भाजपा का समय अब शुरू होता है
अब जब दिल्ली चुनावों की हलचल थम गई है, ध्यान इस बात पर केंद्रित हो गया है…
अब जब दिल्ली चुनावों की हलचल थम गई है, ध्यान इस बात पर केंद्रित हो गया है कि भारत की राजधानी पर शासन कौन करेगा। फिलहाल, बीजेपी के पास कई विकल्प हैं। मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की कोई कमी नहीं है—हर कोई अपनी अलग योग्यता और दावेदारी के साथ खड़ा है। आखिरकार किसका चयन होगा, यह कहना मुश्किल है। मोदी सरकार की कार्यशैली की खासियत गोपनीयता और चौंकाने वाले फैसले हैं, खासकर जब मुख्यमंत्री चुनने की बात आती है। जब तक आधिकारिक घोषणा नहीं होती, तब तक इस फैसले की जानकारी केवल दो लोगों को होती है—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह। बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का नाम प्रक्रिया में आता तो जरूर है, लेकिन सूत्रों के अनुसार, यह महज औपचारिकता भर होती है।
अगर शुरुआत से देखा जाए, तो साल 2017 में जब योगी आदित्यनाथ को विदेश यात्रा की अनुमति नहीं मिली, तब उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि उनके लिए क्या योजना बनाई जा रही है। चुनाव प्रचार में व्यस्त रहने के बाद वे थोड़ा विश्राम चाहते थे, और प्रस्तावित विदेश दौरा उनके लिए एक अच्छा मौका था। लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने कुछ और ही तय कर रखा था। विदेश यात्रा रोकने के कुछ ही दिनों बाद, उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के लिए कह दिया गया। कुछ वर्षों बाद, जब भूपेंद्र पटेल गुजरात में अपने गृहनगर अहमदाबाद में पौधारोपण कर रहे थे, उन्हें अचानक पार्टी कार्यालय बुलाया गया। जब उनके नाम की घोषणा मुख्यमंत्री पद के लिए हुई, तो लोगों ने हैरानी से पूछा—“भूपेंद्र पटेल कौन?”, “कौन सा पटेल?”, “क्यों पटेल?” इन सवालों के कोई आसान जवाब नहीं थे, और मोदी-शाह के फैसले पर सवाल उठाना तब भी उतना ही असंभव था, जितना आज है।
इसके अलावा, बीजेपी नेतृत्व लॉबिंग (गुटबंदी) को बिल्कुल पसंद नहीं करता। राजस्थान में जब पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपनी ताकत दिखाने की कोशिश की और 40 विधायकों का समर्थन जुटाया, तब भी पार्टी ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। इसी तरह, राजस्थान में पहली बार के विधायक भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाना, मध्य प्रदेश में मोहन यादव या छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय का चयन मोदी की “परंपराओं से हटकर” फैसले लेने की नीति का ही उदाहरण है। दिल्ली की स्थिति बिल्कुल अलग है। यहां बीजेपी नेतृत्व के पास पूरी छूट है। वह अपनी पसंद के किसी भी नेता को मुख्यमंत्री बना सकती है और चाहे जितने भी चौंकाने वाले फैसले ले सकती है, चाहे वह मुख्यमंत्री के चयन से जुड़ा हो या कैबिनेट गठन से। इसके अलावा, दिल्ली में बीजेपी ने बड़ी जीत हासिल की।
70 सदस्यीय विधानसभा में पार्टी ने आराम से बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया। रिकॉर्ड के लिए, बीजेपी ने 48 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि आम आदमी पार्टी (आप) को केवल 22 सीटें मिलीं। कांग्रेस लगातार तीसरी बार खाता खोलने में भी नाकाम रही। गौरतलब है कि कांग्रेस ने 2013 में सत्ता गंवाई थी, जबकि उससे पहले शीला दीक्षित के नेतृत्व में उसने 15 वर्षों तक शासन किया था। इसके बाद 2015, 2020 और 2025 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन शून्य ही रहा। बीजेपी ने 27 साल बाद दिल्ली में सत्ता में वापसी की है। 1993 से 1998 के बीच जब पार्टी दिल्ली की सत्ता में थी, तब उसने तीन मुख्यमंत्रियों को बदलते देखा। मदन लाल खुराना, जिन्होंने 27 महीने बाद भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते इस्तीफा दिया; साहिब सिंह वर्मा, जिन्हें 31 महीने बाद हटाया गया क्योंकि वे दिल्ली में प्याज की कीमतों पर नियंत्रण नहीं रख पाए और सुषमा स्वराज, जो दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं, हालांकि केवल 52 दिनों के लिए।
