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भारत का ‘बुनियादी’ लोकतंत्र

आलोचना, निन्दा व विरोध उसी मतभिन्नता को लोकतन्त्र का अहिंसक हथियार बनाते हैं जिसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार रूप में हमारे संविधान में उल्लिखित किया गया है।

04:49 AM Oct 06, 2019 IST | Ashwini Chopra

आलोचना, निन्दा व विरोध उसी मतभिन्नता को लोकतन्त्र का अहिंसक हथियार बनाते हैं जिसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार रूप में हमारे संविधान में उल्लिखित किया गया है।

भारत के लोकतन्त्र की बुनियाद विचार विभिन्नता के तहत जायज ‘मतभिन्नता’। संविधान का शासन और राजनैतिक जवाबदेही इस प्रकार रखी हुई है कि जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की काबिज किसी भी राजनैतिक दल की सरकार ‘लोक संरक्षण’ के उन नियम व कायदे से हर सूरत में बन्धी रहे जिन्हें संविधान में मूल, मौलिक व संवैधानिक अधिकारों के दायरे में व्याख्यायित किया गया है। इस परिवेश में किसी भी राजनैतिक दल की विचारधारा वह बन्धन नहीं तोड़ सकती जिसकी सीमा संविधान बांधता है और प्रत्येक सियासी पार्टी को सत्तारूढ़ पार्टी बनने के लिए नियम निर्देशित करता है। 
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आलोचना, निन्दा व विरोध उसी मतभिन्नता को लोकतन्त्र का अहिंसक हथियार बनाते हैं जिसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार रूप में हमारे संविधान में उल्लिखित किया गया है। संसदीय प्रणाली में ‘पक्ष व विपक्ष’ की संरचना का मुख्य उद्देश्य अभिव्यक्ति की इसी स्वतन्त्रता को सर्वदा जागृत रखने व ऊर्जावान बनाये रखने से है। इसके साथ ही संविधान या कानून का शासन ऐसी शर्त है जिसका पालन करने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका की पुख्ता नींव डालकर तय किया कि सत्ता किसी भी सूरत में मदहोश होकर संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने के दायरे से बाहर न जा सके और कानून की अनुपालना में स्वयं भी किसी प्रकार की कोताही न बरत सके। 
अतः राज्य स्तर से लेकर केन्द्र तक स्थापित पूरे तन्त्र को स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद महीन ‘कशीदाकारी’ करके जिस लोकतान्त्रिक प्रणाली को स्थापित किया गया उसमें कानून और अभिव्यक्ति की इस तरह सजावट की गई कि दोनों एक-दूसरे की ‘हिफाजत’ करते हुए चलें। यह अन्तर सम्बन्ध इतना अनूठा और पवित्र है कि इसके लागू रहते ही भारत में विभिन्न विचारधाराओं के राजनैतिक दलों को सत्तारूढ़ करने का आम जनता ने समय-समय पर फैसला किया। अतः सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि मत भिन्नता और कानूनी सीमा हमारे लोकतन्त्र का वह ‘बहुरंगी’ स्वरूप है जो लोकमत को निर्भय बनाते हुए अपने मनमाफिक प्रतिनिधियों को चुनने की प्रेरणा देता है। अतः लोकतन्त्र में इससे समझौता किसी भी तौर पर संभव नहीं है। 
भारत में जब भी इस सिद्धान्त से समझौता करने की कोशिश की गई है तभी इसके दुष्परिणाम हमें भुगतने पड़े हैं क्योंकि लोकतन्त्र भारत की धरती का सदियों से ‘खाद-पानी’ रहा है। यहां तक कि राजतन्त्र में भी लोकतन्त्र का वह जोर हमें देखने को मिलता रहा है जिसमें मुगल बादशाहों तक को अपने राजदरबार में संस्कृत के विद्वानों से लेकर व्यापार जगत की सिरमौर हस्तियों को रखना पड़ता था। अतः यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हर दौर में खासकर घोषित रूप से लोकशाही के इस दौर में हम हर स्तर पर भारत की धरती की इस विशेषता का सम्मान करें और हर हाल में जनता को आश्वस्त रखें कि आजाद मुल्क के लोग आजादी के पहले सिपाही हैं। 
दुर्भाग्य से मुम्बई की आयकर विभाग की मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) रहीं श्रीमती अल्का त्यागी ने कर विभाग (सेंट्रल बोर्ड आफ टैक्सेज) के चेयरमैन प्रमोद चन्द्र मोडी के खिलाफ जो आरोप लगाये हैं वे कानून के पालन में राजनैतिक आक्षेपों की तह में दबे हुए हैं। सबसे संगीन आरोप यह है कि प्रमोद चन्द्र ने अपने कार्यकाल को एक वर्ष बढ़ाये जाने के लिए विपक्ष के एक नेता के खिलाफ की गई कार्रवाई को जरिया बनाया। इससे भी सनसनीखेज यह है कि प्रमोद चन्द्र ने श्रीमती अल्का त्यागी पर आयकर चोरी के कुछ संजीदा मामलों को रफा-दफा करने के लिए दबाव डाला और निर्देश दिया कि ऐसे मामलों का कोई रिकार्ड आदि नहीं रखा जाना चाहिए और इस मुतल्लिक की गई सारी जांच को निपटा दिया जाना चाहिए। 
