बिहारः मतदान का प्रथम चरण
बिहार में विधानसभा चुनावों के प्रथम चरण का आज मतदान है। इस चरण में कुल 121 सीटों के लिए मतदान होगा जबकि विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं। शेष सीटों पर आगामी 11 नवम्बर को मतदान होगा। मतदान से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार थम जाता है अतः 121 सीटों पर खड़े एक हजार से अधिक प्रत्याशियों का भाग्य पौन चार करोड़ के लगभग मतदाता ईवीएम मशीनों में कैद कर देंगे। मतदाता किसे अपना समर्थन देते हैं इसका पता आगामी 14 नवम्बर को चलेगा जिस दिन मतगणना होगी। वैसे राज्य में असली मुकाबला सत्ताधारी राजग गठबन्धन व विपक्षी महागठबन्धन में हो रहा है और इन्हीं दो में से किसी एक को मतदाता चुनेंगे। वैसे मैदान में जन सुराज पार्टी व इत्तेहादे मुसलमीन भी हैं मगर इन्हें सिर्फ वोट काटू समझा जा रहा है।
राजग या एनडीए गठबन्धन में भारतीय जनता पार्टी व जनता दल(यू) मुख्य रूप से शामिल हैं। इनके अलावा कुछ छोटी – छोटी जातिगत पार्टियां भी हैं जबकि विपक्षी महागठबन्धन में श्री लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल व कांग्रेस के अलावा कई वामपंथी पार्टियां व जातिगत पार्टियां शामिल हैं। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मुकाबला बहुत कांटे का है। मगर समझा जा रहा है कि इस बार मतदाता स्पष्ट रूप से किसी एक गठबन्धन के पक्ष में पलड़ा झुकायेंगे जिससे पिछले 2020 के चुनावों जैसा माहौल नहीं बन पायेगा। 2020 के चुनाव इतने अधिक कांटे के थे कि राजग गठबन्धन को पूरे बिहार में महागठबन्धन के मुकाबले केवल 12 हजार वोट ही अधिक मिले थे। इस बार राजनीतिक विशेषज्ञ इसमें बदलाव की अपेक्षा कर रहे हैं। एक सवाल जमीन पर यह भी तैर रहा है कि क्या इन चुनावों के बाद भी वर्तमान मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार मुख्यमन्त्री बने रहेंगे। इस सवाल पर भी पूरे बिहार में संशय का वातावरण बना हुआ है क्योंकि विपक्षी महागठबन्धन ने पहले से ही इस पद के लिए राष्ट्रीय जनता दल के युवा नेता श्री तेजस्वी यादव के नाम की घोषणा कर दी है जबकि राजग की ओर से इस मुद्दे पर भ्रम का वातावरण बना हुआ है। पिछले 20 साल से बिहार में कुछ समय को छोड़कर राजग का शासन चल रहा है। अतः विपक्षी महागठबन्धन की पूरी कोशिश है कि इस स्थिति में वर्तमान चुनावों में परिवर्तन आये। महागठबन्धन के सभी नेता राज्य में उपजी स्वाभाविक सत्ता विरोधी भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाने की जी तोड़ कोशिश भी करते दिखाई दे रहे हैं जबकि राजग सत्ता समर्थक भावनाओं को संघीभूत करना चाहता है। बिहार के सजग मतदाता के लिए इस पहेली का उत्तर ढूंढना कोई मुश्किल काम नहीं है। मगर अभी तक के चुनाव प्रचार का जायजा लेने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जमीन पर आम लोगों के मुद्दे ही प्रमुखता से तैर रहे हैं जो कि महंगाई, बेरोजगारी व पलायन के हैं। चुनावों में शिक्षा व स्वास्थ्य के प्रश्न भी बहुत जोरदार तरीके से उठे हैं जो कि लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत माने जा सकते हैं। जाहिर है कि ये चुनाव क्षेत्रीय मुद्दों पर ही हो रहे हैं और बिहार की जनता राष्ट्रीय व क्षेत्रीय मुद्दों में भेद करना अच्छी तरीके से जानती है। स्वतन्त्र भारत में समाजवाद की जननी रही बिहार की जमीन ने अपनी मिट्टी में खेलकर बड़े हुए कई राष्ट्रपुरुषों को जन्म दिया है जिनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण से लेकर जननायक कर्पूरी ठाकुर आदि शामिल हैं। मगर इसके विपरीत बिहार एेसा राज्य भी माना जाता है जिसमें जातिगत आधार पर खूनी संघर्ष भी होते रहे हैं और विभिन्न जातियों के कथित नायक अपनी राजनीति भी लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर ही करते रहे हैं। इन कथित जातीय नायकों ने राजनीति का कबायलीकरण करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी है जिसके फलस्वरूप लोकतान्त्रिक प्रशासन पद्धति के भी चीथड़े उड़ते हुए बिहार की जनता ने देखे हैं। मगर एक खूबसूरती इस राज्य की यह भी है कि यहां की जनता कभी धर्म के आधार पर गोलबन्द नहीं हुई है। इसकी वजह राज्य में कम्युनिस्टों से लेकर समाजवादी पार्टियों का बर्चस्व रहा है। 1962 तक बिहार में मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ही हुआ करती थी और 1967 में इसकी जगह समाजवादियों ने ले ली थी। हालत तो यहां तक थी कि राष्ट्रीय स्तर के समाजवादी नेता बिहार को सबसे सुरक्षित चुनाव स्थल मानते थे।
स्व. मधु लिमये जैसे बड़े समाजवादी नेता जब संसद मंे जाने से महरूम रह गये थे तो उन्होंने सत्तर के दशक में बांका से ही उपचुनाव लड़ा था और वह लोकसभा पहुंच गये थे। इसी प्रकार स्व. जार्ज फर्नांडीज भी मुजफ्फरपुर से चुनाव जीता करते थे। जहां तक वर्तमान विधानसभा चुनावों का मामला है तो इन चुनावों के लिए सत्तारूढ़ व विपक्षी गठबन्धन दोनों ही सरल रास्ता अपना रहे हैं और मतदाताओं को फौरी लाभ पहुंचाने वाले वादों की भरमार कर रहे हैं। तेजस्वी यादव भरोसा दिला रहे हैं कि हुकूमत में आने के 22 महीनों के भीतर ही वह बिहार के हर परिवार के किसी एक योग्य या पात्र व्यक्ति को सरकारी नौकरी देंगे। वहीं भाजपा वादा कर रही है कि वह एक करोड़ नौकरियां व रोजगार के अवसर सुलभ करायेगी और बिहार की महिलाओं को करोड़पति दीदी बनायेगी। एेसे कई और भी वादे हैं। मगर प्रथम चरण के मतदान से चुनाव आयोग की भी परीक्षा होगी। क्योंकि इसने बिहार की मतदाता सूची से 65 लाख लोगों के नाम काटे हैं। मतदान वाले दिन मतदान केन्द्रों पर कैसा वातावरण रहता है उससे चुनाव आयोग के कृत्य का अन्दाजा हो जायेगा। विपक्ष ने चुनाव से पहले मतदाता सूची के संशोधन को भी बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया था। कुल मिला कर बिहार की राजनीति में दोनों ही पक्ष प्रयोग कर रहे हैं और देखना चाहते हैं कि 14 नवम्बर को क्या परिणाम आयेंगे?