बरेली की हिंसा और चुन्ना मियां
उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में ‘आई लव मोहम्मद’ नारे को लेकर जो कोहराम मचा हुआ वह पूरे भारत की संलिष्ठ संस्कृति ( कम्पोजिट कल्चर) के विरुद्ध ही नहीं बल्कि नैतिक आचार के भी विरुद्ध है। जहां तक बरेली का सम्बन्ध है तो यह शहर एक तरफ जहां इस्लाम के एक फिरके का मुख्यालय है तो दूसरी तरफ स्व. फजलुर रहमान उर्फ चुन्ना मियां द्वारा बनाये गये लक्ष्मी-नारायण मन्दिर का भी साक्षी है। बरेली के साहूकारा मोहल्ले में बने इस मन्दिर के लिए चुन्ना मियां ने अपनी जमीन दी, बल्कि पचास के दशक में मन्दिर निर्माण के लिए एक लाख एक रुपये की आर्थिक मदद भी की। मन्दिर निर्माण के समय खुद चुन्ना मियां ने इस मन्दिर के लिए कारसेवा भी दी। मन्दिर में चुन्ना मियां की तस्वीर भी लगी हुई है। यह इस बात का सबूत है कि भारत के मुसलमान भी सामाजिक एकता के लिए पूरी तरह संवेदनशील रहे हैं और हिन्दू संस्कृति के प्रति भी उनका आदर भाव रहा है। चुन्ना मियां का जीवन एक सन्त जैसा था जिनके लिए सभी हिन्दू-मुसलमान सच्चे भारतीय थे। 1960 में जब यह मन्दिर चुन्ना मियां बनवा रहे थे तब भारत के पहले राष्ट्रपति स्व. राजेन्द्र प्रसाद ने भी अपनी शुभ कामनाएं चुन्ना मियां को दी थीं। अतः जिस शहर की विरासत इतनी बुलन्द हो उसमें हिन्दू-मुसलमानों के बीच भाईचारे को नजरअन्दाज करना मूर्खता होगी। मगर हम यह भी जानते हैं कि आजादी के बाद भारत में रह रहे मुसलमानों के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ और इस पूरी कौम को मुल्ला-मौलवियों व इस्लामी आलिमों के भरोसे छोड़ दिया गया। इसके चलते यह समाज शेष भारतीयों की प्रगति के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल सका। इसका प्रमाण पिछली मनमोहन सिंह सरकार द्वारा मुस्लिमों की माली हालत जानने के लिए गठित सच्चर कमेटी की वह रिपोर्ट है जिसमें खुलासा किया गया था कि मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति के लोगों से भी ज्यादा खराब है। बेशक इंसान का पहला धर्म इंसानियत ही होता है जिसके बाद दुनियादारी में पहचान दिलाने वाले दूसरे धर्म आते हैं। मगर एक सप्ताह पहले गुजरे दिन शुक्रवार को बरेली के मौलाना तौकीर रजा ने ‘आई लव मोहम्मद’ की आड़ में जिस प्रकार साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की उससे यही सन्देश गया कि इस्लाम बजाये शान्ति के उग्रता का परिचय देता है जबकि यह पूरी तरह गलत है।
इस्लाम धर्म दुनिया का एेसा धर्म है जिसमें समाजवादी पुट है, क्योंकि पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब सलै-अल्लाह-अलै-वसल्लम फरमा कर गये हैं कि अपने पड़ौसी का हमेशा ध्यान रखो और देखो कि उसके घर में खाना पका है कि नहीं। इसके साथ रमजान के मौके पर रोजा रखने के साथ ही हर मुसलमान को यह हिदायत है कि वह समाज के गरीब तबके के लोगों की जिन्दगी को खुशहाल बनाने के लिए अंशदान या जकात दे। एेसा धर्म हिंसा की वकालत कभी नहीं कर सकता। इसी वजह से 1922 के करीब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यंग इंडिया व 