बिहार: राजनीति की चौसर में नये-पुराने लोग
बिहार की राजनीति अब लालू-पासवान-नीतीश की तिकड़ी से बाहर आने को कुलबुला रही है। बेशक श्री तेजस्वी यादव और चिराग पासवान अपने पिताओं की विरासत पर टिके हुए हैं, मगर उनकी राजनीति में 21वीं सदी की नये दशकों की रौनक देखी जा सकती है, जहां तक नीतीश बाबू का सवाल है तो उनके पुत्र राजनीति से बहुत दूर माने जाते हैं, मगर यह भी तय माना जा रहा है कि तेजस्वी और चिराग की राजनीति से नीतीश बाबू का तारतम्य नहीं बैठता है। तेजस्वी एक मामले में अपने पिता श्री लालू प्रसाद यादव से बहुत भिन्न माने जाते हैं कि वह जातिगत वोट बैंक बना कर नहीं चलते हैं और उन पर कांग्रेस पार्टी के सिद्धान्तों की गहरी छाप है। इस मामले में चिराग पासवान भी अलग हैं । उन पर भाजपा के सिद्धान्तों की गहरी छाप मानी जाती है। गौर से देखें तो इसमें नीतीश बाबू कहीं बीच में फंसे हुए लगते हैं और अपनी पुरानी कमाई हुई इज्जत के सहारे जी रहे हैं। इस बात का बहुत कम लोगों को आभास होगा कि 2013 में जब भाजपा की तरफ से प्रधानमन्त्री के प्रत्याशी के तौर पर श्री नरेन्द्र मोदी का नाम भाजपा आला कमान ने घोषित किया था तो स्व. राम विलास पासवान कांग्रेस पार्टी से ही चुनावी गठबन्धन करना चाहते थे मगर उनके पुत्र चिराग पासवान ने उन्हें एसा करने से रोक दिया था । इसकी कई वजहें थीं।
इस वर्ष हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था। राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ विजयी हुई थी। उस समय भी कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी कांग्रेस की तरफ से धुआंधार प्रचार कर रहे थे और भाजपा ने श्री मोदी को अपने स्टार प्रचारक के रूप मे पेश कर दिया था। इन तीनों राज्यों के दौरे पर जाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्री मोदी के प्रति लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। जमीन पर भाजपा की हवा बह रही थी, मगर स्व. रामविलास पासवान उहापोह में थे कि भाजपा की तरफ जायें या कांग्रेस की तरफ। उस समय उनके पुत्र चिराग पासवान ने ही उन्हें इस अधर-झूल से बाहर निकाला था और भाजपा के साथ गठबन्धन बनाने की सलाह दी थी। उस समय चिराग एक असफल फिल्मी हीरो थे। राजनीति की तरफ उनका झुकाव हो चला था। वह श्री मोदी या भाजपा के साथ लोक जनशक्ति पार्टी के गठबन्धन के प्रबल पक्षधर थे। अन्ततः स्व. पासवान को उनकी सलाह माननी पड़ी थी। तब से लेकर आज तक भाजपा व लोकजनशक्ति पार्टी का गठबन्धन बना हुआ है। दूसरी तरफ लालू जी के पुत्र तेजस्वी यादव कांग्रेस के साथ गठबन्धन के प्रबल पक्षधर थे। लालू जी स्वयं भी कांग्रेस छोड़कर किसी अन्य पार्टी के साथ गठबन्धन बनाना नहीं चाहते थे। अतः तेजस्वी की राजनीतिक पढ़ाई इसी वातावरण में हुई और उन्होंने मध्य मार्गी व उदार वामपंथी विचारों के अनुरूप अपनी राजनीति शुरू की।
इस विचारधारा में गरीब- गुरबा सबसे ऊपर आता है और लोगों के बुनियादी मुद्दे चरम वरीयता पर होते हैं। आज जो हम बिहार में चुनावी वातावरण देख रहे हैं उसमें लोगों के मुद्दे ही प्रमुखता से उठाने की तेजस्वी का महागठबन्धन कोशिश कर रहा है। तेजस्वी लोगों को उनके अधिकार कानून बना कर देने के पक्ष मे ज्यादा लगते हैं। यही वह गांधीवाद है जिसका जिक्र अक्सर हम राजनैतिक बहसों में सुनते रहते हैं। गांधी वाद कहता है कि प्रजातन्त्र में अगर कोई राजा होता है तो वह नागरिक होता है क्योंकि उसके एक वोट की ताकत से ही सरकार बनती िबगड़ती है अतः लोकतन्त्र