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पाक के मंसूबे तोड़ दो

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09:40 AM Feb 18, 2019 IST | Desk Team

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पुलवामा में सुरक्षा बलों के 42 जवानों के एक आत्मघाती हमले में शहीद हो जाने से भारत के आत्मविश्वास और आत्मबल को तोड़ने की कोई भी साजिश कामयाब नहीं हो सकती क्योंकि जिस जम्मू-कश्मीर प्रान्त में इस घटना को अंजाम दिया गया है उसका हर कश्मीरी नागरिक भारतीय है और राष्ट्रभक्त होने के साथ-साथ इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब का सच्चा अलम्बरदार है। अतः पाकिस्तान यह गलतफहमी जितनी जल्दी हो दूर कर ले कि वह कश्मीरियों को बरगलाने में कभी भी सफल हो सकता है। इसकी वजह वह ऐतिहासिक सच है जिसे देखकर मजहब की बुनियाद पर तामीर हुआ पाकिस्तान बेहोश हो जाता है। 1947 में पाकिस्तान बनाये जाने का सबसे कड़ा विरोध कश्मीर से ही हुआ था और उस समय पूरे देश में फैले साम्प्रदायिक दंगों के दौरान जम्मू-कश्मीर राज्य में एक भी फिरकावाराना घटना नहीं हुई थी जिसे देखकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘इस अंधेरे में कश्मीर से उम्मीद की एक किरण फूटी है’’ यह किरण कुछ और नहीं बल्कि भारत की वह आत्मा ही थी जिसकी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने इशारा किया है।

अतः यह बात शीशे की तरह साफ होनी चाहिए कि पुलवामा मुद्दे पर किसी भी तरीके की राजनीति नहीं हो सकती क्योंकि विपक्ष ने आतंकवाद जैसी समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए सरकार को आंख मूंद कर समर्थन दिया है और एेलान किया है कि देश के सुरक्षा बलों के साथ वह भी मजबूती के साथ खड़ा हुआ है। अतः सियासत के हर छोटे -बड़े सिपाही को इस मुद्दे पर अपनी जुबान को काबू में रख कर ही कुछ बोलना चाहिए। पुलवामा हमले को किसी भी तरीके का सियासी या साम्प्रदायिक रंग देने की हर कोशिश को राष्ट्र विरोध ही समझा जाना चाहिए और देश के भविष्य को तय करने वाले लोकसभा चुनावों में यह किसी भी तरह मुद्दा नहीं बनना चाहिए क्योंकि एेसा होते ही हमारी फौज के राजनीति की दल-दल में फंसने का खतरा पैदा हो जायेगा। हर हिन्दू-मुसलमान का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह उन दरिन्दों की साजिश को किसी भी तौर पर कामयाब न होने दें जो आतंकवाद के जरिये इस मुल्क को कमजोर करना चाहते हैं और लोगों को आपस में लड़ाना चाहते हैं।

सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि हर कश्मीरी नागरिक भारत का ही अभिन्न हिस्सा है और भारत का संविधान उसके ऊपर भी लागू होता है हालांकि उसके अपने कुछ विशेषाधिकार भी हैं जो भारतीय संविधान ने ही उसे दिये हैं। उसके हिन्दू या मुसलमान होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि हिन्दोस्तान के हर राज्य में दोनों धर्मों के लोग मिल-बांट कर रहते हैं मगर पाकिस्तान से भारत की यह बेमिसाल सामाजिक एकता और धर्मनिरपेक्षता कभी बर्दाश्त नहीं हुई और वह अपने वजूद में आने के बाद से ही इसे तोड़ने की कोशिशें करता रहा। खास कर कश्मीर को उसने अपने निशाने पर इस तरह रखने की कोशिश की कि दुनिया की ‘जन्नत’ कहे जाने वाले इस सूबे को ‘जहन्नुम’ बना कर भारत की उस ‘अवधारणा’ को ही गारत कर दे जो उसके खुद के वजूद को ही हिमालय की चोटी से लगातार चुनौती देती रहती है। यह चुनौती वह कश्मीरी संस्कृति है जिसमें मजहब की दीवारें इंसानियत के गुम्बद के साये में रहती हैं।