1941 के करीब हरिजन पत्र में लिखा कि इस्लाम मूलतः शान्ति का धर्म है। मगर दिक्कत यह है कि मुल्ला-मौलवियों व आलिमों ने इसकी आक्रामकता के पुट को उभारा और इस पर कयामत यह हुई कि पिछली सरकारों ने केवल मुसलमानों के धार्मिक तुष्टीकरण को ही अपना कर्त्तव्य मान लिया। इस पर तुर्रा यह लग गया कि 1947 में केवल मजहब की बुनियाद पर ही मुसलमानों के लिए अलग से पाकिस्तान बनवा कर अंग्रेज सरकार लन्दन चली गई। यह एेतिहासिक तथ्य है कि 1857 के पहले स्वतन्त्रता युद्ध के बाद अंग्रेजों ने हिन्दू-मुसलमानों के बीच घृणा के बीज बहुत गहरे जाकर बो दिये और बीसवीं सदी में 1906 में मुस्लिम लीग बनवा कर और 1908 में मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव मंडल घोषित करके भारत की संलिष्ठ संस्कृति को भीतर से ही लहूलुहान कर डाला। अंग्रेज यहीं नहीं रुके 1919 में उन्होंने सिख नागरिकों लिए भी पृथक चुनाव मंडल बना डाला।
स्वतन्त्र भारत की विडम्बना यह रही कि मुस्लिम समाज में शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया और मुस्लिम कट्टरपंथियों ने पूरी कौम को ही अनपढ़ बनाये रखने में पूरी शक्ति लगा दी जिससे उनकी सियासी दुकानदारी फलफूल सके। बरेली में जिस तरह विगत शुक्रवार को मौलाना तौकीर रजा ने दंगा भड़काने का प्रयास किया वह गवाही दे रहा है कि मुस्लिम कौम को धर्म के नाम पर बहलाना-फुसलाना कितना आसान हो सकता है। भारत के मुसलमानों को याद रखना चाहिए कि स्वतन्त्र भारत में वे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से उतने ही लैस होते हैं जितना कि कोई हिन्दू नागरिक। अतः उन्हें भूलकर भी आवेश में आकर किसी मुल्ला या मौलवी के चढ़ाये में नहीं आना चाहिए और न किसी दूसरे सम्प्रदाय के प्रति वैरभाव रखना चाहिए। सभी भारतीय हैं और इस वैभवशाली भारतीय धरा पर निवास करते हैं। जहां तक हिन्दुओं का प्रश्न है तो उन्हें भी संविधान के दायरे में रह कर अपनी धार्मिक भावनाओं का इजहार करना चाहिए और किसी भी सूरत में दूसरे धर्म के अनुयाइयों के प्रति अनादर व अपमान का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। बीते दशहरे व नवरात्रे के अवसर पूरे भारत में रामलीलाओं का मंचन होता है जिसमें मुस्लिम नागरिक भी पूरी खुशी के साथ कलाकार बन कर भाग लेते हैं। क्योंकि कलाकार सिर्फ रंगकर्मी ही होता है। बरेली में जिस तरह जुम्मे की नमाज के बाद हिंसा भड़की उसके लिए धर्मनिरपेक्ष भारत में कोई जगह नहीं हो सकती। भारत तो वह देश है जिसमें गुरु नानक देव जी महाराज भी हुए और कबीरदास जैसे महान सन्त भी। भारत की विविधता का वर्णन जितनी संवेदनशीलता के साथ नानकवाणी में किया गया है उसका मुकाबला क्या कोई कर सकता है। यह वाणी इस प्रकार है-
कोई बोल्लै राम-राम कोई खुदाये
कोई सेवे गुस्सैयां, कोई अल्लाये
कारन कर करण करीम, किरपाधार तार रहीम
कोई न्हावै तीरथ, कोई हज जाये
कोई करे पूजा, कोई सिर नवाये
कोई पढ़ै वेद, कोई कछेद
कोई औढे़ नील, कोई सफेद
कोई कहे तुरक, कोई कहे हिन्दू
कोई बांचै बहिश्त, कोई सुर बिन्दू
कहै नानक जिन हुकुम पछाया प्रभु साहब के तिन भेद पाया।