्वर पूजा की इसमें खुली छूट थी। इससे भी ऊपर चरक जैसे ऋषि भी हुए जो पूरी तरह भौतिकवाद के पक्षधर थे और कहते थे कि ‘ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत’। इसलिए भारत की संस्कृति में जो भी धर्म इसकी पृथ्वी पर आया वह भारत की मिट्टी की तासीर से सराबोर रहा परन्तु विगत सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री बी.आर. गवई की अदालत में उन पर एक वकील राकेश किशोर ने जूता फैंकने की हिमाकत की जिससे देश के हर नागरिक को बहुत दुख व पीड़ा का एहसास हुआ।
आजाद भारत के इतिहास में प्रधान न्यायाधीश पर खुली अदालत में हमला करने की यह पहली घटना थी। इससे पूर्व लगभग 24 साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति के विरुद्ध एेसी ही घटना जरूर हुई थी। मगर न्यायमूर्ति पर इस घटना का कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने अदालत की कार्यवाही यथावत जारी रखी और निर्देश दिया कि राकेश किशोर को गिरफ्तार न किया जाये। श्री गवई बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं और सभी धर्मों का एक समान रूप से सम्मान करते हैं। वह एक जमाने में रिपब्लिकन पार्टी के कर्णधार माने जाने वाले नेता स्व. रामकृष्ण सूर्यभान गवई के पुत्र हैं जिन्होंने बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ 1956 में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। वह सामाजिक न्याय व दलितोत्थान के बहुत बड़े अलम्बरदार थे। अतः श्री गवई की पारिवारिक विरासत बहुत समृद्ध व प्रगतिशील विचारों की है। उनका खजुराहो मन्दिरों के एक मन्दिर में स्थित भगवान विष्णु की प्रतिमा के परिमार्जन करने के बारे में दायर याचिका पर यह टिप्पणी करना कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, पूरी तरह विधि सम्मत है क्योंकि खजुराहो परिसर में केवल एक मन्दिर को छोड़ कर जितने भी मन्दिर हैं उनमें लगी या स्थापित किसी भी देव प्रतिमा की पूजा नहीं होती है क्योंकि ये प्रायः खंडित हैं और सनातन धर्म में खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं होती है। इसके साथ ही यह पूरा क्षेत्र भारतीय पुरातत्व विभाग के नियन्त्रण में है और विश्व धरोहरों में शुमार किया जाता है। जाहिर है कि राकेश किशोर ने एक वकील होते हुए संविधान को शर्मसार करने वाला ऐसा घृणित कार्य केवल सस्ती लोकप्रियता व चर्चा पाने की गरज से ही किया जिसके राजनीतिक उद्देश्य हो सकते हैं। अतः भारत के नागरिकों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वकील राकेश किशोर की बात पर जरा भी ध्यान न दें और समाज में शान्ति बनाये रखें क्योंकि यह समूची न्यायप्रणाली पर हमला है।