पाकिस्तान एेसा करना अपने वजूद के लिए जरूरी समझता है क्योंकि उसकी बुनियाद मजहब की ऊपरी बनावट पर रखी गई है। मगर पाकिस्तान की इस मंशा को स्व. प्रधानमन्त्री श्रीमती इं​िदरा गांधी ने इस शिद्दत के साथ समझ कर उसका मुस्तकिल इलाज ढूंढ़ा था जिसकी मिसाल हिन्दोस्तान की आने वाली पीढि़यां देती रहेंगी और पाकिस्तान अपनी नाजायज तामीर से उपजी बदनीयती की जरदारी संभालने वाली अपनी नामुराद फौज को कोसता रहेगा। दरअसल सियासत फौजों को टकराने की छूट देने का नाम नहीं होती बल्कि उनकी टकराहट से टक्करों को ही खत्म करने का नाम होती है। इंदिरा गांधी ने यही कमाल 1971 में पाकिस्तान को बीच से चीर कर किया था और केवल एक एेसी घटना की वजह से किया था जिसमें पाकिस्तान नें कश्मीरियों को गलत रास्ते पर ले जाने की न केवल जुर्रत दिखाई थी बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे भारत की कश्मीर में जबरन कार्रवाई का मुजाहिरा बताया था।

इन्दिरा जी ने इसे भारत के सम्मान और इसके लोकतन्त्र की ताकत का मुद्दा बनाते हुए वह कमाल किया कि कूटनीति से लेकर सैनिक रणनीति का एेसा नया इतिहास लिखा गया कि पाकिस्तान को अपनी गोद में लेकर दुलारने वाला अमेरिका भी दांतों तले अंगुली दबा गया और सोचने लगा कि राष्ट्र समर्पण की सच्ची राजनीति के मायने क्या होते हैं। यह घटना 30 जनवरी 1971 को श्रीनगर हवाई अड्डे पर हुई थी। यह खड़े इंडियन एयरलाइंस के पोकर फ्रेंडशिप यात्री विमान ‘गंगा’ का पाकिस्तान द्वारा भटकाये गये दो कश्मीरी युवकों ने इसका अपहरण कर लिया और उसे लाहौर ले जाकर फूंक दिया। पूरा भारत गुस्से से उबलने लगा। शहरों में जुलूस ये नारे लगाते हुए निकलने लगे कि ‘‘उसने फूंका विमान-हम फूंकेंगे पाकिस्तान’’ प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी सारा नजारा धैर्य के साथ देख रही थीं। उन्होंने एेलान किया कि अब से पाकिस्तान का कोई भी विमान भारत की वायु सीमा के ऊपर से नहीं गुजर सकेगा।

पाकिस्तान इसके खिलाफ हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला गया। इंदिरा जी ने कहा-परवाह नहीं, पाकिस्तान को अपने किये का फल भुगतना ही होगा। उधर पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पाकिस्तान के खिलाफ मुक्ति संग्राम की सनसनाहट शुरू हो चुकी थी। हालांकि भारत में 1971 के लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया लगभग शुरू हो चुकी थी मगर इंदिरा जी ने केवल इतना भर कहा कि हर कश्मीरी भारत का बाइज्जत नागरिक है। पाकिस्तान को कश्मीर को लेकर किसी तरह की गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। उसे अपनी जमीन पर भारत के विमान फूंकने की कार्रवाई को तमाशा बना देने की सजा बखूबी मिलेगी और पाकिस्तान को जो सजा इंदिरा गांधी ने इस कार्रवाई के लिए दी उसने उसके वजूद पर ही सवाल लगा दिया और उसकी फौज को मजबूर कर दिया कि वह भारतीय फौज के सामने गिड़गिड़ा कर अपनी जान-ओ-माल की भीख मांगे औऱ वह भी घुटनों के बल बैठ कर यह सियासत का वह अंदाज था जिसमंे ‘बुद्ध’ भी था और ‘युद्ध’ भी। अदावत भी थी और सखावत भी।

लोकतान्त्रिक भारत दूसरे बदमिजाज और बदगुमान मुल्क को किस तरह सबक सिखाता है इसका बेसाख्ता इजहार भी। इसी सियासत ने पाकिस्तान को इस तरह बेदम करके छोड़ दिया था कि वह भारत की तरफ देखने की तब तक हिम्मत नहीं कर सका जब तक कि खुद हमारे यहां ही सियासत के अन्दाज बदमिजाज (1989 से शुरू होकर) नहीं हो गया। इसलिए बहुत जरूरी है कि हम सियासत के अन्दाज को जारी रखें और अपनी ताकत को इकट्ठा रखें और लोकसभा चुनावों में जनता के असली मुद्दों की ही बात हो और फौज को हर हालत में सियासत से दूर रखा जाये।

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