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वैचारिक महायुद्ध की शुरूआत

04:00 AM Dec 29, 2023 IST | Aditya Chopra
वैचारिक महायुद्ध की शुरूआत

इस बार देश में होने जा रहे लोकसभा चुनाव पिछले ताजा इतिहास के सभी चुनावों से अलग इसलिए हैं क्योंकि इनमें भारत राष्ट्र की परिकल्पना को लेकर परस्पर दो विरोधी अवधारणाओं के बीच महायुद्ध छिड़ने की प्रबल संभावना है। यह लोकतन्त्र के भीतर एेसा वैचारिक युद्ध होगा जिसकी जड़ें भारत की उस महान कही जाने वाली संस्कृति में ही हैं जिसे हम संयुक्त युग्मीय या ‘कम्पोजिट कल्चर’ कहते हैं। एेसा भी नहीं है कि यह वैचारिक युद्ध भारत की धरती पर पहली बार होगा। इसका नजारा हमने केवल 75 साल पहले 1947 में भी देखा था जब भारत से काट कर पाकिस्तान को मजहब के आधार पर अलग किया गया था। उस समय मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना ने भारत की संयुक्त युग्मीय संस्कृति को नकारते हुए हिंसा के आधार पर भारत को दो टुकड़ों में विभाजित कराने में सफलता प्राप्त कर ली थी। इसकी वजह सिर्फ इतनी सी थी कि उसने मानवता के मूल तत्व आपसी सौहार्द को धर्म का लबादा उढ़ा दिया था और मनुष्यों को ही यह सोचने पर विवश कर दिया था कि उनके अल्लाह और भगवान दो अलग-अलग अलौकिक शक्तियां हैं।
यह प्रतिस्थापना इस्लाम की मान्यताओं के विपरीत थी क्योंकि अल्लाह ही सारी कायनात का निर्माता है जिसमें सभी प्रकार के प्राणी निवास करते हैं। अलग-अलग भाषाओं में उसके अलग- अलग नाम ‘देशज’ प्रकृति के अनुसार दिये जा सकते हैं। इसके बावजूद हिन्दोस्तान मुल्क के दो टुकड़े हो गये। इसका विरोध महात्मा गांधी ने पुरजोर तरीके से किया और आह्वान किया कि ‘ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’। यह सब कहते हुए भी महात्मा गांधी कट्टर हिन्दू ही बने रहे और अन्तिम समय में उनके मुख से ‘हे राम’ शब्द ही निकला। इस हे-राम की विद्वान लोग अलग-अलग तरीके से मीमांसा करते हैं और गांधी को दुनिया का अपनी सदी का सबसे बड़ा ‘मानवतावादी’ बताते हैं। इसका मोटा अर्थ यही निकलता है कि हिन्दू धर्म मानवतावादी है और वह सबको साथ लेकर चलने की वकालत करता है। इसके आधारभूत सिद्धान्तों में न कहीं घृणा या नफरत के लिए जगह है और न हिंसा के लिए, बेशक यह न्याय के लिए रक्तपात भी करता हुआ दिखाई पड़ता है।
महाभारत ग्रन्थ में हिंसा को न्याय पाने का जरिया बनाया गया परन्तु उसके अन्त में ‘आत्म विनाश’ की गाथा ही नमूदार होती है जिससे व्यथित होकर इस ग्रन्थ के लेखक महाऋषि वेदव्यास आ​िखर में इसी ​निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘अहिंसा परमो धर्मः’। मगर ये सब इतिहास से परे की धार्मिक मान्यताएं हैं जिन्हें आज के भौतिकवादी वैज्ञानिक युग में हम साक्ष्यों के अभाव में दरकिनार कर सकते हैं। यह विचारणीय विषय हो सकता है कि जब 1946 से बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने स्वतन्त्र भारत का इतिहास लिखना शुरू किया तो उनके सामने ये सारी चीजें रही होंगी परन्तु उन्होंने भारतीय संस्कृति के उस पक्ष को छुआ जिन्हें हम मानवता के विरुद्ध और सामाजिक वर्जनाएं कह सकते हैं। ये व्यावहारिक वर्जनाएं उन्हें लगभग सभी धर्मों के अनुयायियों के बीच मिलीं जिसकी वजह से उन्होंने केवल मानवतावाद को ही अपना लक्ष्य बनाया और सामाजिक बराबरी को संविधान में पहले स्थान पर रखते हुए धार्मिक या मजहबी रवायतों को कोई जगह देना उचित नहीं समझा और ‘एक समान नागरिक आचार संहिता’ की वकालत की। निश्चित रूप से यह क्रान्तिकारी विचार था जो भारत के सभी धर्मों और वर्णों के लोगों में समानता का भाव पैदा करता था। मगर इसका सम्बन्ध धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले समाज के अलग-अलग सम्प्रदायों से भी था अतः 1952 के प्रथम लोकसभा चुनावों में पं. नेहरू ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज में नागरिक आचार संहिता को एक मुद्दा बनाया और आम जनता से इस पर जनादेश पाया। अन्य धर्मावलम्बियों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता के प्रश्न को उस समय खुला छोड़ दिया गया।
इसकी असली वजह यही हो सकती है कि आजादी पाने के बाद के भारत के समक्ष मुख्य ध्येय इसके बहुसंख्यक हिन्दू समाज को वैज्ञानिक सोच की तरफ बढ़ाना था जिससे प्रेरित होकर अन्य धार्मिक समाज के लोग भी आगे बढ़ने के बारे में सोच सकें। क्योंकि वैज्ञानिक सोच केवल भौतिक रूप से ही व्यक्ति की तरक्की नहीं करता है बल्कि मानसिक रूप से भी उसे पुरानी रूढि़ग्रस्त रवायतों से आजाद करता है। यह आजादी सकल समाज में नव ऊर्जा का संचार इस प्रकार करती है कि मनुष्य अपनी उस ताकत को पहचाने जिसके बूते पर वह समाज में ही बदलाव ला सकता है और उसे भविष्य दृष्टा भी बना सकता है।
लोकतन्त्र को पूरी दुनिया की सर्वोत्कृष्ठ शासन प्रणाली इसीलिए कहा जाता है क्योंकि यह किसी भी देश के नागरिक को संसद के माध्यम से स्वयं को स्वयंभू बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है और अपने वोट की ताकत से बनने वाली किसी भी सरकार को सर्वदा अपने नियन्त्रण में रखने का रास्ता मुहैया करती है। यह कार्य संसद में मजबूत विपक्ष की मार्फत सदा चलता रहता है जिससे सत्ता में जो भी राजनैतिक पार्टी होती है वह हमेशा उस जनता के प्रति जबावदेह बनी रहे जिसने उसे चुना है। इसमें सत्ता में आने पर मालिक का भाव नहीं बल्कि सेवक का भाव स्वतः स्फूर्त रहता है क्योंकि जो भी सरकार होती है और उसके जितने भी कारिन्दे होते हैं उन सभी की देखभाल जनता से एकत्रित किये गये शुल्क आदि के कोष से ही होती है। इस प्रणाली में नायकत्व भी होता है और जन मूलक तत्व भी परन्तु जन विमुखता कभी नहीं हो सकती। इसीलिए जब भी लोकतन्त्र की बात होती है तो पारदर्शिता को इसका अविभाज्य अंग बनाया जाता है। आगामी लोकसभा चुनावों में हमें यही वैचारिक विमर्श सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ओर से अपने-अपने तरीके से उठता हुआ दिखाई पड़ेगा और हम निर्णायक की भूमिका में होंगे।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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