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चीन की कुटिल कूटनीति का तोड़?

जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर पड़ौसी चीन ने जिस तरह का रुख राष्ट्रसंघ में अपनाया है उससे इस देश की नीयत का अन्दाजा लगाया जा सकता है।

04:47 AM Sep 30, 2019 IST | Ashwini Chopra

जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर पड़ौसी चीन ने जिस तरह का रुख राष्ट्रसंघ में अपनाया है उससे इस देश की नीयत का अन्दाजा लगाया जा सकता है।

चीन की कुटिल कूटनीति का तोड़
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जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर पड़ौसी चीन ने जिस तरह का रुख राष्ट्रसंघ में अपनाया है उससे इस देश की नीयत का अन्दाजा लगाया जा सकता है। पाक अधिकृत कश्मीर में चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर 60 अरब डालर से भी अधिक की  जो सीपैक ‘चीन-पाकिस्तान कारीडोर’ परियोजना लगा रहा है उससे चीन की स्थिति ‘अतिक्रमणकारी’ देश की कहलाई जा सकती है, क्योंकि यह पाक द्वारा अवैध रूप से कब्जाई गई जमीन से होकर गुजर रही है। अतः भारत ने इस ‘कथित’ परियोजना को ‘नाजायज’ करार देकर उचित कूटनीतिक शब्दावली में अपने विरोध का प्रदर्शन किया है।
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पूरी दुनिया जानती है कि इस परियोजना के नाम पर पाकिस्तान में चीन के दस लाख सैनिक वर्षों से डेरा जमाये हुए हैं और पाकिस्तान इसे ‘आर्थिक सहयोग’ का बेनजीर कारनामा बता रहा है। दीगर सवाल यह है कि चीन  जम्मू-कश्मीर पर अपना रुख क्यों बदल रहा है ? पिछले वर्षों तक चीन सार्वजनिक रूप से कहता रहा है कि जम्मू-कश्मीर भारत आैर पाकिस्तान के बीच का आपसी मसला है जिसे दोनों देशों को शान्तिपूर्ण तरीके से निपटाना चाहिए, परन्तु राष्ट्रसंघ  के इजलास में जिस तरह चीन के विदेश मन्त्री वांग यी ने पाकिस्तान की भाषा बोलते हुए यह कहा ​कि कश्मीर का मसला राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद द्वारा पारित किए गए प्रस्तावों के अनुरूप व द्विपक्षीय बातचीत द्वारा हल किया जाना चाहिए, उससे उसकी यह मंशा प्रकट हो गई है कि वह कश्मीर के बहाने भारत पर दबाव बनाकर अपने सीमा विवाद का पलड़ा अपनी ओर झुकाना चाहता है।
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पिछले वर्ष ही चीन के राष्ट्रपति ने  कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता करने की पेशकश भी की थी जिसका भारत ने संज्ञान तक लेना जरूरी नहीं समझा था। यह स्वयं में विस्मयकारी है कि राष्ट्रसंघ की साधारण सभा को किये गये सम्बोधन में वांग यी ने कहा कि कश्मीर के मामले में ऐसी कोई भी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जिससे ‘यथास्थिति’ में बदलाव हो। जाहिर तौर पर भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को समाप्त किये जाने का सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय सीमा स्थिति से किसी तौर पर नहीं है। इसे हटाने से न तो भारत-पाक के बीच की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर कोई प्रभाव पड़ा है और न ही नियन्त्रण रेखा पर। इसके बावजूद चीन का ऐसा रुख बताता है कि कश्मीर में वह स्वयं एक पक्ष (पार्टी) बनना चाहता है।
विगत 5 अगस्त को जब इस राज्य में 370 की समाप्ति की गई थी तो उसके बाद विदेशमन्त्री एस. जयशंकर स्वयं बीजिंग गये थे और उन्होंने चीनी सरकार से साफ कहा था कि भारतीय संघ के किसी भी राज्य की आन्त​िरक व्यवस्था में फेरबदल भारत का पूरी तरह अदरूनी मामला है और इससे अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः चीन को भारत का अच्छा पड़ौसी होने के नाते निष्पक्ष भाव से काम लेना चाहिए। चीन भलीभांति जानता है कि आतंकवादी मसूद अजहर के मामले में उसे अपने रुख में परिवर्तन इसी वजह से करना पड़ा था क्योंकि दुनिया के लगभग सभी सुरक्षा परिषद् सदस्य देश उसके मत के साथ थे और मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के हक में थे।
चीन ने अन्ततः भारत का मत ही स्वीकार करते हुए मसूद को आतंकवादी घोषित न करने की जिद छोड़ी परन्तु कश्मीर के मामले में वह ऐसी क्रूर कूटनीति पर चल रहा है जिससे वह भारत को अपने दबाव में बनाये रख सके। चीन की समझ में सबसे पहले यह आना चाहिए कि कब्जाये गये कश्मीर में जो स्थिति पाकिस्तान की है उससे भी बदतर स्थिति चीन की उसी कश्मीरी हिस्से में है क्योंकि 1962 में भारत की 40 हजार वर्ग मील भूमि हड़पने के बाद चीन को पाकिस्तान ने ही अपने कब्जे वाली कश्र घाटी का एक तिहाई हिस्सा खैरात में सिर्फ इसलिए दे दिया था क्योंकि 1962 में भारत उससे पराजित हो गया था।
इसी खैरात में मिले टुकड़े पर चीन ने दुनिया की सबसे ऊंची सड़क काराकोरम बनाई और भारत की सुरक्षा पंक्ति के लिए चुनौती पैदा करने का काम किया। यह राजमार्ग पाकिस्तान के पंजाब से शुरू होकर गिलगित-बाल्टिस्तान होते हुए चीन को जोड़ता है। पाकिस्तान ने यह काम सिर्फ भारत से दुश्मनी के चलते किया था, मगर कालान्तर में हमसे भी गलतियां हुई हैं। गलती केवल 1962 में चीन पर भरोसा रखने से ही नहीं हुई बल्कि 2003 में भी स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमन्त्री रहते हुई जब हमने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार कर लिया लेकिन बदले में चीन ने हमको यह दिया कि उसने सिक्किम को हमारा अंग स्वीकार करते हुए हमारे अरुणाचल प्रदेश को ही विवादित बनाने की कोशिश कर डाली।
चीन फिर से अपनी पुरानी कटार भरी भाषा बोल कर पाकिस्तान का साथ देने की चाल चल रहा है जिसे कूटनीतिक रूप से ही नाकारा बनाना होगा, जो चीन स्वयं अवैध रूप से हथियाई गई जमीन पर अपनी परियोजना चला रहा है वह किस हैसियत से राष्ट्रसंघ में खड़े होकर नसीहत देने की हिम्मत कर सकता है। अतिक्रमणकारी किस तरह हमलावर पाकिस्तान की हिमायत कर सकता है? चीन को मालूम है कि जम्मू-कश्मीर व लद्दाख भारतीय संघ का हिस्सा हैं तो फिर किस प्रकार वह हमें यथास्थिति में बदलाव को देख रहा है? कश्मीर के अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने की उसकी पेंचभरी कूटनीति का जवाब हमें उसी की तर्ज पर देने की तैयारी करनी होगी।
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Ashwini Chopra

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