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बाबा साहेब अम्बेडकर और भारत की महान संसद !

भारत संविधान से चलने वाला देश है। यह उक्ति या सिद्धान्त हमें बाबा साहेब अम्बेडकर…

10:39 AM Dec 20, 2024 IST | Rakesh Kapoor

भारत संविधान से चलने वाला देश है। यह उक्ति या सिद्धान्त हमें बाबा साहेब अम्बेडकर…

बाबा साहेब अम्बेडकर और भारत की महान संसद

भारत संविधान से चलने वाला देश है। यह उक्ति या सिद्धान्त हमें बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही संविधान लिख कर दिया। भारतीय संविधान भारत का एेसा पहला पुख्ता दस्तावेज था जिसमें सभी वर्णों या वर्गों के इंसान या आदमी को एक समान समझा गया। वस्तुतः यह भारत में एेसी क्रान्तिकारी पुस्तक है जो भारत के पिछले पांच हजार सालों के इतिहास में पहली बार समूची मानव जाति को एक ही धरातल पर रख कर देख रही है, परन्तु इसके पीछे महात्मा गांधी का वह दर्शन भी था, जो उन्होंने स्वतन्त्र भारत के लिए देखा था। यह दर्शन निश्चित रूप से मानवता वाद का था जिसके लिए गांधी ने 1930 से लेकर 1937 तक स्वतन्त्रता आन्दोलन के समानान्तर अहिंसक युद्ध छेड़ा हुआ था। जाति के आधार पर ऊंच-नीच का विधान जन्म-जात मानने वाले भारतीय समाज में बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी मानव समानता के लिए युद्ध छेड़ा हुआ था और दलित समाज को बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए जबर्दस्त अभियान चलाए हुए थे, परन्तु जब उन्होंने संविधान लिखा तो साफ हो गया कि गांधी और अम्बेडकर का भारत मानवता वाद के सिद्धान्त पर ही चलेगा। अतः संविधान में अपनी निजी प्रगति और विकास के लिए भारत भू-भाग में बसने वाले प्रत्येक जाति व वर्ग के लोगों के अधिकार एक बराबर ही होंगे।

बाबा साहेब की यह दृष्टि गांधी की दृष्टि से अलग नहीं थी, लेकिन अम्बेडकर दलित भाइयों के लिए अलग से निर्वाचन मंडलों की मांग भी कर रहे थे जिसे गांधी ने कभी स्वीकार नहीं किया। आजादी से पहले की अंग्रेज सरकार इस स्थिति का मजा लेना चाहती थी, क्योंकि दक्षिण में रामा स्वामी नायकर (जिन्हें पेरियार भी बोला जाता था) पृथक द्रविड़ राष्ट्र बनाने की मुहिम छेड़े हुए थे। उधर मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए पृथक देश बनाने की मांग कर रहे थे। जिन्ना, पेरियार व अम्बेडकर की जनवरी 1940 में एक लम्बी बैठक सात दिनों तक मुम्बई के जिन्ना हाउस में चली जिसका कोई नतीजा नहीं निकला। मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि पेरियार अलग से द्रविड़ राष्ट्र बनाने की जो मांग कर रहे हैं वह चालू रखें मुस्लिम लीग उनका समर्थन करेगी और अम्बेडकर अपनी मांग पर अड़े रहे, परन्तु बाबा साहेब 1932 में पुणे में महात्मा गांधी से हुए समझौते के अनुसार दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग को छाेड़ चुके थे और उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि स्वतन्त्र भारत में दलितों के लिए अलग से विधानमंडलों में आरक्षण होगा।

