बिहार में बम्पर वोटिंग
लोकतन्त्र में जन बल के समक्ष सभी बल कमजोर होते हैं क्योंकि इस व्यवस्था में केवल जनता की शक्ति ही स्वयंभू होती है और इसी के आदेश पर किसी भी लोकतन्त्र में सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। बिहार में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में किस पार्टी या गठबन्धन की सरकार बनेगी, इसका फैसला आज जनता ने ईवीएम मशीनों में कैद कर दिया है, जिसका पता आगामी 14 नवम्बर को चलेगा जिस दिन वोटों की गिनती की जायेगी परन्तु इतना निश्चित माना जा रहा है कि जिस उत्साह से दूसरे चरण के मतदान में लोगों ने अपने मताधिकार का उपयोग करके बम्पर वोटिंग की है उससे लोकतन्त्र और मजबूत हुआ है। बिहार के लोग राजनीतिक रूप से बहुत सजग व जागरूक माने जाते हैं अतः उनके द्वारा की गई बम्पर वोटिंग के मायने भी क्रान्तिकारी हो सकते हैं। पिछली 6 नवम्बर की तारीख को जब पहले चरण का मतदान हुआ था तो इसका प्रतिशत 65 से ऊपर था जो कि बिहार के पिछले 75 वर्ष के इतिहास में सर्वाधिक था। दूसरे चरण के मतदान में पिछला पहले चरण का कीर्तिमान भी टूट गया है और मतदान 70 प्रतिशत के करीब रहा है। इससे पता चलता है कि लोगों के मन में कुछ नया करने की ख्वाहिश है।
पिछले 20 सालों से राज्य में एनडीए गठबन्धन की नीतीश सरकार ही चल रही है (केवल कुछ समय को छोड़ कर) अतः कुछ विश्लेषक मान रहे हैं कि यह बदलाव के लिए वोट है। लोकतन्त्र की एक खूबी और भी होती है कि यह ठहराव के विरुद्ध होता है मगर कभी-कभी इसके विपरीत भी देखने में आता है। इसलिए 14 नवम्बर को ही यह मालूम हो सकेगा कि लोगों ने पिछले सारे रिकाॅर्ड तोड़कर जो मतदान किया है उसका असली मकसद क्या है? मगर मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि लोग कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर चाहते हैं। आज हुए मतदान में सभी राजनीतिक दलों के 122 सीटों के लिए कुल1302 प्रत्याशी खड़े हुए थे जिनमें से केवल 122 का ही चुनाव होना था। इनमें भी भाजपा समाहित एनडीए गठबन्धन व कांग्रेस समाहित महागठबन्धन के बीच कांटे का मुकाबला माना जा रहा है। मगर मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार इन चुनावों का केन्द्र भी बने हुए हैं। अभी तक पिछले चुनावों से यह परंपरा चली आ रही है कि जिस तरफ नीतीश बाबू होते हैं वही गठबन्धन चुनावों में बाजी मार जाता है।
2005 से लेकर 2020 तक के चुनावों में यही होता रहा है। 2015 के चुनावों में जब नीतीश बाबू महागठबन्धन के पाले में थे और उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ दिया था तो इस महागठबन्धन को शानदार विजय प्राप्त हुई थी। मगर पिछले 2020 के चुनावों में तस्वीर एेसी नहीं थी हालांकि विजय नीतीश बाबू के पाले वाले एनडीए की ही हुई थी मगर जीत का अन्तर केवल 12 हजार वोटों का ही था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहार में नीतीश कुमार के जलवे में रौनक घट रही है। इस बार राज्य की राजनीति के ध्रुव माने जाने वाले श्री लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के नेता उनके पुत्र श्री तेजस्वी यादव का जलवा चुनाव में आकर्षण का केन्द्र रहा है अतः उनकी अगुवाई वाले महागठबन्धन से कुछ करिश्मे की उम्मीद लगाई जा रही है। यह करिश्मा किस प्रकार का होगा इसका आंकलन राजनीतिक पंडित अगले दो दिनों, 14 नवम्बर तक करने में लगे रहेंगे। मगर इतना तय है कि तेजस्वी ने इन चुनावों में अपने द्वारा बनाये गये राजनीतिक विमर्श को लोगों के गले उतारने में एक हद तक सफलता जरूर पाई। यह विमर्श बेरोजगारी व पलायन का था।
चुनाव का यह नियम होता है कि जिस पार्टी या पक्ष का विमर्श जनता में बोलने लगता है वही पार्टी या पक्ष अन्त में भारी पड़ता है। दूसरे चरण के मतदान प्रतिशत के आंकड़े इस बात की गवाही देते लगते हैं। अतः सोचा जा सकता है कि सत्तारूढ़ एनडीए गठबन्धन को इस बार नीतीश बाबू का साथ होने का पूरा लाभ किस हद तक मिल पायेगा? 2020 के पिछले चुनावों में 58.64 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। इस बार यह आंकड़ा 70 के करीब है तो इसके अर्थ आसानी से निकाले जा सकते हैं परन्तु कई राज्यों के चुनावों में बढे़ हुए मतदान का लाभ सत्तारूढ़ दलों को भी पूर्व में होता रहा है इसलिए यकीन के साथ कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। परन्तु मैं एक्जिट पोलों की विश्वसनीयता को शून्य मानता रहा हूं क्योंकि इनका आंकलन प्रायः सही नहीं निकलता है और ये अपने आंकड़ेबाजी के करतबों से जिसे चाहे उसे हरा या जिता देते हैं।
बिहार के बारे में यह प्रसिद्ध है कि यह देश को राजनीतिक दिशा देने वाला राज्य है। इसकी राजनीति भविष्य की दिशा तय करने में सहायक मानी जाती है। इसलिए 14 तारीख को जो भी नतीजे आयेंगे उनका असर पूरे भारत खासकर उत्तर भारत की राजनीति पर पड़े बिना नहीं रहेगा। इस हकीकत को सत्ता व विपक्ष दोनों ही समझते हैं, इसीलिए दोनों पक्षों ने अपने-अपने चुनाव प्रचार में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती। राजद नेता तेजस्वी यादव ने तो 171 रैलियां सम्बोधित कीं। जबकि भाजपा की ओर से भी प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री से लेकर नीतीश कुमार तक ने जमकर चुनाव प्रचार किया। इससे बिहार की राष्ट्रीय राजनीति में अहमियत का अनुमान लगाया जा सकता है।

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