बिहार एसआईआर आधार भी मान्य
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में चुनाव लोकतांत्रिक चेतना का उत्सव होते हैं। चुनावी व्यवस्था की सफलता और विश्वसनीयता के पीछे सबसे बड़ा स्तम्भ भारतीय निर्वाचन आयोग है। चुनाव आयोग की भूमिका निष्पक्ष पारदर्शी होनी चाहिए। क्योंिक किसी भी लोकतंत्र की विश्वसीयता उसकी संस्थाओं में जनविश्वास से तय होती है। भारत का लोकतंत्र केवल ईवीएम मशीनों से नहीं चलता। वह संस्थाओं की ईमानदारी और नागरिकों के विश्वास से चलता है। बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण को लेकर उठे विवाद के बाद चुनाव आयोग को विपक्षी दलों ने कठघरे में खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने िबहार एसआईआर पर अंतरिम आदेश दे दिया है, जिसमें चुनाव आयोग को निर्देश दिया गया है कि वह आधार कार्ड को मान्यता दे। शीर्ष अदालत ने हटाए गए मतदाताओं को मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए ऑनलाइन आवेदन की भी अनुमति दी आैर कहा कि आधार कार्ड समेत फार्म-6 में दिए गए 11 दस्तावेज में से कोई भी एक जमा किया जा सकता है। पीठ ने चुनाव अधिकारियों को यह निर्देश भी दिया कि वह मतदाता सूची से बाहर हुए व्यक्तियों के दावा प्रपत्र भौतिक रूप से जमा कराने वाले राजनीतिक दलों के बूथ स्तर के एजैंटों को पावती रसीद भी उपलब्ध कराएं।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने स्वागत किया है। विपक्ष ने दावा किया है कि सर्वोच्च अदालत के हस्तक्षेप से लोकतंत्र चुनाव आयाेग के क्रूर हमले से बच गया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश यह भी दिया है कि उसने सभी 12 राजनीतिक दलों को पक्षकार बनाते हुए उन मतदाताओं की मदद करने का निर्देश दिया है जिनके नाम मतदाता सूची से कट गए हैं। राजनीतिक दलों को फटकार लगाते हुए पीठ ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि बिहार जैसे बड़े राज्य में जहां 1.68 लाख से ज्यादा बूथ स्तरीय एजैंट तैनात हैं, चुनाव आयोग के पास अब तक केवल दो आपत्तियां दर्ज कराई गईं। इतनी बड़ी संख्या में एजैंट होने के बावजूद इतना कम सहयोग गम्भीर सवाल खड़े करता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया में राजनीतिक दलों को शामिल करके मतदाता सूची में संशोधन को अधिक समावेशी बनाने के िलए सुरक्षा उपाय किए हैं। इसकी सराहना की जानी चाहिए।
अब सवाल यह है कि चुनाव आयोग के खिलाफ आरोप तथ्यहीन शोर-शराबा है या संस्थागत दुर्भावना। बीते कुछ वर्षों में राजनीति का स्वरूप कुछ इस तरह का हो गया है कि चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाना एक प्रचलन बन गया है। विपक्षी दलों को यह अधिकार है कि वह आलोचना करें, विरोध करें, सवाल उठाएं लेकिन साथ ही उन्हें संस्थाओं का सम्मान भी बनाए रखना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिहार में मतदाता सूची के एसआईआर में गड़बड़ियां हुई हैं। कोर्ट के सामने याचिकाकर्ताओं ने उन मतदाताओं को भी पेश किया है िजन्हें मतदाता सूची में मृत दिखाया गया है। एसआईआर में कई तरह की विसंगतियां हैं। कुछ मामलों में लोगों के पास दो-तीन और यहां तक कि चार एपिक मौजूद हैं। कुछ लोग एक ही बूथ पर कई बार रजिस्टर्ड हैं। निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है कि वह इन विसंगतियों को दूर करे।
देश ने अपने चुनावी इतिहास में पिछले हफ्ते एक असाधारण स्थिति देखी। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग को कई मुद्दों पर चुनौती दी, जैसे कि डुप्लिकेट ईपीआईसी प्रविष्टियां, निर्वाचन क्षेत्रवार वृद्धि जो सांख्यिकीय रूप से अजीब लगती है,मशीन-पठनीय रोल देने से इन्कार और सीसीटीवी/वेबकास्ट फुटेज को 45 दिनों में हटाना आदि, जिससे चुनाव आयोग को जवाब देने के लिए मजबूर होना पड़ा। जब मताधिकार की अखंडता के बारे में विशिष्ट, जांच योग्य आरोपों का सामना करना पड़ता है तो क्या आयोग फाइल खोलता है या अपनी खेमेबंदी करता है? संस्था की ओर से "हलफनामा दायर करने"की पहली प्रतिक्रिया एक संवैधानिक प्रहरी के आत्मविश्वास से कम और एक प्रक्रियात्मक चाल ज़्यादा लग रही थी।
सवाल चुनाव आयोग की विश्वसनीयता का है। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को सशक्त भी बनाया है और सीमाओं में भी बांधा है। बिहार में एसआईआर ने आशंकाओं को जन्म इसलिए िदया है कि पहले की आधार रेखाओं की तुलना में मसौदा सूची से 65 लाख नाम गायब हैं। यद्यपि आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया है कि वह बिना सूचना सुुनवाई और तर्कसंगत आदेश के किसी भी योग्य मतदाता को नहीं हटाएगा। सुप्रीम कोर्ट के आधार कार्ड को मान्यता देने के बाद मतदाताओं के लिए आॅनलाइन आवेदन करना या भौितक रूप से फार्म भरना आसान हो गया है। चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के बूथ एजैंट मिलकर मतदाता सूिचयों की विसंगतियां दूर करें। लोकतंत्र की मजबूती मतदाता सूचियों के पवित्र होने पर ही निर्भर करती है।