मुद्दा यह भी था कि दलित वर्ग हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है। इसके लिए गांधी पूरे भारत में अस्पृश्यता या छुआ-छूत को मिटाने का अभियान छेड़े हुए थे और कह रहे थे कि दलित समाज हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है। गांधी जानते थे कि हिन्दू समाज वर्ण व्यवस्था से ग्रसित है जिसके तहत दलितों के साथ पशुवत व्यवहार किया जाता है अतः उन्होंने दलितों को हरिजन कह कर पुकारना शुरू किया और स्वयं उन्हीं की बस्ती में रहना गंवारा किया। बाबा साहेब ने हरिजन या अनुसूचित जातियों के हक में एक महासंघ की राजनीतिक इकाई की स्थापना की और 1945 में इसी के झंडे तले संविधान सभा का चुनाव मुम्बई से लड़ा जिसमें वह पराजित हो गये परन्तु बाद में बंगाल से एक प्रमुख सदस्य योगेन्द्र नाथ मंडल ने उनके लिए सीट खाली की और वह संविधान सभा के सदस्य चुने गये। संविधान सभा के संविधान लिखने से पहले यह प्रश्न खड़ा हुआ कि इसकी संरचना के लिए क्या दुनिया के माने हुए संविधान विशेषज्ञों की सेवाएं ली जायें?

इसका विरोध महात्मा गांधी ने किया और सुझाव दिया कि इसे लिखने के लिए भारतीय विद्वान बाबा साहेब की सेवाएं ली जायें। गांधी की इस इच्छा के अनुरूप ही कांग्रेस पार्टी ने बाबा साहेब को संविधान लिखने का जिम्मा दिया। गांधी यह भ​लीभांति जानते थे कि डा. अम्बेडकर के साथ कुछ मुद्दों पर उनके मतभेद हैं। इसका प्रमाण मुम्बई में जिन्ना-पेरियार- अम्बेडकर के बीच हुई वह वार्ता थी जो सात दिनों तक चली थी। इस बैठक के समय महात्मा गांधी ने मुहम्मद अली जिन्ना को जो पत्र लिखा वह भारत के इतिहास का मील का पत्थर है जिसमें उन्होंने राय दी थी कि जिन्ना पेरियार व अम्बेडकर को कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए अलग से एक राजनीतिक दल का गठन करना चाहिए।

गांधी चाहते थे कि अखंड भारत में यदि जिन्ना, पेरियार व अम्बेडकर की विचारधारा कांग्रेस से अलग है तो क्यों न एक राजनीतिक विकल्प खड़ा होना चाहिए, क्योंकि इन तीनों नेताओं की अपने-अपने समाज में काफी लोकप्रियता है। यदि हम वर्तमान राजनीति को देखें तो एेसा सुझाव केवल गांधी ही दे सकते थे। इसका प्रमाण यह है कि भारत के संविधान में वही सब कुछ लिखा गया जिसका वादा कांग्रेस पार्टी समय-समय पर करती आ रही थी। 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में सरदार पटेल की अध्यक्षता में नागरिकों को मौलिक अधिकार देने का वादा किया गया था। अतः संविधान में बाबा साहेब ने वही लिखा जिसका वादा कांग्रेस पार्टी लोगों से लगातार करती आ रही थी।

1928 में पं. मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में भारत का संविधान का प्रारूप लिखने के लिए एक समिति ग​िठत की गई थी जिसके सदस्य नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से लेकर पं. जवाहर लाल नेहरू व मौलाना आजाद जैसे नेता थे। बाद में 1946 में संविधान लिखने वाले सदस्यों के लिए मोती लाल नेहरू समिति की रिपोर्ट एक मोटा खाका बनी जिसमें प्रत्येक भारतीय स्त्री-पुरुष वयस्क को इकसार रूप से मताधिकार देने की सिफारिश थी। संविधान ने भी यही लिखा। इस समिति ने एक राष्ट्र के रूप में भारत को विभिन्न अंचलों का संघ भी कहा जिसे अंग्रेजों ने अपने 1935 के ‘भारत सरकार कानून’ स्वीकार किया वरना इससे पहले 1919 के भारत सरकार कानून के तहत अंग्रेजों ने भारत को विभिन्न जाति-वर्गों के जमावड़े के रूप में प्रस्तुत किया था और भारत को एक संघ या ढांचे का देश नहीं माना था।

