बलराज साहनी का यज्ञोपवीत और टैगोर की लाहौर यात्रा
यह बातें भले ही अविश्वसनीय लगें मगर तथ्य यहीं है कि वामपंथी एवं प्रगतिशील विचारों वाले बलराज साहनी और उनके छोटे भाई भीष्म साहनी को बचपन में ही उनके पिता लाला हरबंस लाल साहनी ने शुरूआती शिक्षा एवं संस्कारों के लिए गुरुकुल में भेजा था। वहां पर यज्ञोपवीत संस्कार के मध्य दोनों के बाल पूरी तरह मुंडवाए गए थे। बकायदा चोटी भी निकाली गई थी। भीष्म साहनी 1970-80 के दशक में एक बार अम्बाला छावनी आए थे तो उन्होंने बताया था कि वह कुछ समय वहां जीएमएन कॉलेज में पढ़ाते भी रहे थे। यद्यपि भीष्म अंग्रेजी साहित्य पढ़ाते थे, मगर कहानी लेखन हिंदी में करते थे। अम्बाला छावनी के माल रोड पर लम्बी सैर के मध्य उन्होंने बताया था, ‘बचपन में मुझे गुरुकुल में ऋजुपाठ कंठस्थ कराया गया था और भाई बलराज साहनी को ‘लघुकौमुदी’ कंठस्थ कराया गया था।
यज्ञापवीत के बाद दोनों भाइयों को कुछ दिनों तक परंपरा के अनुसार भिक्षापात्र लेकर भिक्षा मांगने के लिए भी जाना पड़ा था। बाद में हम दोनों को रावलपिंडी के एक आर्य स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया गया था। प्रारंभिक सरकारों की विचित्रता का उल्लेख करते हुए भीष्म साहनी ने बताया था कि एक बार आर्य समाज की अर्द्ध शताब्दी के अवसर पर पिता जी सारे परिवार को महर्षि दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद के टूटे-फूटे आवास में भी ले गए थे और हम दोनों भाइयों ने स्कूल में श्रवण कुमार के जीवन पर आधारित नाटक का मंच करने में भी लगाया गया था। भीष्म साहनी से मेरी मुलाकातें बाद में दिल्ली में भी हुई थीं, जब वह एक कहानी पत्रिका के सम्पादक थे। वैचारिक बदलाव कैसे किसी भी व्यक्ति के जीवन में बदलाव लाता है, इसका जीवंत विश्लेषण उन दिनों के साक्षात्कारों में भीष्म ने किया था।
उन्होंने वे दिन भी दोहराए जब गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, अपने बलराज साहनी को साथ लेकर शांति निकेतन के लिए धन संग्रह का लक्ष्य लेकर लाहौर भी आए थे और रावलपिंडी भी गए थे। उन्होंने बताया, तब टैगोर को शांति निकेतन के लिए लाहौर के जिन बड़े लोगों ने वित्तीय मदद दी थी उनमें स. दयाल सिंह मजीठिया (बाद में ट्रिब्यून-समूह के संस्थापक) और सर गंगाराम भी शामिल थे। वहीं पर ब्रैडला हाल में गुरुदेव को कविता पाठ के लिए भी आमंत्रित किया गया था और उनकी कुछ कविताओं का हिंदी व अंग्रेजी में अनुवाद हरिवंश राय बच्चन व उनकी जीवनसंगिनी तेजी बच्चन ने प्रस्तुत किया था।
फैज व एलिस और कासमी भी दर्शकों में मौजूद थे। उसी ब्रेडला हॉल में उदय शंकर व उनकी नृत्य मण्डली ने भी शांति निकेतन के लिए धन संग्रह हेतु अपनी प्रस्तुतियां दी थीं। बाद में यही ब्रेडला हॉल सरदार भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों की गतिविधियों का गुप्त ठिकाना भी बना। एक दिलचस्प संस्मरण यह भी था कि वहां की हीरामंडी की कुछ नृत्यांगनाओं और वेश्याओं ने भी गुरुदेव को शांति निकेतन के लिए अपनी ओर से कुछ नगदी व कुछ जेवर भेंट किए थे। उस दिन वहां गुरुदेव टैगोर द्वारा तत्कालीन वायसराय लार्ड चैम्स फोर्ड को लिखा गया 30 मई, 1919 का वह पत्र भी वितरित किया गया जिसमें उन्होंने लिखा था, 'अब समय आ गया है जब ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा प्रदान किए गए सम्मान, शर्मिंदगी का एहसास देने लगे और मैं अब संघर्षरत देशवासियों के साथ खड़ा होने में गर्व महसूस करता हूं और यह भी इतिहास में दर्ज है कि टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त 'नाइटहुड’ व सर की उपाधि भी जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार से आहत होकर लौटा दी थी।
इसी संदर्भ में गुरुदेव और बलराज साहनी के बीच हुआ वह संवाद भी चर्चा में बना रहा, जब बलराज साहनी ने गुरुदेव से स्नेहवश शिकायत की थी, 'आपने राष्ट्रगीत भी लिखे, राष्ट्रगान भी लिखे मगर 'विश्व गीत नहीं लिखा।’ तब गुरुदेव ने उत्तर दिया था, 'बलराज तुम शायद भूल गए, वह विश्व गीत तो लगभग 500 वर्ष पूर्व ही लिखा जा चुका है। तुम्हें याद होगा श्री गुरुनानक देव जी की ‘गगन में थाल... वाली आरती जो उन्होंने भाई मरदाना के साथ पुरी के जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में गाई थी। वह विश्व गीत ही तो था। अब उसके बाद तो कुछ भी लिखा जाना सम्भव कहां है?
उन दिनों गुरुदेव का एक चित्र लाहौर के ही एक फोटोग्राफर निरंजन सिंह नकोदरी ने खींचा था। एक चित्र में गुरुदेव, मिलाप के सम्पादक व आर्य समाजी नेता महाश्य खुशहाल चंद अपने मेजबान लाल धनीराम भल्ला व महात्मा हंसराज के साथ दिखाई दे रहे हैं। परिस्थितियां व ऐतिहासिक संदर्भ गवाह है कि वर्तमान लाहौर जहां इन दिनों कट्टर आतंकी गुटों का बोलबाला है, एक समय भी भारतीय संस्कृति, कला व साहित्य का मुख्य केंद्र था। इसी शहर में विवेकानंद के तीन दिन तक प्रवचन चले थे और गुरुदेव भी सात दिन ठहरे थे।