बिहारः चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा
राजनीतिक पंडितों का मत है कि बिहार के चुनावों को अलग-थलग करके एक राज्य के चुनावों के रूप में नहीं देखा जा सकता है, बल्कि इनका मूल्यांकन समावेशी रूप से किया जाना चाहिए, क्योंकि चुनाव परिणामों का असर राष्ट्रव्यापी होगा। इसकी मूल वजह यह है कि बिहार पूरे उत्तर भारत की राजनीतिक कुंजी है। आगामी 14 नवम्बर को जो भी परिणाम आयेंगे, उनसे भविष्य की राजनीति की दिशा तय होगी।
वास्तव में यह बिहार के मतदाताओं के प्रति एेसा विश्वास है जिसमें सकल भारत की राजनीतिक दिशा छिपी हुई है। बिहारी मतदाताओं के बारे में एक उक्ति कही जाती है कि ये ‘उड़ती चिड़िया को भी हल्दी लगा देते हैं’। इसी कारण बिहार जिस तरफ करवट लेता है। पूरा उत्तर भारत उसी करवट पर चलने लगता है। पूर्व में एेसा कई बार हुआ भी है। 1967 में जब विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो कांग्रेसी नेता महामाया प्रसाद सिन्हा कुछ विधायकों को लेकर कांग्रेस से बाहर आ गये और उन्होंने सभी विपक्षी दलों के साथ गठबन्धन करके संयुक्त विधायक दल या संविद की सरकार बनाई जिसमें डा. राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता भारत रत्न स्व. कर्पूरी ठाकुर उप मुख्यमन्त्री बने। यह सरकार डा. लोहिया के गैर कांग्रेस वाद सिद्धांत के आधार पर गठित हुई थी। इस सरकार में कम्युनिस्ट भी शामिल थे और जनसंघ भी। डा. लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद का नारा इसलिए दिया था जिससे भारत के लोगों का यह भ्रम टूट सके कि गैर कांग्रेसी दलों को सरकार चलानी नहीं आती है और उनकी भूमिका विपक्ष में ही बैठने भर की होती है, मगर बिहार समेत एेसे नौ राज्य थे जिनमें 1967 में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ था। समाजवाद के पुरोधा डा. लोहिया केवल यह दिखाना चाहते थे कि लोकतन्त्र में हर राजनीतिक दल को सत्ता में आने का अधिकार होता है, इसलिए लोगों को बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। उनका यह कथन कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल तक इन्तजार नहीं करती है, वास्तव में लोकतन्त्र को सदैव ऊर्जावान रखने का मसौदा ही था, क्योंकि लोकतन्त्र की असली मालिक जनता ही होती है अतः पार्टियों को उसके दरबार में जाने से हिचकिचाना नहीं चाहिए। लोकतन्त्र की जीवन्तता के लिए आवश्यक है कि सड़काें पर आम आदमी की समस्याओं पर बातचीत होती रहे जिससे चुने हुए सदनों यथा विधानसभा व संसद में इन समस्याओं का हल ढूंढने के लिए जनप्रतिनििध बेताब रहें, इसीलिए उन्होंने कहा था कि ‘जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है’, मगर राजनीति का एक अलिखित नियम भी होता है कि सत्ता में आने की राजनीति और होती है और सत्ता करने की राजनीति दूसरी होती है। अतः हर राजनीतिक दल को यह कोशिश करनी चाहिए कि उसे इतना जनसमर्थन मिले कि वह शासन में आ जाए। इसमें कोई बुराई नहीं है।
बिहार में आज जो स्थिति बनी हुई है उसमें एक भी एेसा राजनीतिक दल नहीं है जो अपने बूते पर ही पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सत्ता में आ सके, इसीलिए हमें मुख्य रूप से दो गठबन्धन नजर आ रहे हैं। एक तरफ जनता दल(यू) व भाजपा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल है। कांग्रेस राजद के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है तो भाजपा जनता दल(यू) के इन दोनों ही गठबन्धन की कमान क्षेत्रीय नेता क्रमशः तेजस्वी यादव व नीतीश कुमार के हाथ में हैं। राजद ने तो घोषणा भी कर दी है कि चुनाव जीतने पर उसके नेता श्री तेजस्वी यादव मुख्यमन्त्री होंगे, जबकि भाजपा कह रही है कि वह चुनाव श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ेगी और उनके यहां मुख्यमन्त्री का पद खाली नहीं है, लेकिन चुनाव विशेषज्ञ इसे असली सवाल से कटना बता रहे हैं और कह रहे हैं कि बिहार में महाराष्ट्र का माडल दोहराया जा सकता है। इस राज्य में भाजपा ने शिवसेना नेता एकनाथ शिन्दे के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था, मगर परिणाम आने पर उन्हें उपमुख्यमन्त्री ही बनाया गया। यह तथ्य भाजपा अच्छी तरह जानती है कि बिहार और महाराष्ट्र में कही कोई समानता नहीं है। बिहार मे 63 प्रतिशत पिछड़े वर्ग के मतदाता हैं जिनमे अति पिछड़े भी शामिल हैं। 