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बंगलादेश का ताना-बाना और भारत

01:23 AM Aug 10, 2024 IST | Shera Rajput

बंगलादेश जाने का मुझे दो बार अवसर मिला। पहली बार में 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी के साथ गया और दूसरी बार 2018 में इस देश के राष्ट्रीय चुनाव की पूर्व बेला में राजनैतिक आंकलन करने। दोनों ही बार मुझे महसूस हुआ कि बंगलादेश सच्चा लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष देश है जिसमें हिन्दू निर्भय होकर रहते हैं। इस देश की विशेषता यह है कि यहां हिन्दू व मुसलमान दोनों ही बंगला संस्कृति को अपनी जीवन शैली मानते हैं। इस देश की राजधानी ढाका का नाम शहर में स्थित ढाकेश्वरी देवी के मन्दिर के नाम पर ही पड़ा। ढाका शहर के भीतर ही सड़कों के नाम से लेकर भवनों तक के नाम हिन्दू नामों पर हैं। पूरे शहर में लोग हिल-मिल कर रहते हैं।
2012 में जब स्व. प्रणव मुखर्जी बंगलादेश गये थे तो वह इस देश के एक गांव में भी गये थे जहां उनकी ससुराल के लोग रहते हैं। सुसराल पहुंचने पर प्रणव दा का भव्य स्वागत हुआ था और ग्राम निवासी सभी हिन्दू मुसलमानों ने उनकी आवभगत में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। परन्तु 2012 में ढाका के शाहबाग में युवाओं का आन्दोलन चल रहा था औऱ वे मांग कर रहे थे कि 1971 के मुक्ति युद्ध में पाकिस्तानी फौजों का साथ देने वाले गद्दारों को फांसी पर लटकाया जाना चाहिए। बाद में जाकर उन लोगों को फांसी की सजा ही हुई मगर उस दौरान शाह बाग में भारतीय फइलमी गायक भूपेन हजारिका का यह गीत गाया जा रहा था कि ‘युद्ध चाहे कि बुद्ध’। यह सुन-देख कर एक भारतीय को रोमांच होना स्वाभाविक था। इसके साथ ही अन्य भारतीय बंगला कलाकारों के गाने भी बंगला भाषा में चल रहे थे।
2018 के चुनावों में अवामी लीग की नेता व प्रधानमन्त्री शेख हसीना वाजेद का जीतना लगभग निश्चित माना जा रहा था हालांकि उनकी विरोधी बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की नेता बेगम खालिदा जिया तब भी चुनावों का बहिष्कार करने की बात कर रही थीं। बंगलादेश 1947 में पूर्वी पाकिस्तान जरूर बन गया था मगर वहां के मुस्लिम बहुसंख्या के लोग बंगला संस्कृति को अपनी प्रथम वरीयता पर रखते थे। जब पाकिस्तान निर्माता जिन्ना 1948 में ढाका यात्रा पर गये थे तो कह कर आ गये थे कि पूरे पाकिस्तान की राजकीय भाषा उर्दू ही होगी। इसका बंगालियों ने बहुत बुरा माना था और पाकिस्तान से अलग होने का बीज तभी पड़ गया था।
बंगालियों को अपनी भाषा व संस्कृति से बहुत प्रेम होता है। यही वजह रही कि 1971 में बंगलादेश का निर्माण भाषा की वजह से ही हुआ। हालांकि इसके राजनैतिक कारण कुछ औऱ भी थे । इनमें सबसे प्रमुख था कि पाकिस्तान की राष्ट्रीय एसेम्बली के 1970 में हुए चुनावों में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग पार्टी के पूर्ण बहुमत पा जाने के बावजूद उन्हें संयुक्त पाकिस्तान का प्रधानमन्त्री न बनाया जाना। इसके बाद ही बंगलादेशियों ने पाकिस्तान से मुक्ति पाने के लिए आन्दोलन चलाया जो बाद में सशस्त्र संघर्ष में परिवर्तित हुआ औऱ बंगलादेश मुक्ति वाहिनी का गठन हुआ। 2012 व 2018 दोनों ही दौरों के दौरान मैंने बंगलादेश की कट्टरपंथी राजनैतिक पार्टी जमाते इस्लामी को भी सक्रिय देखा परन्तु इसका प्रभाव नगण्य ही कहा जा सकता था। कुछ बड़ी उम्र के लोगों तक ही इसका प्रभाव था। बंगलादेश की परंपरा के अनुसार उनका वार्षिक कलेंडर इस्लामी नहीं होता बल्कि बंगला होता है। जिसमें पहला पौष बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस दिन सभी हिन्दू मुसलमान तस्वीरें लेकर जुलूस निकालते हैं। और पौष मास के पहले दिन को उत्सव रूप मे मनाते हैं। बोलचाल की भाषा में मुसलमान बन्धू आपको कहते मिलेंगे कि ‘अल्लाह महान है’। बंगलादेश के किसी भी हिस्से में आप चले जाइये वहां आपको हिन्दू मन्दिर जरूर मिल जायेंगे।
