बिहार का जनादेश
बिहार में भाजपा-जनता दल (यू) नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने एग्जिट पोल्स के अनुमानों के मुताबिक एक बार फिर सत्ता हासिल कर ली है। एनडीए की डबल सेंचुरी ने राजनीितक विश्लेषकों को चौंका दिया है। जबकि राजद, कांग्रेस और अन्य दलों के महागठबंधन को करारी हार का सामना करना पड़ा है। बिहार की जनता का स्पष्ट जनादेश इस बात का प्रमाण है कि बीते 20 वर्षों से नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उनके खिलाफ कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं बन पाई। विपक्षी उनकी उम्र, स्वास्थ्य, मनोस्थिति और सेवानिवृत्ति की बातें तो उछालते रहे लेकिन नीतीश कुमार की शख्सियत के बराबर खुद को खड़ा नहीं कर पाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह समेत केन्द्रीय मंत्रियों आैर भाजपा कार्यकर्ताओं ने इस चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी थी। जमीनी स्तर पर किसी की कोई लहर दिखाई नहीं दे रही थी लेकिन चुनाव परिणाम कहते हैं कि एनडीए के पक्ष में भूमिगत लहर चल रही थी। पलायन आैर रोजगार बिहार के लिए हमेशा ही संवेदनशील मुद्दे रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी समेत सभी बड़े नेताओं का प्रचार लालू यादव के जंगलराज पर ही केन्द्रित रहा। हालांकि बिहार के जेन जेड ने बिहार के जंगलराज को नहीं देखा लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत एनडीए के सभी नेताओं ने बार-बार छर्रा, कट्टे और दोनाली का जिक्र किया। एनडीए की जीत में महिलाओं की बहुत बड़ी भूमिका रही। महिला शक्ति ने निर्णायक भूमिका निभाई। आश्चर्यजनक रुझान यह देखा गया कि महिलाएं जाति धर्म, नस्ल, अगड़ी-पिछड़ी कोई भी हो लेकिन नीतीश सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के चलते भारी संख्या में उन्होंने एनडीए को वोट दिया। यह सिर्फ दस हजार रुपए महिलाओं के खाते में डालने का ही चमत्कार नहीं है बल्कि नीतीश सरकार की 20 साल की सत्ता के दौरान पंचायत, नौकरी, शिक्षा आदि में महिलाओं के आरक्षण से महिलाओं का एक ठोस जनाधार तैयार हो गया था। इस बार के चुनाव में महिलाएं गेम चेंजर साबित हुईं। चुनाव प्रचार के दौरान महिलाओं के महत्व को समझते हुए राजद नेता तेजस्वी यादव ने यह घोषणा की थी कि उनकी सरकार बनी तो 14 जनवरी मकर संक्रांति के दिन एक मुश्त 30 हजार रुपए महिलाओं के खाते में डाल दिए जाएंगे और उन्होंने महागठबंधन के चुनावी घोषणापत्र ‘तेजस्वी प्रण’ में महिलाओं को 2500 रुपए हर महीने देने की योजना का वादा किया था लेकिन महिला मतदाताओं ने उनकी बजाय नीतीश कुमार पर ज्यादा भरोसा जताया।
तेजस्वी यादव ने बिहार में हर परिवार से एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिहार में बेरोजगारी की दर काफी ज्यादा है। सरकारी नौकरियों को लेकर काफी मारामारी है। मतदाताओं ने तेजस्वी के वादे पर विश्वास नहीं किया क्योंकि इस पर बहुत सवाल उठ खड़े हुए थे। सबसे बड़ा सवाल तो यह उठा कि सरकारी नौकरियों के लिए बिहार के पास बजट ही नहीं है। दस लाख सरकारी नौकरियों के लिए 25 हजार करोड़ की जरूरत पड़ेगी। आखिर इतना धन कहां से आएगा। बिहार के युवाओं ने भी उनके वादे को व्यवहारिक नहीं माना। यद्यपि भाजपा और नीतीश कुमार में मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर खटपट की खबरें आती रहीं। विपक्ष खासकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी एसआईआर में धांधलेबाजी आैर वोट चोरी के मुद्दे को लगातार उछालकर निर्वाचन आयोग और केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे लेकिन उनका कोई भी तरकश का तीर निशाने पर नहीं बैठा। कई अनुमानों में यह भी कहा गया कि राजद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर रही है जबकि भाजपा तीसरे नम्बर की पार्टी पर रहेगी क्योंकि नीतीश की नाराजगी के चलते जनता दल (यू) के वोट भाजपा को ट्रांसफर नहीं हुए लेकिन चुनाव परिणामों ने ऐसे अनुमानों को धराशाई कर दिया। सबसे बड़ा सवाल यह बना हुआ था कि बिहार में बंपर वोटिंग का फायदा किसे मिलेगा। अब यह साफ हो चुका है कि बंपर वोटिंग का बड़ा फायदा एनडीए को मिला। अगर महागठबंधन के चुुनावी प्रबंधन की बात की जाए तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी की बिहार में पदयात्रा के दौरान जो गति आैर तेवर सामने आए थे वह तेवर चुनाव आते-आते ढीले पड़ चुके थे। सीटों के बंटवारे पर लंबी खींचतान महागठबंधन को महंगी पड़ी। कांग्रेस खुद आैर 2 प्रतिशत वाली वीआईपी पार्टी महागठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई जबकि एनडीए में सहयोगी पार्टी चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी नई ताकत बनकर उभरी। प्रशांत कुमार की जनसुराज पार्टी को मतदाताओं ने पूरी तरह ठुकरा दिया। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च होती है और उसने नीतीश कुमार के सुशासन पर भरोसा जताया आैर महागठबंधन को नकार दिया। जातिवादी समीकरण पूरी तरह से ध्वस्त हो गए हैं।