कश्मीर में किताबों पर प्रतिबंध : सेंसरशिप या जवाबी कदम?
जब भारत सरकार ने हाल ही में जम्मू एवं कश्मीर में कथित रूप से “आतंकवाद का महिमामंडन” करने और “अलगाववाद को उकसाने” वाली 25 किताबों पर प्रतिबंध लगाया, तो प्रतिक्रियाएं एक चिर-परिचित पटकथा के अनुरूप ही सामने आईं : सेंसरशिप के आरोप मढ़े गए, असहमति को दबा दिए जाने का डर जताया गया और असहज लगने वाले इतिहास को मिटा दिए जाने की चिंता जाहिर की गई लेकिन इन तमाम नारेबाजियों के परे एक गहरा सवाल है- उस संघर्ष में साहित्य की क्या भूमिका है, जहां खुद कहानियां ही अरसे से एक औजार बनी हुई हों? इस विवाद की जड़ें 1947 तक जाती हैं। पाकिस्तान के आधिकारिक इतिहास में, जम्मू एवं कश्मीर के भारत में विलय से पहले पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित कबाइली हमले को कम करके दिखाया गया है। तब से राज्य समर्थित संदेशों की एक धारा-1990 के दशक में मारे गए आतंकवादियों की प्रशंसा करने वाले रेडियो पाकिस्तान के प्रसारणों से लेकर हाल के वर्षों में आईएसआई द्वारा वित्तपोषित सोशल मीडिया पर चलने वाले अभियानों तक ने कश्मीर को विभाजन के एक “अधूरे” मसले के रूप में पेश करने की कोशिश की है।
भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की खोजबीन में कश्मीर के अलगाववादी समूहों को पाकिस्तान से धन मिलने का पता चला है, जिसका इस्तेमाल विरोध-प्रदर्शनों, प्रकाशनों और लोगों को लामबंद करने के अभियानों में किया जाता है। इस धन के अधिकांश हिस्से का उपयोग छात्रवृत्ति या सांस्कृतिक कार्यों की ओट में किया गया है, जिसकी बुनियाद पर ही किताबों पर लगाए गए हालिया प्रतिबंधों को उचित ठहराया गया है। इन प्रतिबंधित 25 कृतियों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर लेखकों की रचनाएं भी शामिल हैं। अरुंधति रॉय की ‘आजादी’ कश्मीर में भारत की सुरक्षा संबंधी मौजूदगी को औपनिवेशिक करार देती है लेकिन हथियारबंद उग्रवाद को बरकरार रखने में पाकिस्तान की भूमिका के बारे में शायद ही कोई बात करती है। हफ्सा कंजवाल की ‘कोलोनाइजिंग कश्मीर’ नाम की किताब कश्मीर को “उपनिवेशवादी बस्ती” के खांचे में रखती है तथा इसका मिलान इजराइल और फिलिस्तीन जैसी स्थिति से करती है जबकि आलोचकों का तर्क है कि यह किताब 1947 में हुए विलय के कानूनी आधार और बड़े पैमाने पर राज्य-प्रायोजित बसावट के अभाव को नजरअंदाज करती है।
क्रिस्टोफर स्नेडेन की ‘इंडिपेंडेंट कश्मीर’ अलगाव को एक राजनीतिक विकल्प के रूप में देखती है। इसके बारे में भारतीय अधिकारियों का तर्क है कि यह किताब अलगाववादी नजरिए को बौद्धिक विश्वसनीयता प्रदान करती है। विदेशों में होने वाली अकादमिक और नीतिगत बहसों में उद्धृत की जाने वाली ये कृतियां, वैश्विक स्तर पर प्रचारित उस कथानक को मजबूत करने में मदद करती हैं, जिसमें भारत को हमलावर, पाकिस्तान को पीड़ित तथा हथियारबंद समूहों को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेश किया जाता है। बेरोकटोक दुष्प्रचार के जोखिम अमूर्त और बेमतलब नहीं हैं। वर्ष 1989 से अब तक कश्मीर में 40,000 से अधिक जानें जा चुकी हैं और आतंकवादियों की भर्ती अक्सर वैचारिक सामग्री से जुड़ी रही है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण 2016 में देखने को मिला। हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद दक्षिण कश्मीर में “शहीद का सफर” नाम की एक पुस्तिका वितरित की गई। इस पुस्तिका में वानी को एक लोक नायक के रूप में पेश किया, जिसके परिणामस्वरूप महीनों तक अशांति फैली रही और 90 से अधिक लोग मारे गए व हजारों घायल हुए। अधिकारियों का तर्क है कि सबक बिल्कुल साफ है, कहानियां भी हथियारों जितनी ही घातक साबित हो सकती हैं।
हालांकि, विशेषज्ञ इस बात की चेतावनी देते हैं कि केवल प्रतिबंध ही काफी नहीं है। विकल्प मुहैया कराए बिना किसी एक खास किस्म की किताबों को दबाने से बौद्धिक जमीन खोने का खतरा है। आतंकवाद के खिलाफ खड़े होने वाले विद्वान 9/11 के बाद के उन अनुभवों की ओर ध्यान दिलाते हैं, जिसमें पश्चिमी देशों ने यह सीखा कि चरमपंथी दुष्प्रचार को खत्म करने के लिए केवल कानूनों को लागू करने की ही नहीं, बल्कि विश्वसनीय जवाबी नजरिए की भी जरूरत है। 1947 के कबाइली हमले और उसके बाद भारत में हुए विलय का अकादमिक स्तर पर पूरी गहराई से दस्तावेजीकरण किया जाये। उग्रवादी हिंसा के शिकार विभिन्न समुदायों के लोगों की पीड़ा को मुखर करने वाली कृतियों की रचना की जाये। कश्मीर के चुनिंदा या विकृत चित्रण को चुनौती देने वाले शोध संबंधी सहयोगों को प्रोत्साहित किया जाये।
मुख्य दुविधा यह बनी हुई है, विद्वत्ता आखिर कब दुष्प्रचार में बदल जाती है और इसका फैसला कौन करे? आलोचक जहां इन प्रतिबंधों को अधिकारों का अतिक्रमण मानते हैं, वहीं हदें तय करने के समर्थक इन्हें कश्मीर के मसले पर दशकों से चल रहे सूचना युद्ध में जरूरी सुरक्षा कवच मानते हैं। यह बिल्कुल साफ है कि कश्मीर की लड़ाई केवल युद्ध के मैदानों में ही नहीं लड़ी गई। यह लड़ाई पाठ्यपुस्तकों, पर्चों, रेडियो तरंगों और अब किताबों की अलमारियों एवं पुस्तकालयों में भी उतर आई है। ऐसे परिदृश्य में भारत का यह ताजा कदम बहस का अंत नहीं, बल्कि एक ऐसे संघर्ष की निरंतरता में है जहां शब्दों को ही हथियार के रूप में देखा जा रहा है।