में मतदाता स्वयंभू होता है। दूसरी तरफ भाजपा का राष्ट्रवाद कहता है कि राष्ट्र हित में लोकरंजना या लोगों को प्रसन्न रखना सरकार का कर्तव्य होता है। इसमें सांस्कृतिक विरासत से लेकर राष्ट्र भक्ति आदि सभी आ जाते हैं। राष्ट्र आराधना से ही सब सुख संभव हो सकते हैं। वर्तमान में कांग्रेस की सदस्यता वाले महा गठबन्धन ने विधानसभा चुनावों की बागडोर तेजस्वी यादव के हाथ में दे दी है, जबकि भाजपा की तरफ से नीतीश बाबू के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है। राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों की बातें कर रहे हैं मगर आम जनता में इसका कितना असर है यह देखने की फुर्सत किसी को नहीं है। बिहार में जातिवादी राजनीति एक अभिशाप की तरह ही देखी जायेगी, क्योंकि इसके मतदाता राजनीतिक रूप से बहुत सजग माने जाते हैं और हवा किस तरफ बहेगी इसका निर्धारण लोग ही करते हैं, नेता नहीं। महागठबन्धन ने तेजस्वी यादव को मुख्यमन्त्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया है । जवाब में भाजपा कह रही है कि उनके पास निवर्तमान मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार हैं अतः उन्हें घोषणा करने की क्या जरूरत, मगर महागठबन्धन के नेता महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और असम के उदाहरण दे रहे हैं जहां भाजपा ने चुनाव किसी अन्य नेता के नेतृत्व मंे लड़ा और विजयी होने पर मुख्यमन्त्री किसी और नेता को बना दिया। इसका राजनीतिक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि नीतीश बाबू की पकड़ अब बिहार पर ढीली होती जा रही है और उनकी राजनीति बूढ़ी हो चली है। वैसे भाजपा बिहार में आज भी प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर ही निर्भर कर रही है और वह ही राज्य में भाजपा को जिताने की कूव्वत रखते हैं। इसका अर्थ यह निकलता है कि भाजपा के पास राज्य स्तर का कोई एेसा कद्दावर नेता नहीं है जो लोगों में लोकप्रिय हो।
वास्तव में स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह के बाद भाजपा को एक नेता स्व. कैलाश पति मिश्र मिले थे। उनके बाद मैदान खाली है। भाजपा जिसे भी विकल्प रूप में पेश करती है वही विवादों में पड़ जाता है। वैसे विवोदों में तो तेजस्वी यादव भी हैं क्योंकि उन पर भ्रष्टाचार के मुकद्दमें चल रहे हैं। देखा जाये तो पूरा लालू परिवार ही इसकी चपेट मे है मगर चुनावों के मौके पर जनता की अदालत से कोई बड़ी अदालत नहीं होती। देखने वाली बात होगी कि जनता का क्या फैसला आता है? भाजपा और गठबन्धन दोनों की तरफ से जनता से बड़े-बड़े वादे किये जा रहे हैं। तेजस्वी यादव को युवाशक्ति का भरोसा है, क्योंकि उन्होंने अगले पांच साल के भीतर प्रत्येक बिहारी परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का वादा किया है। भाजपा राज्य की महिलाओं को अधिकार युक्त बनाकर लखपति दीदियों की फौज खड़ी करना चाहती है, मगर क्या एक सवाल पूछा जा सकता है कि बिहार की मुसहर अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए किसी भी पार्टी की कौन सी परियोजना है। इस जाति के लोग आज भी नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।
इस जाति के विकास के लिए कौन सी पार्टी ठोस योजना लेकर आयेगी। क्या केवल दलित और महादलित बांटने से समाज बदल जायेगा। बिहार के लोगों की प्रति व्यक्ति आय अगर केरल के लोगों की प्रतिव्यक्ति आय के आधी से भी कम 54 हजार वार्षिक की है तो हम किस उत्थान की बात कर रहे हैं।