राजनीति की ‘प्रयोगशाला’ बिहार
बिहार भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है जिसके लोग पूरे देश में सर्वाधिक गरीब लोगों में गिने जाते हैं, मगर राजनीतिक रूप से सर्वाधिक धनी माने जाते हैं। यही वजह है कि इसकी धरती को राजनीतिक प्रयोगों की धरती कहा जाता है, हालांकि 80 के दशक तक इस राज्य में कांग्रेस का बोलबाला रहा, मगर बीच में सत्तर के दशक में यह समाजवाद की प्रयोगशाला भी बना जिसकी अलम्बरदारी जन नायक भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर कर रहे थे। स्व. ठाकुर जाति से नाई थे और उन्हें अपने गरीब होने, या जाति से नाई होने पर कोई अफसोस नहीं था बल्कि अपने इसी गुण की वजह से वह पूरे देश में राष्ट्रीय स्तर पर गरीबों के बीच पहचाने भी गये। उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने बिहार में धर्म या मजहब के नाम पर की जाने वाली राजनीति को हिन्दू-मुसलमानों के बीच प्रवेश नहीं कर दिया और गरीबों का ध्यान हमेशा आर्थिक मुद्दों पर ही केन्द्रित रखा। उनकी इस राजनीति से राज्य में कम्युनिस्टों का प्रभाव निरन्तर गिरता रहा वरना 1962 तक बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी।
समाजवादी चिन्तक व जन नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया के वह परम सहयोगी थे और समाजवादी विचारों के महान पोषक थे। वह पिछड़े समाज की एकजुटता के प्रबल समर्थक थे। जिसे उन्होंने 1974 में अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के स्व. चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल में विलय के बाद पुष्ट किया और चौधरी साहब को अपना राष्ट्रीय नेता माना। चौधरी चरण सिंह ने सत्तर के दशक में पूरे उत्तर भारत में ग्रामीण मतदाताओं का सकल वोट बैंक बनाकर न केवल कांग्रेस के समक्ष बड़ा संकट खड़ा कर दिया था, बल्कि विपक्षी पार्टी जनसंघ को भी हैरत में डाल दिया था। 1967 में उनकी पार्टी के उदय के बाद उत्तर भारत में जनसंघ की बढ़त अवरुद्ध हो चुकी थी। इसका प्रमाण यह है कि 1967 में जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए तो इस संयुक्त राज्य की विधानसभा में जनसंघ (भाजपा) को कुल 101 सीटें प्राप्त हुई, मगर जब 1969 में मध्यावधि चुनाव हुए जनसंघ को केवल 49 सीटें ही प्राप्त ही हुईं जबकि चौधरी साहब की नवोदित पार्टी भारतीय क्रान्ति दल को 117 सीटें प्राप्त हुईं। 1969 में बिहार में भी मध्यावधि चुनाव हुए थे।
उस समय तक भारतीय क्रान्ति दल केवल उत्तर प्रदेश की ही पार्टी थी और बिहार में कर्पूरी ठाकुर की संसोपा का नम्बर दूसरा था। 1974 में इन दोनों पार्टियों का विलय हुआ था। इसके बाद बिहार की राजनीति में ठहराव लगभग समाप्त सा होता गया और कांग्रेस का बर्चस्व समाप्त सा होता गया, हालांकि 1971 में राष्ट्रीय स्तर पर स्व. इन्दिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी की तूफानी जीत ने एक बार फिर बिहार को कांग्रेस की झोली में डाल दिया था। कांग्रेस का यह दौर 1977 में तब जाकर टूटा जब इमरजैंसी के बाद लोकसभा चुनाव हुए और इनमें श्रीमती गांधी अपना लोकसभा चुनाव तक हार गईं, परन्तु इसके बाद 1980 में पुनः हुए लोकसभा चुनाव में इन्दिरा जी के सत्ता में वापस लौट आने पर बिहार में सत्ता पलट हुआ और कांग्रेस 1989 तक इस राज्य में निष्कंटक राज करती रही। इस वर्ष हुए विधानसभा चुनावों में स्व. वी.पी. सिंह के जनता दल ने बाजी मारी, किन्तु इसे पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। तत्कालीन जनता दल नेता स्व. देवी लाल ने दिल्ली में संसद का चुनाव जीत कर श्री लालू प्रसाद यादव को बिहार विधायक दल का नेता बनाया और इस प्रकार लालू जी पहली बार बिहार के मुख्यमन्त्री बने। उस समय बिहार की भारतीय जनता पार्टी ने लालू जी को अपना समर्थन देने की घोषणा की थी।