दिलचस्प बात यह है कि खुराना और वर्मा—दोनों के बेटों ने हाल ही में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की। हरीश खुराना मोती नगर से विधायक बने, जबकि परवेश सिंह वर्मा ने नई दिल्ली से जीत दर्ज की। उधर, सुषमा स्वराज की बेटी बांसुरी भी एक जानी-पहचानी शख्सियत हैं, क्योंकि वे नई दिल्ली से सांसद हैं। उन्होंने हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी के लिए जोरदार प्रचार किया था। परवेश वर्मा का विधानसभा क्षेत्र भी बांसुरी स्वराज के संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। अब सवाल यह है कि दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? वर्मा और स्वराज के नाम चर्चा में हैं। परवेश वर्मा को “जायंट स्लेयर” कहा जा रहा है, क्योंकि उन्होंने अरविंद केजरीवाल को हराया है।
दूसरी ओर, बांसुरी स्वराज युवा, प्रभावशाली वक्ता हैं और सबसे अहम बात—महिला हैं। 41 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहचान बना ली है। हालांकि, वर्मा के लिए स्थिति इतनी स्पष्ट नहीं है। वे दो बार पश्चिम दिल्ली से सांसद रह चुके हैं, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उन्हें टिकट नहीं दिया था। यदि वे केजरीवाल को नहीं हराते, तो शायद वे इस दौड़ में होते भी नहीं। इसके अलावा, उनके पिता का नाम भी उनके समर्थन में काम कर सकता है। अटकलें तेज हैं कि बीजेपी दिल्ली को एक महिला मुख्यमंत्री देने पर विचार कर रही है—जो पार्टी की दूसरी और दिल्ली की चौथी महिला मुख्यमंत्री होंगी। इससे पहले सुषमा स्वराज (बीजेपी), शीला दीक्षित (कांग्रेस) और आतिशी (आम आदमी पार्टी) इस पद पर रह चुकी हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि मुख्यमंत्री हाल ही में चुने गए विधायकों में से होगा या किसी सांसद को यह जिम्मेदारी दी जाएगी।
अगर बीजेपी लिंग आधारित राजनीति करती है, तो इसका उद्देश्य महिला मतदाताओं को और मजबूत करना होगा, खासकर जब मोदी सरकार की महिला केंद्रित योजनाओं ने अच्छे परिणाम दिए हैं। लिंग से इतर, यह संभावना भी बनी हुई है कि बीजेपी दिल्ली में किसी सिख को मुख्यमंत्री बना सकती है। 1984 के सिख विरोधी दंगों के घाव अब भी ताज़ा हैं। साथ ही, इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के फैसले ने सिख समुदाय को कांग्रेस से दूर कर दिया था। ऐसे में, यदि बीजेपी किसी सिख को मुख्यमंत्री बनाती है, तो इससे न सिर्फ समुदाय की भावनाओं को संतुष्ट किया जा सकेगा, बल्कि यह एक मजबूत राजनीतिक संदेश भी होगा कि बीजेपी सिखों और पंजाबी मतदाताओं के साथ खड़ी है, जिन्होंने इस बार पार्टी को बड़े पैमाने पर समर्थन दिया है। जातीय समीकरण भी मुख्यमंत्री के चयन में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
बीजेपी पूर्वांचली समुदाय तक अपनी पहुंच बढ़ाना चाहेगी। पार्टी ने पूर्वांचली बहुल 14 सीटों में से 11 पर जीत दर्ज की है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि बिहार में इस साल चुनाव होने हैं, और बीजेपी बिहार में पूर्वांचली वोटरों को लुभाना चाहेगी। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विजय भाषण में विशेष रूप से पूर्वांचली मतदाताओं का धन्यवाद किया था। जहां तक दलितों की बात है, यह पहली बार है जब बीजेपी को विधानसभा स्तर पर दलित वोटरों का समर्थन मिला है। इस चुनाव में 12 आरक्षित सीटों में से 4 बीजेपी के खाते में गई हैं। इस मोड़ पर एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है।
क्या इतनी मज़बूत स्थिति में होने के बावजूद बीजेपी प्रतीकात्मक राजनीति का सहारा लेगी? क्या वह जाति और लिंग के आधार पर वोट साधने की कोशिश करेगी, या फिर केवल कुछ वर्गों को खुश करने के लिए पदों का बंटवारा करेगी? क्या वह वंशवाद की राजनीति का शिकार होगी? या फिर वह सुशासन को प्राथमिकता देकर ऐसे नेता का चयन करेगी जो विकास पर ध्यान केंद्रित कर सके और पटरी से उतरी राजधानी को फिर से सही दिशा में ले जाए? यह भी एक तथ्य है कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने आम जनता के हित में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए, जिनमें मोहल्ला क्लीनिक और स्कूलों का आधुनिकीकरण प्रमुख हैं। बीजेपी के लिए यही बेहतर होगा कि वह इन उपलब्धियों को आगे बढ़ाए, न कि सिर्फ इसलिए उन्हें नष्ट कर दे क्योंकि वे आप सरकार के कार्यकाल में शुरू हुई थीं। अब समय आ गया है कि पार्टी संकीर्ण और दलीय राजनीति से ऊपर उठकर उन लोगों की भलाई पर ध्यान केंद्रित करे, जिन्होंने उम्मीद और विश्वास के साथ उसे सत्ता में लाया है। बीजेपी की प्रभावशाली जीत को देखते हुए, उसकी असली परीक्षा अब शुरू होती है।