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चीन को कूटनीति से मारो !

चीन के साथ भारत सम्बन्धों को लेकर जरा सी गफलत या लापरवाही की गुंजाइश आजाद भारत में शुरू से ही नहीं रही है। इसकी तरफ 1950 में ही सरदार पटेल ने पं. जवाहर लाल नेहरू का ध्यान दिला दिया था

12:32 AM Jun 17, 2020 IST | Aditya Chopra

चीन के साथ भारत सम्बन्धों को लेकर जरा सी गफलत या लापरवाही की गुंजाइश आजाद भारत में शुरू से ही नहीं रही है। इसकी तरफ 1950 में ही सरदार पटेल ने पं. जवाहर लाल नेहरू का ध्यान दिला दिया था

चीन को कूटनीति से मारो
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चीन के साथ भारत सम्बन्धों को लेकर जरा सी गफलत या लापरवाही की गुंजाइश आजाद भारत में शुरू से ही नहीं रही है। इसकी तरफ 1950 में ही सरदार पटेल ने पं. जवाहर लाल नेहरू का ध्यान दिला दिया था, किन्तु 1962 में हम गफलत में आ गये और उसने हमारे साथ शान्ति और सौहार्द का पंचशील समझौता करने के बावजूद हमारी पीठ में छुरा घोंप दिया। इतिहास सबक लेने के लिए होता है। पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी और पेगोग-सो झील के इलाके और सिक्किम के ‘नाकूला’ में जिस तरह नियन्त्रण रेखा की स्थिति को चीन बदल देना चाहता है और पिछले एक महीने से भी ज्यादा समय से जिस तरह उसकी फौजें हमारे इलाके में डेरा डाले हुए हैं, उससे उसकी नीयत का अन्दाजा भारत के कूटनीतिज्ञों को लगा लेना चाहिए था। यह ‘स्थानीय’  विवाद या झगड़े की श्रेणी में नहीं आता था जिसका हल दोनों देशों की फौजों के स्थानीय कमांडर या उच्च स्तर के अधिकारी सीमा की ‘अवधारणा’ में मतभेद होने से निकाल पाते।
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 ध्यान रखना चाहिए कि यह वास्तविक नियन्त्रण रेखा है जिस पर अलग-अलग ‘अवधारणा’ होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। यह अवधारणा 1967 में दोनों देशों की फौजों के बीच हल्का संघर्ष होने के बाद खींची गई थी। उसके बाद  अब पहली बार चीन ने इस नियन्त्रण रेखा की स्थिति में बदलाव का जानबूझ कर रणनीतिक तरीके से प्रयास किया है और इसे रोकने में गलवान घाटी में भारतीय सेना के तैनात कमांडिंग आफिसर समेत तीन जांबाज जवानों की मृत्यु हो गई है। सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा करने में अपनी शहादत दी है।  जो समाचार अभी तक मिले हैं उनके अनुसार भारतीय सेना के कई और जवान भी घायल हैं। भारतीय सैनिकों की शहादत चीनी सैनिकों के साथ हिंसक झड़पों में हुई है जिसमें पत्थरबाजी तक शामिल है लेकिन किसी भी ओर से गोली नहीं चली।  इससे भी पता चलता है कि आमने-सामने खड़े दोनों देशों के सैनिकों के बीच किस कदर तनाव है और चीन भी कह रहा है कि उसके भी कुछ सैनिक हताहत हुए हैं। इसी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों देशों के बीच राजनयिक और कूटनीतिक स्तर के वार्तालाप की कितनी जरूरत है, जिससे इस संघर्ष को उग्र रूप लेने से रोका जा सके।
आश्चर्य यह भी है कि नियन्त्रण रेखा के आधार में ही बदलाव लाने की चीन की नीयत का गुमान क्यों नहीं लिया और कूटनीतिक माध्यमों से चीन को रास्ते पर लाने का कदम क्यों नहीं उठाया गया? पहली बार हो रहा है कि कूटनीतिक समस्या का समाधान सेना से ढुंढवाया जा रहा है। पूरे मामले को स्थानीय स्तर का छिट-पुट झगड़ा क्यों समझा गया? लेकिन फिलहाल यह तर्क-वितर्क का समय नहीं है क्योंकि पूरे भारत को एकजुट होकर चीन को सही रास्ते पर लाना है और उसे समझाना है कि यह 2020 है 1962 नहीं जब उसने एक स्थानीय संघर्ष को ही पूरे युद्ध में बदल दिया था और उसकी फौजें असम के तेजपुर तक चली आयी थीं। बेशक प्रधानमन्त्री के रूप में श्री नरेन्द्र मोदी चीन की पांच बार यात्रा कर आये हैं और चीनी राष्ट्रपति भी दो बार भारत आ चुके हैं परन्तु उसकी विस्तारवादी हरकतों से भारत का बच्चा-बच्चा वाकिफ है और जानता है कि किस तरह वह भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश तक को विवादित बना देना चाहता है।
 1975 में इस प्रदेश में भी उसने नियन्त्रण रेखा के पार आकर असम राइफल के चार जवानों को शहीद कर दिया था मगर इससे पहले 1967 में इसने भारतीय इलाके में घुस कर सेना के 80 जवानों को शहीद कर दिया था और जवाब में भारत के जांबाज सैनिकों ने 400 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था।  इसी के बाद दोनों देशों के बीच नियन्त्रण रेखा खींची गई थी जिस पर दोनों देशों की सहमति थी। उस समय इंदिरा गांधी की सरकार थी और कूटनीति के माध्यम से उन्होंने चीन के होश ठिकाने लगाने के पुख्ता इन्तजाम बांध दिये थे। इसके बाद 1975 में चीनियों ने छिप कर असम राइफल के चार जवानों को शहीद करके बहाना बनाया था कि वे उनके इलाके में आ गये थे। चीन की फितरत में यह शामिल हो चुका है कि वह भारत पर अपना रुआब गालिब करने के लिए सैनिक रास्तों का सहारा लेता है।  उसकी इस फितरत को पहचान कर ही उसे करारा जवाब दिया जा सकता है। अतः मौजूदा विवाद को भी उसी स्तर पर सुलझाया जाना चाहिए जहां यह अपेक्षित है और जहां पहुंच कर चीन कुलबुलाने लगे। जरूरत इस बात की है कि पूरी नियन्त्रण रेखा से चीनी सेनाएं उन्हीं स्थानों पर जायें और उतनी ही सामरिक क्षमता रखें जितनी कि दोनों देशों के बीच समझौता है। सैनिक पोस्टों पर दोनों देशों की फौजों के आमने-सामने आने से संघर्ष की संभावनाएं बनी रह सकती हैं।
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सोचने वाली बात यह है कि जिस देश के कब्जे में भारत की लगभग 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन (अक्साई चिन) पहले से ही है, वही हम पर उल्टा  सीना जोरी दिखा रहा है! कौन मान सकता है कि नियन्त्रण रेखा के बारे में चीन की अवधारणा  अलग है और हमारी अलग। जबकि नियन्त्रण रेखा की वर्तमान स्थिति को बरकरार रखने के कई समझौतों से दोनों देश बुरी तरह बंधे हुए हैं। यह मामला पूरी तरह कूटनीति के क्षेत्र में आता है अब समय आ गया है कि भारत को तीसरी आंख खोलनी ही पड़ेगी।
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Aditya Chopra

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