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता है। अब बड़ी चालाकी के साथ तेजस्वी यादव का महागठबन्धन यह बात उछाल रहा है कि बिहार को िपछड़े व गरीब- गुरबों की सरकार चाहिए। इसके दूसरी पंक्ति के नेता यह नारा भी लगा रहे हैं कि ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा नहीं चलेगा नहीं चलेगा’। वास्तव में पहली बार यह नारा 1972 में जनसंघ के नेता डा. मुरली मनोहर जोशी ने लगाया था। इसकी पृष्ठभूमि यह थी कि 1971 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी ने गरीबी हटाओं के नारे के साथ जीता था।
इन चुनावों में इन्दिरा जी की कांग्रेस को सभी वर्गों के गरीबों ने जमकर समर्थन दिया था। इन चुनावों में इन्दिरा जी की कांग्रेस ने चुन-चुन कर चुनाव में खड़े पूंजीपतियों को हराया था और कई की जमानत भी जब्त हो गई थी। इसके साथ ही पुराने रजवाड़ों को जनता ने जमीन सुंघा दी थी। राजस्थान के झुंनझुनू से बिड़ला साम्राज्य के अधिपति स्व. के.के. बिड़ला चुनाव हार गये थे। मुम्बई की एक सीट से टाटा चुनाव हार गये थे। फरीदाबाद से एस्कार्ट्स ट्रैक्टर कम्पनी के मालिक एच.पी. नन्दा चुनावी मैदान में खेल रहे थे। नवाब मंसूर अली खां पटौदी की गुड़गांव सीट से जमानत जब्त हो गई थी। और भी न जाने कितने नाम हैं। इन चुनावों में पूंजीपतियों ने खुलकर विपक्ष का साथ दिया था। विपक्षी दलों का गठबन्धन तब चौगुटा कहलाता था। ये चुनाव कांग्रेस पार्टी के पहले विघटन के बाद लड़े गये थे, मगर इन्दिरा जी के पुनः प्रधानमन्त्री बन जाने के बाद पूंजीपतियों ने अपने रुख में परिवर्तन करना शुरू किया और सत्ताधारी दल से अपनी दूरियां कम करनी शुरू कीं तो डा. जोशी ने नारा दिया कि वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा। वर्तमान में बिहार में हालात बिल्कुल 1971 जैसे नहीं हैं, मगर कांग्रेस नेता राहुल गांधी व राजद नेता तेजस्वी यादव इसी तरह की बात करते हुए दिखते हैं। जातिगत जनगणना इसी की एक कड़ी है, हालांकि बिहार में इसमें एक पेंच पड़ा हुआ है, जो अतिपिछड़ों का है। ये 33 प्रतिशत से ऊपर हैं। इन्हें नीतीश बाबू का वोट बैंक माना जाता है, मगर इसकी काट तेजस्वी के महागठबन्धन ने यह ढूंढी है कि मल्लाहों की विकासशील इंसान पार्टी के नेता मुकेश सहनी को अपने गठबन्धन में शामिल कर लिया है। मल्लाह अति पिछड़े होते हैं।
उधर नीतीश बाबू के गठबन्धन में भी जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा पार्टी है। यह भी अतिगरीब-गुरबों का प्रतिनिधित्व करती है। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अति पिछड़ों के वोट दोनों गठबन्धनों के बीच बटेंगे। उपेन्द्र कुशवाह भी भाजपा की तरफ है जिनकी अपनी अलग पार्टी है। वैसे यह बात बहुत जोर से की जानी चाहिए कि बिहारी मतदाता एक हद तक ही जाति को महत्व देते हैं । एेसा 2010 व 2015 के चुनावों में सिद्ध हो चुका है। बिहारी की खासियत यह भी होती है कि वह राजनीतिक सिद्धान्तों की परख भी बखूबी करना जानता है। वह नेताओं के विमर्श को आसानी से कबूल नहीं करता बल्कि जमीन पर अपना विमर्श ही खड़ा करता है। तेजस्वी सरकारी नौकरियों का विमर्श खड़ा कर रहे हैं, जबकि भाजपा व नीतीश बाबू लखपति दीदियों का। चुनावी खैरात से बिहार के मतदाताओं पर खास प्रभाव पहेगा, यह देखने वाली बात होगी। मगर इतना निश्चित माना जा रहा है कि इस बार व्यक्तित्वों की नहीं बल्कि सिद्धान्तों की लड़ाई ही केन्द्र में रहेगी। अतः चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा, यह देखना बहुत दिलचस्प होगा।