यही वजह थी कि जब भारत से पाकिस्तान को मजहब की बुनियाद पर अलग किया गया, तो भारत स्थित ‘वायसराय लार्ड वावेल’ ने कहा था कि भारत में सेंट्रल एसेम्बली (संविधान सभा) के चुनाव 1935 के कानून के अनुसार नहीं बल्कि 1919 के कानून के तहत कराये गये हैं अब यदि मौजूदा स्थितियों में बाबा साहेब को लेकर चले विवाद को देखा जाये तो स्पष्ट है कि हम सब भारतीयों की रगों में वही संविधान दौड़ता है जिसे बाबा साहेब ही लिखकर गये हैं मगर बाबा साहेब के मुद्दे पर वर्तमान सत्ता पक्ष व विपक्षी दलों के बीच शब्दों की तलवारें खींची हुई हैं जिसका विस्तार संसद में कुछ अप्रिय घटनाओं तक हो चुका है।

दूसरी तरफ आज भी भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण तक में दलित जातियों के लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार होता है। बाबा साहेब चाहते थे कि भारत से जाति प्रथा का खात्मा होना चाहिए, क्योंकि इस प्रथा के चलते आज के भारत में भी दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार हो जाता है। अतः यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है कि बाबा साहेब ने 1926 के आसपास हिन्दू विधि पुस्तिका मनु स्मृति की प्रतियां जलाई थी। मनुस्मृति ही वह ग्रन्थ है जिसमें जाति को आधार मानकर मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव किया गया है और स्त्री पुरुष के अधिकारों को लेकर भेदभाव किया गया है। यह भेदभाव इतना गहरा है कि इसे मिटाने के लिए भी सदियां बीत सकती हैं।

अतः बहुत जरूरी है कि दलितों को उनके सामाजिक व आर्थिक अधिकार दिलाने के लिए संविधान में लिखी व्यवस्था के अनुसार आचरण किया जाए। निश्चित रूप से यह कार्य स्वतन्त्र भारत की राजनीतिक पार्टियों को ही करना होगा, क्योंकि उन्हीं में कोई एक या अधिक दल केन्द्र की सत्ता पर काबिज होते हैं। बाबा साहेब की विरासत भी उसी तरह महत्वपूर्ण है जिस तरह महात्मा गांधी की। बाबा साहेब भारत के औद्योगीकरण के प्रति उतने ही निष्ठावान थे जितने प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू उन्होंने भारत की मुद्रा रुपये पर ही विदेश से अर्थशास्त्र में पीएचडी की थी। वह मानते थे कि जैसे-जैसे भारत का औद्योगीकरण होता चला जायेगा। वैसे–वैसे ही जातिगत कुंठाएं समाप्त होती चली जायेंगी, मगर आज हम उसी विरासत पर दावा करने के लिए राजनीतिक युद्ध में उलझ गये हैं।

ध्यान रखा जाना चाहिए कि अम्बेडकर किसी एक वर्ग या जाति की धरोहर नहीं है बल्कि वह उस प्रत्येक भारतीय की धरोहर हैं, जो इस भू-भाग पर रहता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि उनकी धरोहर को हथियाने के लिए भारत में कुछ राजनीतिक दल बनते-बिगड़ते रहते हैं, यदि गौर से देखें तो भारत किसी गीता, कुरान या बाइबिल के भरोसे नहीं चलता है, बल्कि अम्बेडकर द्वारा लिखे गये संविधान के अनुसार चलता है। यह गांधी का ही फैसला था कि किसी दलित जाति में ही पैदा हुए विद्वान व्यक्ति से भारत का संविधान लिखवाया जाये और इस देश से ऊंच-नीच को समाप्त किया जाये। अतः अम्बेडकर को वर्तमान भारत का पूजनीय महापंडित या महर्षि ही कहा जायेगा।

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Rakesh Kapoor

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