बंगलादेश की सरकार अपने पुराने हिन्दू मन्दिरों और बौद्ध विहारों को अपनी राष्ट्रीय धरोहर मानती है। इस देश के ‘काक्स बाजार’ इलाके में जहां दस लाख से अधिक म्यामांर के रो​िहंग्या मुस्लिम शरणार्थी रहते हैं, कई एेसे हिन्दू मन्दिर हैं जिनके लिए मुसलमानों ने अपनी जमीनें दी हैं। अतः शेख हसीना का तख्ता पलटे जाने के बाद वहां जिस प्रकार कुछ स्थानों पर हिन्दुओं को निशाना बनाया गया औऱ एक-दो स्थानों पर हिन्दू मन्दिरों को भी लक्ष्य किया गया वह जमाते इस्लामी जैसी पार्टी के प्रभाव का ही द्योतक लगता है। जमाते इस्लामी पार्टी पर शेख हसीना ने कई बार प्रतिबन्ध लगाया था। इस देश में आधा दर्जन बार रहे सैनिक शासन के दौरान कट्टरपंथी ताकतों को खूब फलने-फूलने का मौका ​िदया गया और इसी दौरान बंगलादेश का राजधर्म भी इस्लाम घोषित कर दिया गया। मगर शेख हसीना ने अपने शासन के दौरान हिन्दू भावनाओं का सदैव आदर किया और बंगालियों के दुर्गा पूजा उत्सव को पूरा संरक्षण दिया। यहां तक कि पूजा के दिनों मे वह ढाका के ढाकेश्वरी मन्दिर भी जाती थी।
स्व. प्रणव मुखर्जी ने 2012 में जब ढाका विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह को अंग्रेजी के स्थान पर बंगला में सम्बोधित किया तो छात्रों में उत्साह देखने वाला था। इस अवसर पर सर्वप्रथम एक मौलवी ने प्रार्थना की उसके बाद एक हिन्दू पंडित ने और बाद में बौद्ध भिक्षु ने। बंगलादेश की यह मूल संस्कृति शेख हसीना के शासन काल में पूरी तरह सुरक्षित रही। मगर देश में लोकतन्त्र होते हुए भी हमेशा सेना का डर भी बना रहा क्योंकि सेना व इस्लामी कट्टर पंथियों की भीतर खाने साठ- गांठ मानी जाती थी। चाह कर भी शेख हसीना एेसे तत्वों के विरुद्ध कठोर कदम नहीं उठा सकती थीं क्योंकि हमेशा सेना के सक्रिय होने का भय लगा रहता था।
वैसे शेख हसीना ने अपने देश की धरती का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए कभी नहीं होने दिया और पाकिस्तानी आई एस आई की शह पर गठित आतंकवादी संस्था इंडियन मुजाहीदीन को समाप्त कर दिया। यह संस्था बेगम खालिदा के शासनकाल में खूब पनपी थी क्योंकि वह भी पांच साल इस देश की प्रधानमन्त्री रही थीं। बंगलादेश में वर्तमान में जो तख्ता पलट हुआ है उसके पीछे पश्चिमी विदेशी ताकतों का हाथ माना जा रहा है। इन ताकतों ने इस देश के कट्टर पंथियों को बारस्ता पाकिस्तान बढावा दिया । जमाते इस्लामी के लोग पाकिस्तान परस्त समझे जाते हैं और इस्लामी जेहाद की बात करते हैं।
जमात के लोग सैनिक शासन और बेगम खालिदा के शासन के दौरान सरकारी महकमों में भी घुस गये थे। ये तत्व वर्तमान में छात्र आन्दोलन के दौरान भी प्रवेश कर गये और इन्होंने बंगलादेश मुक्ति संग्राम की धरोहर को आग की भेंट चढ़ाने में और लूटपाट मचाने में भी कोई कसर नहीं छोङी और हद तो तब हो गई जब इन लोगों ने शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा को ही धराशायी कर दिया और उस मूर्ति को अपवित्र तक किया। परेशानी यह है कि बंगलादेश की वर्तमान आबादी 50 प्रतिशत उन लोगों की है जिनका जन्म 1971 के बाद हुआ है अतः इन्हें अपने पुरखों के बलिदान के बारे में कोई अनुभव नहीं है। यही वजह रही कि ये पीढ़ी सरकारी नौकरियों में मुक्ति योद्धाओं के परिवारों को मिले आरक्षण का विरोध कर रही थी। बंगलादेश में अब अंतरिम सरकार है वैसे पहले भी 2006 से 2008 तक इस देश में अंतरिम सरकार रही है जिसके बाद यहां लोकतन्त्र आया था। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में गठित अंतरिम सरकार अपने देश में लोकतन्त्र की पुनः बहाली जल्दी ही करेगी और अत्याचार के दौर का अन्त करेगी।

- राकेश कपूर

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