इसके बाद लालू जी व उनकी पत्नी 2005 तक राज्य के मुख्यमन्त्री रहे (केवल कुछ समय को छोड़कर ), मगर तब तक जनता दल कई गुटों में विभक्त हो चुका था और 1974 के जेपी आन्दोलन से राजनीति में प्रवेश करने वाले वर्तमान मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार स्व. जार्ज फर्नांडीज की अगुवाई में अपनी अलग समता पार्टी बना चुके थे, जबकि लालू जी ने अपनी पार्टी का नाम राष्ट्रीय जनता दल रख लिया था, वहीं इन दोनों में सबसे वरिष्ठ रहे स्व. राम विलास पासवान ने भी जनता दल से टूटकर अपनी अलग लोक जनशक्ति पार्टी बना ली थी। इस प्रकार ये तीनों बिहारी नेता अलग-अलग पार्टियों के सुप्रीमों के तौर पर सामने आये और तीनों ने स्व. चौधरी चरण सिंह के ग्रामीण वोट बैंक को अपनी-अपनी जातियों के आधार पर बांट लिया। कुर्मी नीतीश के साथ गये, पासवान दलित पासवान के साथ और अहीर अर्थात यादव लालू के साथ। ग्रामीण वोटों के इस बंटवारे से बिहार की राजनीति का कबायलीकरण जैसा हो गया। इन तीनों ही नेताओं ने अल्पसंख्यक समाज खासकर मुस्लिमों का समर्थन अपनी -अपनी ओर खींचने का भरसक प्रयास किया और इसमें उन्हें सफलता भी मिली, मगर बिहार विधानसभा के ताजा चुनाव अगले महीने होने जा रहे हैं।
इन चुनावों में बिहार में एक नया प्रयोग रेवडि़यां को बांटने का हो रहा है। चुनाव से पूर्व सत्ता पक्ष की ओर से प्रदेश की 75 लाख गरीब महिलाओं के बैंक खाते में दस-दस हजार रुपये भेज दिये गये हैं। यह धन महिला आजीविका स्कीम के तहत स्थानान्तरित किया गया है। विपक्षी दल खासकर इंडिया गठबन्धन इसे मतदाताओं को दी गई रिश्वत के तौर पर बता रहा है, जबकि यह रकम एक सरकारी स्कीम के तहत दी गई है और कहा जा रहा है कि यह कुल दो लाख रुपए दी जाने वाली मदद की पहली किश्त है। विपक्ष जिस प्रकार इस मदद की आलोचना कर रहा है उससे उसकी निराशा का पता तो चलता है, मगर वह पूरी बहस को लोकतन्त्र में नागरिकों के अधिकार से जोड़ देना चाहता है। यह बिल्कुल सही है कि लोकतन्त्र में नागरिकों को जो भी सुविधा मिलती है वह किसी की कृपा पर निर्भर नहीं होती बल्कि इसे वैधानिक अधिकार के रूप में ही दिया जाता है। बेशक इसमें देर हो सकती है, किन्तु जो भी नागरिकों को मिलता है वह उनके कानूनी हक के तौर पर ही मिलता है, इसलिए लालू जी के पुत्र तेजस्वी यादव ने संभवतः बहुत दिमाग लड़ा कर नकद रोकड़ा मदद की काट खोजने का प्रयास किया है और घोषणा की है कि यदि इंडिया गठबन्धन चुनावों के बाद 14 नवम्बर को बिहार में सत्तारूढ़ होता है तो वह प्रत्येक परिवार से किसी एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी अवश्य देंगे और इसके लिए बाकायदा एक कानून बनायेंगे।
बिहार में 2023 के सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार कुल दो करोड़ 76 लाख परिवार हैं जिनके 27.5 लाख लोग सरकारी नौकरियों में लगे हुए हैं, इसलिए तेजस्वी यादव का यह वादा कितना कारगर होगा यह देखने वाली बात होगी, क्योंकि बिहार में पिछले दिनों ब्लाक स्तर के शिक्षा अधिकारियों के 927 पद निकले थे जिनके लिए दस लाख लोगों ने आवेदन किया था जबकि बिहार की कुल जनसंख्या 13 करोड़ में से केवल सात प्रतिशत लोग ही स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण हैं, मगर तेजस्वी यादव बिहार में नौकरी देने वाले मन्त्री के रूप में भी पहचाने जाते हैं, क्योंकि जब नीतीश कुमार के साथ वह 17 महीनों के लिए उप मुख्यमन्त्री थे तो उन्होंने पांच लाख सरकारी नौकरियां दी थीं। इसी वजह से राज्य के युवकों में वह लोकप्रिय माने जाते हैं, जबकि स्व. पासवान की पार्टी की कमान उनके पुत्र चिराग पासवान के हाथों में है और वह भाजपा नीत गठबन्धन में शामिल हैं।
बिहार में भाजपा प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के बूते पर ही चुनाव लड़ रही है, जबकि नीतीश बाबू के जनता दल(यू) से उसका गठबन्धन है, जहां तक नीतीश जी का सवाल है तो उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं समझा जा रहा है, मगर भाजपा के पास राज्य स्तर का कोई कद्दावर और लोकप्रिय नेता भी नहीं है। हकीकत यह है कि स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह और कैलाश पति मिश्र के बाद बिहार में कोई सर्वमान्य जमीनी भाजपा नेता हुआ ही नहीं है। इस प्रकार बिहार का यह चुनाव बहुत ही दिलचस्प होने जा रहा है जिसके परिणाम चाैंकाने वाले भी हो सकते हैं। 2020 में पिछले विधानसभा चुनावों में विपक्षी महागठबन्धन व भाजपा गठबन्धन के बीच कुल 12 हजार मतों का अन्तर था, मगर सरकार भाजपा गठबन्धन की बनी थी, क्योंकि 243 सदस्यीय विधानसभा में इसे 125 सीटें प्राप्त हुई थीं। इस बार राज्य में हुई मतदाता पुनर्रीक्षण सूची भी एक अलग से मुद्दा है।