बट्टे खाते के बैंक ऋण
NULL
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर श्री रघुराम राजन ने भारत के बैंकों की खराब स्थिति के लिए जो कारण बताए हैं उनका राजनीतिकरण किसी भी सूरत में न करते हुए एेसे उपाय किए जाने चाहिएं जिससे भारतीय वित्त व्यवस्था के पुख्ता आधार स्तम्भों को मजबूत रखा जा सके। यह किसी सूरत में नहीं भूला जाना चाहिए कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने भारत के औद्योिगकरण से लेकर इसके विश्व व्यापार में पहचान दर्ज करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अभी उस समय को गुजरे हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है जब 2008 में विश्व मन्दी के चलते यूरोपीय देशों समेत अमेरिका के बैंक धराशायी हो गए थे और वहां की सरकारें उन्हें बचाने के लिए इस प्रकार दौड़ी थीं कि उन्हें करोड़ों डालर की धनराशियां पूंजी की सुलभता के लिए उपलब्ध कराई गई थीं। उस दौर में भारत की पूरी बैंकिग व्यवस्था चट्टान की तरह मजबूत खड़ी रही थी। यह वह दौर था जब यूरोप के बैंकों से वहां के नागरिक अपनी जमा पूंजी निकालने के लिए बदहवास हो रहे थे। उस समय मनमोहन सरकार में पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी नए-नए वित्तमन्त्री बने थे और उन्होंने लोकसभा में घोषणा की थी कि भारत के लोगों को डरने की कोई जरूरत नहीं है, उनकी जमा पूंजियां सार्वजनिक क्षेत्र से लेकर निजी बैंकों में पूरी तरह सुरक्षित हैं। भारत का बैंकिंग उद्योग इस संकट को पार करने में पूरी तरह समर्थ है।
यह भारत का वित्तमन्त्री जरूर बोल रहा था मगर भारत का वह आत्मविश्वास मुखर हो रहा था जिसने 1969 में प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर औद्योगिक क्षेत्रोंं का कायाकल्प किया था। तब यह एेलान हुआ था कि बैंकों में जमा पूंजी पर केवल उद्योगपतियों और धन्ना सेठों का एकाधिकार नहीं हो सकता और इनके दरवाजे किसानों से लेकर लघु व छोटे उद्यमियों और दुकानदारों के लिए भी खुलने चाहिएं। तभी यह तय किया गया कि प्रत्येक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक को ऋण देने के लिए वरीयता क्षेत्र को महत्व देना होगा और यह क्षेत्र कृषि व ग्रामीण क्षेत्र होगा। अतः वर्तमान में यदि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की दुर्दशा बड़े उद्यमियों या व्यापारियों को दिए गए भारी ऋणों के वसूली न होने वाले कर्जे में बदली है तो इसके लिए हम उस प्रणाली को ही दोषी मानेंगे जिसने बैंकों को अपने लाभ प्रदाता के सिद्धांत को प्रतियोगी माहौल में ताक पर रखने के लिए उकसाया। श्री रघुराम राजन ने इसी तरफ अपनी उस रिपोर्ट में इशारा किया है जो उन्होंने संसद की प्राक्कलन समिति को सौंपी थी। यह रिपोर्ट उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता डा. मुरली मनोहर जोशी के इसरार पर ही तैयार की थी।
डा. जोशी इस समिति के चेयरमैन हैं। अतः यह मामला किसी भी तरह राजनीति के दायरे में नहीं आता है। दरअसल बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में वित्तीय पोषण का बाजार जिस तरह प्रतियोगी बना और निजी बैंकों की इसमें जिस तरह भागीदारी बढ़ी उसने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के सामने एक नई चुनौती फैंकी। यह चुनौती दुधारी तलवार थी। क्या वह दिन भूला जा सकता है जब वाजपेयी सरकार के विनिवेश मन्त्री श्रीमान अरुण शौरी ने एक सरकारी होटल को बेचने के लिए उसके खरीदार के लिए कई बैंकों का ऋण प्रदाता समूह तैयार किया था। यह अद्भुत मामला था जिसमें सरकार ही बिकवाल थी और अपनी सम्पत्ति की खरीदारी के लिए पैसे का जुगाड़ भी वह स्वयं बैंकों का समूह बनाकर तैयार कर रही थी। श्री रघुराम राजन ने बैंकों के निष्क्रिय ऋणों के लिए कुछ एेसे कारण भी बताये हैं जो बहुत ही व्यावहारिक हैं।
मसलन जिस समय देश की अर्थव्यवस्था कुलांचे भर रही थी और विकास वृद्धि दर आठ के करीब थी तो उस समय बैंकों ने ऋण देने के मामले में इस तरह लापरवाही बरती कि उद्यमियों ने अपनी फैक्टरी या परियोजना के लिए पूंजीगत माल की कीमतें बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश कीं (ओवर इनवायसिंग करके) और बैंकों के अधिकारियों ने इस पर ध्यान दिए बिना ही ऋण स्वीकृत किए। इसके साथ ही कुछ बैंकों के प्रमुखों के कार्यकाल में ऋण स्वीकृत करने की वजह से ही लाभ में चलने वाले बैंकों की स्थिति खराब हो गई। उन्होंने एेसे बैंक प्रमुखों की निजी सम्पत्ति की जांच कराने की सिफारिश भी की है। इसके साथ ही उन्होंने नए दिवालिया कानून को भी सावधानी के साथ लागू करने और इसकी विश्वसनीयता बनाये रखने पर जोर दिया है और कहा है कि किसी भी कम्पनी के दिवालिया होने की स्थिति में उसके नियोजकों या प्रमोटरों को उसके जर्जर होने पर दिवालिया घोषित होने से पहले ही उसकी पुनरुद्धार योजना के लिए सौदेबाजी करने की इजाजत दी जानी चाहिए न कि उसके दिवालिया होने के बाद प्रमोटरों द्वारा दूसरे रास्ते से किसी नई कम्पनी या प्रमोटर फर्म बनाकर उसके रास्ते से अपनी मनपसन्द कीमत पर िदवालिया कम्पनी को खरीदने का जुगाड़ करना चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है कि श्री राजन ने भविष्य में निष्क्रिय ऋणों के पैदा होने की संभावनाओं की तरफ भी सरकार को चेताया है और कहा है कि मुद्रा ऋण एेसा क्षेत्र है जिसकी तसदीक की जानी चाहिए और किसान क्रेडिट कार्ड की विश्वसनीयता भी परखी जानी चाहिए।
साथ ही सिडबी (राज्य सरकारों के ऋण प्रदाता बैंक) द्वारा लघु व मध्यम श्रेणी के उद्योगों को दिए जा रहे ऋणों को भी हम हल्के में नहीं ले सकते हैं। जाहिर है कि इस प्रकार के ऋणों के वितरण में राजनीतिक हस्तक्षेप सरकारों की लोकप्रियता की कीमत तक पर आंख मींच कर किया जाता है जिसके चलते सुपात्र और कुपात्र का भेद मिट जाता है परन्तु अन्ततः कीमत सरकारी बैंकों को ही चुकानी पड़ती है क्योंकि सिडबी का वित्तीय पोषण उन्हीं की मार्फत होता है। ये सब एेसे क्षेत्र हैं जिन्हें हम वित्तीय स्वास्थ्य की कसौटी पर रखकर ही जांचेंगे और देखेंगे कि एक ओर सरकारी स्कीमों का लाभ केवल सुपात्रों तक ही पहुंचे और दूसरी तरफ बैंकों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव न पड़े।