यह मामला कानून को ही ‘गैरकानूनी’ बनाने का है जिसकी बहुत सख्ती से जांच की दरकार प्रत्येक नागरिक को रहेगी क्योंकि श्रीमती त्यागी ने अपनी शिकायत की अर्जी वित्त मन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमण से लेकर प्रधानमन्त्री कार्यालय और मुख्य सतर्कता आयुक्त के कार्यालय तक को दे दी है। आयकर व अन्य प्रत्यक्ष करों के विभाग का मुखिया यदि यह कहता है कि उसने अपने पद को पक्का करने के लिए राजनैतिक कार्रवाई की है तो उसे यह व्यवस्था किस प्रकार बर्दाश्त कर सकती है? इससे पूरे वित्त मन्त्रालय की विश्वसनीयता ही सन्देह के घेरे में आ सकती है।विचारणीय यह भी है कि श्रीमती अल्का त्यागी के पति के कारोबार के मामले में जो भी कर जांच व सीबीआई जांच हुई उसमें वह पाक-साफ पाई गईं। 
अतः प्रमोद चन्द्र इसे लेकर बकौल अल्का त्यागी उन्हें ‘ब्लैकमेल’ तक करने की जुर्रत कैसे कर सकते हैं। अतः बहुत जरूरी है कि न केवल कानून अपना काम करे बल्कि काम करता हुआ भी आम जनता को दिखाई दे। इसका सम्बन्ध किसी राजनैतिक दल से नहीं बल्कि कानून से है हालांकि प्रमोद चन्द्र ने इसे राजनैतिक रंग देने का करतब जरूर किया है। इसी के साथ मत भिन्नता से जुड़ा मामला उन 49 मशहूर हस्तियों का है जिनके खिलाफ बिहार के मुजफ्फरपुर के सत्र न्यायालय ने राजद्रोह के मामले में मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया है और पुलिस ने एफआईआर दर्ज करके इसे अंजाम भी दे दिया है। यह मामला मत भिन्नता या विचार भेद का है जिसमें साहित्य व कला से लेकर रंगकर्म आदि से जुड़ी नामवर हस्तियां अदूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, रामचन्द्र गुहा, अपर्णा सेन, कोंकणा सेन आदि  शामिल हैं। 
इनके खिलाफ एक स्थानीय वकील ने अदालत मंे शिकायत दर्ज की थी कि इन सभी ने देश में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर लोगों की हत्या (माब लिंचिंग) के खिलाफ प्रधानमन्त्री के नाम खुला पत्र लिख कर ‘देशद्रोह’ का काम किया है। चीफ ज्यूडीशियल मैजिस्ट्रेट ने इसी शिकायत पर फैसला देते हुए इन हस्तियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के आदेश दिये और पुलिस ने एफआईआर दर्ज करके अपनी मुस्तैदी भी दिखा दी। माब लिंचिंग के खिलाफ भारत का प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति है और स्वयं प्रधानमन्त्री भी इसके सख्त खिलाफ हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी इस शैतानियत को समाप्त करने के लिए सरकार को कानून बनाने की हिदायत दे चुका है परन्तु जिला अदालत ने इसे राजद्रोह की क्षेणी में डाल दिया। 
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मोदी सरकार के 2014 में सत्ता में आने पर इसके वित्त मन्त्री स्व. अरुण जेटली के खिलाफ भी उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के महोबा के एक सिविल जज श्री अंकित गोयल ने उन पर ‘राजद्रोह’ का मुकदमा चलाये जाने का आदेश दिया था क्योंकि श्री जेटली ने ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ के गठन को रद्द किये जाने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की कटु आलोचना की थी। फर्क केवल यह था कि  स्व. जेटली के मामले में जज महोदय ने उनके वक्तव्य का स्वतः ही संज्ञान लेकर उनके खिलाफ कार्रवाई की थी परन्तु कानून की नजर में शिकायत या स्वतः संज्ञान से कोई फर्क नहीं पड़ता है। 
अतः जेटली के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जज द्वारा की गई कार्रवाई  को न केवल निरस्त किया था बल्कि उसे जज साहब के ‘अधिकार क्षेत्र’ से भी बाहर का बताया था। इसकी वजह यही थी कि संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार की विवेचना किसी पुलिस थाने के दायरे और दिमाग में नहीं समा सकती। सवाल किसी के कांग्रेसी या कम्युनिस्ट होने का नहीं है बल्कि संविधान के तहत इसका पालन करने वाले नागरिक का है। यही तो हमारी सबसे बड़ी ताकत है जिसने हमें लगातार चौतरफा तरक्की की मीनारों पर बैठाया है। हम जब भारत माता की जय बोलते हैं तो इसकी मिट्टी को माथे पर लगाकर इसकी सुगन्ध से सुवासित होते हैं।
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