बकरीद 2.0: मोबाइल पर दी गई बलि और जब कुर्बानी की जगह पेड़ लगाए गए
मोबाइल ऐप के जरिए दी गई बकरीद की बलि
ग्रीन बकरीद एक नई सोच है जो पारंपरिक कुर्बानी की जगह पर्यावरण की रक्षा और जरूरतमंदों की मदद पर जोर देती है। इस पहल को पेटा और शहरी मुस्लिम युवाओं का समर्थन प्राप्त है, जो पेड़ लगाकर ‘सेल्फी विद सैक्रिफाइस’ शेयर करते हैं। यह विचार धीरे-धीरे नवाचार की लहर की तरह फैल रहा है।
“ग्रीन बकरीद” कोई धार्मिक संप्रदाय नहीं, बल्कि एक सोच, एक वैकल्पिक नजरिया है। ये विचार मानता है कि जानवर की कुर्बानी से ज़्यादा जरूरी है प्रकृति की रक्षा, जरूरतमंदों की मदद और पर्यावरण को बचाना। इस पहल को पेटा, कुछ सामाजिक कार्यकर्ता और शहरी मुस्लिम युवा समर्थन दे रहे हैं। #GreenBakrid जैसे हैशटैग पर लोग पेड़ लगाकर ‘सेल्फी विद सैक्रिफाइस’ शेयर करते हैं। उनका मानना है कि अगर बकरी की जगह पौधा लगाया जाए या किसी गरीब को भोजन कराया जाए तो ईद का पैगाम कहीं ज़्यादा पवित्र हो सकता है। यह विचार पारंपरिक सोच से टकराता जरूर है, लेकिन धीरे-धीरे नवाचार की एक शांत लहर की तरह फैल रहा है।
वर्चुअल कुर्बानी: स्क्रीन पर बलि, ऐप से आस्था
कोविड-19 के दौर ने ईद को भी डिजिटल बना दिया। यही समय था जब “वर्चुअल बकरीद” जैसी संकल्पनाएं सामने आईं। आज कई वेबसाइट और मोबाइल ऐप्स के जरिए लोग ऑनलाइन जानवर खरीदते हैं, जिन्हें फार्म या संस्था द्वारा कुर्बान किया जाता है, और फिर मीट उन्हें घर भेजा जाता है या दान में दिया जाता है। कुछ प्लेटफॉर्म तो बलि की लाइव स्ट्रीमिंग भी करते हैं ताकि लोग देख सकें कि उनकी तरफ से कुर्बानी ठीक से हुई या नहीं। यह तरीका खासकर प्रवासी मुस्लिमों, कामकाजी युवाओं और भीड़ से बचने के इच्छुक लोगों के लिए बेहद सुविधाजनक बन गया है।
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किसे मिलेगा रोजगार का सहारा?
ईद-उल-अजहा न सिर्फ धार्मिक भावनाओं का पर्व है, बल्कि हज़ारों लोगों के लिए रोज़गार और बाजार की रौनक भी लाता है। बकरा मंडियों की चहल-पहल, ट्रांसपोर्ट, पशुपालन, चारा, और कारीगरी जैसे कई क्षेत्र इस एक त्योहार पर निर्भर होते हैं। कुर्बानी की परंपरा से हिंदू, मुस्लिम, दलित, आदिवासी और गरीब किसान तक को सालभर की मेहनत का फल मिलता है। यदि ग्रीन बकरीद या वर्चुअल कुर्बानी का चलन बढ़ता है तो इसका सीधा असर इन समुदायों की आर्थिक स्थिरता पर पड़ सकता है।