भाजपा–शिवसेना गठबन्धन !
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आगामी लोकसभा चुनावों के लिए सत्तारूढ़ भाजपा व महाराष्ट्र की क्षेत्रीय पार्टी शिवसेना के बीच जिस तरह ना-नुकर और गिले-शिकवों के बीच समझौता हुआ है उस पर राजनैतिक क्षेत्रों में ज्यादा आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जा रहा है क्योंकि दोनों पार्टियों की हालत कमोबेश बादल-बिजली जैसी है मगर शिवसेना के सामने इस बार एक समस्या गंभीर रूप में आ सकती है कि उसने जिस प्रकार राफेल लड़ाकू विमान सौदे पर सरकार की तीखी आलोचना की है और उन्हीं तेवरों में की है जिनमें देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी कर रहे हैं, तो शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे किस तरह महाराष्ट्र में भाजपा के झंडे के साथ अपना झंडा लहराकर मतदाताओं से वोट मांग सकते हैं? लेकिन दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि शिवसेना कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जिसका कोई पक्का सैद्धांतिक नजरिया हो या लोकतन्त्र की समग्रता के प्रति पूरा समर्पण हो।
मौका देखकर यह पार्टी रंग बदलती रहती है और उसके अनुसार नए-नए विचार तैराती रहती है। भला यह कैसे संभव है कि जो पार्टी महाराष्ट्र में भाजपा के साथ सरकार में शामिल हो और केन्द्र में भी उसके प्रतिनिधि बाकायदा मंत्री पद का सुख भोग रहे हैं, वह विपक्षी गठबंधन में शिरकत करने की धमकी दे? यदि हम इस पार्टी का पुराना इतिहास देखें तो राजनैतिक सौदेबाजी करने में इसका कोई मुकाबला नहीं रहा है परन्तु जो बात लोकतन्त्र में सबसे ज्यादा खटकने वाली है वह इस सौदेबाजी को खुली तिजारत में बदलने की वकालत करने की है। केन्द्र में दो दर्जन भर राजनैतिक दलों के गठबन्धन से चली वाजपेयी सरकार के दौरान इस पार्टी के मुखिया ने जिस तरह मन्त्रालयों के बंटवारे पर बवाल मचाते हुए कहा था कि सभी मलाईदार मन्त्रालय भाजपा ने अपने पास रखे हैं, बताता था कि यह पार्टी राजनीति में जनसेवा के लिए नहीं बल्कि अपने आर्थिक स्वार्थ पूरे करने के लिए आई है परन्तु भाजपा की दिक्कत यह है कि यह इसके सहारे के बिना महाराष्ट्र में मजबूती हासिल नहीं कर सकती है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि शिवसेना ने भाजपा के राष्ट्रवाद को महाराष्ट्र राज्य के सन्दर्भ में कांट-छांट कर इतना संकीर्ण और छोटा कर दिया है कि मतदाता मराठी दायरे में सीमित होकर अपनी समस्याओं का जायजा लेने लगा है।
मराठी मानुष या जय महाराष्ट्र के दायरे में मतदाताओं को सिमटाने की कोशिशें जिस तरह शिवसेना ने हिंसा व सामाजिक द्वेष फैला कर की हैं उसने सबसे बड़ा नुकसान इस राज्य के लोगों का ही किया है मगर इस नीति के जरिए शिवसेना ने समूचे राजनीतिक विमर्श को मराठी व गैर-मराठी में बांटकर राष्ट्रीय समस्याओं से राज्य के मतदाताओं को गफलत में रखने का सफल प्रयास किया है। अतः यह बेवजह नहीं था कि इसके प्रमुख उद्धव ठाकरे अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के लिए दल-बल गए थे और वहां पहुंचकर उन्होंने बाबरी मस्जिद तोड़े जाने की घटना को शौर्य दिवस के रूप में निरूपित किया था। वस्तुतः यह संविधान से चलने वाले भारत देश की शासन व्यवस्था का सीधा अपमान ही नहीं बल्कि अवमानना थी, परन्तु इस पार्टी ने अपने स्थापना काल से ही भारत की विविधतापूर्ण ताकत को लहूलुहान करने की खुली नीयत को ही अपनी ताकत बनाकर राज्य की राजनीति को कबायली पुट दिया और इसकी डोर पर मुम्बई जैसे महानगर में ऐसा राजनीतिक माफिया खड़ा किया जिसने फिल्म निर्माण क्षेत्र तक को बन्धक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
साठ के दशक में मुम्बई में दक्षिण भारत के लोगों के खिलाफ विषवमन करके इसने अपनी जड़ें जमाईं और उद्योगों के मजदूर संगठनों तक को मराठी व गैर-मराठी के नाम पर बांट कर इस शहर की महानगरपालिका को कमाई का शानदार जरिया बना डाला। इसलिए इसमें किसी प्रकार के अचम्भे की कोई गुंजाइश नहीं थी कि अन्त में शिवसेना का साथ भाजपा से ही बैठेगा, क्योंकि यह पार्टी लाख कोशिशों के बावजूद इस राज्य में अपनी पकड़ तब तक नहीं बना सकी थी जब तक कि शिवसेना एक ताकत के रूप में नहीं उभर गई। दरअसल राजनीति में डराने-धमकाने और कानून को ताक पर रखकर लोकतान्त्रिक संस्थानों को बेदम करने की राजनीति शिवसेना ने ही शुरू की है और साम्प्रदायिक तेवरों को जंगी जामा पहनाकर लोगों के विकास के कामों पर धूल डालने की हिमाकत दिखाने की जुर्रत भी इसी पार्टी ने सबसे पहले मुम्बई से शुरू की है। अतः चुनावी राजनीति में इसकी भूमिका किसी भूमिगत रूप से सक्रिय शक्तिशाली डान से कम नहीं मानी जाती, हालांकि इसका काम सब खुले में ही चलता है मगर जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जाएंगे वैसे-वैसे ही यह पार्टी खुद को सत्ता से उपजने वाले हानि-लाभ के प्रभावों से दूर नहीं रख पाएगी और इसे अन्ततः भाजपा के सुर में सुर मिलाकर ही बोलना होगा क्योंकि चुनाव म्युनिसपलिटी के नहीं बल्कि लोकसभा के होंगे, इसके बावजूद इसका लक्ष्य म्युनिसपलिटी नुमा मुद्दों को ही नुमायां करके अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने का रहेगा।
राज्य की कुल 48 लोकसभा सीटों में से 23 पर यह लड़ेगी और 25 पर भाजपा मगर श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस और कांग्रेस पार्टी का गठबन्धन इसके मुकाबले पर इस प्रकार रहेगा कि चुनावी मुद्दे राज्य के किसानों की बदहाली और रोजगार के साथ ही प्रशासन के हर कूंचे में फैला भ्रष्टाचार बने मगर देखने वाली बात यह रहेगी कि शिवसेना व भाजपा राज्य से लेकर केन्द्र की सरकार में काबिज होते हुए किस तरह अपने ही पैदा किए गए उन सवालों से कैसे निपटेंगी जिनकी वजह से ये दाेनाें पार्टियां विपक्ष से सत्ता तक पहुंची हैं।